पञ्चमस्कन्धपरिच्छेदः - एकविंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


मध्योद्भवे भुव इलावृतनाम्नि वर्षे

गौरीप्रधानवनिताजनमात्रभाजि ।

शर्वेण मन्त्रनुतिभिः समुपास्यमानं

सङ्कर्षणात्मकमधीश्र्वर संश्रये त्वाम् ॥१॥

भद्राश्र्वनामक इलाहवृतपूर्ववर्षे

भद्रश्रवोभिर्ऋषिभिः परिणूयमानम् ।

कल्पान्तगूढनिगमोद्धरणप्रवीणं

ध्यायामि देव हयशीर्षतनुं भवन्तम् ॥२॥

ध्यायामि दक्षिणगते हरिवर्षवर्षे

प्रह्रदमुख्यपुरुषैः परिषेव्यमाणम् ।

उत्तुङ्गशानतधवलाकृतिमेकशुद्ध -

ज्ञानप्रदं नरहरिं भगवन् भवन्तम् ॥३॥

वर्षे प्रतीचि ललितात्मनि केतुमाले

लीलाविशेषललितस्मितशोभनाङ्गम् ।

लक्ष्म्या प्रजापतिसुतैश्र्च निषेव्यमाणं

तस्याः प्रियाय धृतकामतनुं भजे त्वाम् ॥४॥

रम्ये ह्युदीचि खलु रम्यकनाम्नि वर्षे

तद्वर्षनाथमनुवर्यसपर्यमाणम् ।

भक्तैकवत्सलममत्सरहृत्सु भान्तं

मत्स्याकृतिं भुवननाथ भजे भवन्तम् ॥५॥

वर्षं हिरण्यमयसमाह्णयमौत्तराह -

मासीनमद्रिधृतिकर्मठछकामठङ्गम् ।

संसेवते पितृगणप्रवरोऽर्यमा यं

तं त्वां भजामि भगवन् परिचिन्मयात्मन् ॥६॥

किं चोत्तरेषु कुरुषु प्रियया धरण्या

संसेवितो महितमतन्त्रनुतिप्रभेदैः ।

दंष्ट्राग्रघृष्टघनपृष्ठगरिष्ठवर्ष्मा

त्वं पाहि विज्ञनुतयज्ञवराहमूर्ते ॥७॥

याम्यां दिशं भजति किम्पुरुषाख्यवर्षे

संसेवितो हनुमता दृढभक्तिभाजा ।

रामात्मकः परिलसन् परिपाहि विष्णो ॥८॥

श्रीनारदेन सह भारतखण्डमुख्यै -

स्त्वं सांख्ययोगनुतिभिः समुपास्यमानः ।

आकल्पकालमिह साधुजनाभिरक्षी

नारायणो नरसखः परिपाहि भूमन् ॥९॥

प्लाक्षेऽर्करूपमयि शाल्मल इन्दुरूपं

द्वीपे भजन्ति कुशनामनिवह्निरूपम् ।

क्रौञ्चैऽम्बुरूपमथ वायुमयं च शाके

त्वां ब्रह्मरूपमयि पुष्करनाम्नि लोकाः ॥१०॥

सर्वैर्ध्रुवादिभिरुडुप्रकरैर्ग्रहैश्र्च

पुच्छादिकेष्ववयवेष्वभिकल्प्यमानैः ।

त्वं शिंशुमारवपुषा महतामुपास्यः

संध्यासु रुन्धि नरकं मम सिन्धुशायिन् ॥११॥

पातालमूलभूवि शेषतनुं भवन्तं

लोलैककुण्डलविराजिसहस्रशीर्षम् ।

नीलाम्बरं धृतहलं भुजागाङ्गनाभि -

र्जुष्टं भजे हर गदान् गुरुगेहनाथ ॥१२॥

॥ इति जम्बूद्वीपादिषु भगवनदुपासनाप्रकारवर्णनम् एकविंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

पृथ्वीके मध्यभागमें स्थित जम्बूद्वीपके बीचोबीच इलावृत नामका वर्ष है , उसमें गौरीप्रमुख वनिताएँ ही निवास करती हैं । वहॉं एकमात्र शिवजी ही पुरुष हैं । वे मन्त्रों तथा स्तुतियोंद्वारा संकर्षण -स्वरूप आपकी उपासना करते हैं । अधीश्र्वर ! ऐसे आपका मैं भी आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥१॥

देव ! इलाहवृतवर्षके पूर्वभागमें भद्राश्र्व नामक वर्ष है । उसमे आप हयग्रीवरूपसे वर्तमान हैं । वहॉं भद्रश्रवा नामक ऋषिगण आपकी स्तुति करते हैं । आप कल्पान्तमें लुप्त हुए वेदोंका उद्धार करनेमें प्रवीण हैं । ऐसे आपका मैं

ध्यान करता हूँ ॥२॥

भगवन् ! इलावृतके दक्षिणभागमें हरिवर्ष नामक वर्ष है । उसमें आपकी नृसिंह -मूर्ति विद्यमान है , जिसकी आकृति ऊँची , शान्त तथा परमोज्ज्वल है । प्रह्लाद आदि मुख्य पुरुष उसकी उपासना करते हैं । एकमात्र शुद्ध ज्ञान प्रदान करनेवाले आपका मैं ध्यान करता हूँ ॥३॥

इलावृतके पश्र्चिम सौन्दर्ययुक्त प्राणियोंसे परिपूर्ण केतुमाल नामक वर्ष है । वहॉं लक्ष्मीको प्रसन्न करनेके लिये आपने कामदेवका स्वरूप धारण किया था । आपका शरीर लीलाविशेषसे रमणीय तथा मन्द मुसकानसे सुशोभित है । वहॉं लक्ष्मी तथा संवत्सर नामक प्रजापतिके पुत्रोंद्वारा आपकी सेवा होती है । ऐसे आपका मैं भजन करता हूँ ॥४॥

भुवननाथ ! इलाहवृतके उत्तर परम रमणीय रम्यक नामवाला वर्ष है । उसमें आपकी मत्स्य -मूर्ति विद्यमान है , जिसकी रम्यकर्षके स्वामी मनुश्रेष्ठ वैवस्वत नित्य आराधना करते रहते हैं । आप एकमात्र भक्तवत्सल तथा मत्सरहीन हृदयोंमे भासित होनेवाले हैं । ऐसे आपको मैं भजता हूँ ॥५॥

उत्तर दिशामें हिरण्मय नामक वर्ष है । उसमें अमृतमन्थनके समय मन्दराचलको धारण करनेमें निपुण आपकी कच्छप -मूर्ति आसीन है , जिसकी पितृगणोंमें श्रेष्ठ ये अर्यमा नित्य सेवा करते हैं । विशुद्धज्ञानस्वरूप भगवन् ! ऐसे आपका मैं भजन करता हूँ ॥६॥

उत्तर कुरुवर्षमें आप दंष्ट्राग्रभागसे घनपृष्ठको रगड़नेवाले अत्यन्त उन्नत यज्ञवाराह -स्वरूपसे वर्तमान हैं । वहॉं आपकी प्रियतमा धरणीदेवी उत्तम मन्त्रों तथा विभिन्न स्तोत्रोंद्वारा आपकी उपासना करती हैं । ज्ञानियोंद्वारा स्तुत यज्ञवराहमूर्तिधारी भगवन् ! आप मेरी रक्षा कीजिये ॥७॥

दक्षिण दिशामें स्थित किम्पुरुष नामक वर्षमें आप सीताजीके साथ परम अद्भुत तथा सौन्दर्यशाली रूप धारण करके राम -रूपसे सुशोभित हो रहे हैं । वहॉं अटलभक्तिमान् हनुमान्जी आपकी सेवा करते हैं । विष्णौ ! मेरी रक्षा कीजिये ॥८॥

भारतवर्षमें आप नरसखा नारायणरूपसे वर्तमन हैं । यहॉं आप कल्पर्यन्त साधुजनोंकी रक्षा करनेमें तत्पर हैं । श्रीनारदजी भारतवासी मुनीश्र्वरोंके साथ सांख्य -योगसम्बन्धिनी स्तुतियोंद्वारा आपकी सम्यक् उपासना करते हैं । भूमन् ! मेरी रक्षा कीजिये ॥९॥

प्लक्षद्वीपमें सूर्यरूपमें , शाल्मलिद्वीपमें चन्द्ररूपमें , कुशद्वीपमें अग्निरूपमें , क्रौञ्चद्वीपमें जलरूपमें , शाकद्वीपमें वायुरूपमें और पुष्करद्वीपमें ब्रह्मरूपमें उस -उस द्वीपके निवासी आपको भजते हैं ॥१०॥

सिन्धुशायिन् ! महापुरुषगण आपके शिशुमार (सूँस )- रूपकी तीनों संध्याओंमे उपासना करते हैं । आपके उस शरीरके पूँछ आदि अवयवोंमें उपासकोंने सभी ध्रुव आदि भक्तो , अश्र्विनी आदि नक्षत्रों तथा सूर्यादि ग्रहोंकी कल्पना कर रखी है । भगवन् ! मेरे नरक -पातका निवारण कीजिये ॥११॥

पाताललोकमें आपकी शेषमूर्ति विद्यमान है , जिसके एक हजार फण हैं और जो हिलते हुए एकमात्र कुण्डलसे सुशोभित है । उसपर नीलाम्बर शोभा पा रहा है । उसके हाथमें आयुधरूपमें हल वर्तमान है और नागिनियॉं उसकी सेवा कर रही हैं । ऐसे आपका मैं भजन करता हूँ गुरुगेहनाथ ! मेरे रोगोंका हर लीजिये ॥१२॥


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Last Updated : November 11, 2016

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