तृतीय पटल - ताराचक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


यहाँ तक हमने कुलाकुल चक्र कहा । अब तारा चक्र के निर्माण का प्रकार सुनिए - दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर चार रेखा तथा हे वीरवन्दित ! पूर्व से पश्चिम दश रेखा का निर्माण करना चाहिए । इस प्रकार कुल तीन पंक्तियों मे बने २७ कोष्ठकों में अश्विन्यादि के क्रम से २७ नक्षत्र के नाम लिखना चाहिए ॥३९ - ४१॥

तदनन्तर वक्ष्यमाण क्रम से उनमें वर्णों को इस प्रकार लिखे - अश्विनी में ’ अ आ ’ दो वर्ण , भरणी में ’ इ ’ एक वर्ण , कृर्त्तिका में ’ ई उ ऊ ’ तीन वर्ण , रोहिणी में ’ ऋ ऋ लृ लृ ’ चार वर्ण , मृगशिरा में ’ ए ’ एक वर्ण , आर्द्रा में ’ ऐ ’ एक वर्ण , पुनर्वसु में ’ ओ औ ’ दो वर्ण , पुष्य में ’ क ’ एक वर्ण , आश्लेषा में ’ ख ग ’ दो वर्ण , दूसरी पंक्ति में मघा में ’ घ ङ ’ दो वर्ण , पूर्वाफाल्गुनी में ’ च ’ एक वर्ण , उत्तराफाल्गुनी में ’ छ ज ’ दो वर्ण , हस्त में ’ झ ञ ’ दो वर्ण , चित्रा में ’ ट ठ ’ दो वर्ण , स्वाती में ’ ड ’ एक वर्ण , विशाखा में ’ ढ ण ’ दो वर्ण , अनुराधा में ’ त थ द ’ तीन वर्ण , ज्येष्ठा में ’ ध ’ एक वर्ण , तीसरी पंक्ति में मूल में ’ न प फ ’ तीन वर्ण , पूर्वाषाढा़ में ’ ब ’ एक वर्ण , उत्तराषाढा़ में ’ भ ’ एक वर्ण , श्रावण में ’ म ’ एक वर्ण , धनिष्ठा में ’ य र ’ दो वर्ण , शताभिषा में ’ ल ’ एक वर्ण , पूर्वाभाद्रपदा में ’ व श ’ दो वर्ण , उत्तरभारद्र्पदा में ’ ष स ह ’ तीन वर्ण तथा रेवती में ’ क्ष अं अः ’ इन चार वर्णों को - इस प्रकार सभी स्वर और व्यञ्जन वर्ण दोनों को अश्विनी से लेकर रेवती नक्षत्र पर्यन्त कोष्ठकों में लिखना चाहिए ॥४२ - ४४॥

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Last Updated : July 28, 2011

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