अध्याय चवथा - श्लोक ४१ से ६२

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


चल और अत्यन्त स्थिरभेदसे दो प्रकारके प्रासाद कहे है. चौसठ ६४ प्रकारके मण्डप और देवताओंके आश्रय प्राकार ॥४१॥

और विशेष कर जो छत्र ( तम्बू ) हैं और जो आठ प्रकारके मण्डप हैं सबकी कल्पनाभी ६४ पदके वास्तुसेही करे ॥४२॥

नगर ग्राम कोट और राजाओंके स्थावर गृह इनको स्थपति ( प्रधान पुरुष कारीगर ) के यहां स्थित जो यति अर्थात अकस्मात आयाहुआ संन्यासी उसके प्रमाणसे मापे ॥४३॥

स्निग्धाआदि भूमिके भागमें पैदा हुए को वट बेल खैर शमी न्यग्रोध गूलर देवदारु क्षीरके वृक्ष और अपने देशमें पैदाहुए फ़लंके वृक्ष ॥४४॥

इन सबको उपवास किया है जिसने ऎसा शिल्पीजन मध्यभागमें तीक्ष्ण कुठारसे छेदन करे फ़िर ( दिशाके पतिसे ) उत्तर दिशामें पतितवृक्षसे शुभ लग्नमें शंकु (खुँटी ) आदिको ग्रहण करके ॥४५॥

उस शंकुके चारों तरफ़ चार हाथभर वा उसके आधे प्रमाणसे भूमिको ग्रहण करके छेदन किये हुए उन पूर्वोक्त वृक्षोंको लेजाकर तबतक रखदे जबतक शंकुकी प्रतिष्ठाकी सनानता हो ॥४६॥

ईशकोन ( ईशाण ) की नन्दती ( शिला) को शुक्ला अग्निकोणकी सुभगा नैऋत्कोणको सुमंगली और वायुकोणकी भद्रंकरी नाम कहते हैं ॥४७॥

वृष अश्व पुरुष नाग इनके समान पैरोंसे क्रमसे अंकित जो नन्दती आदि शिला है उनका ऎसियोंका ग्रहण करना कहा है जो अखण्डित हो भली प्रकार दृढ हो और जो शुभलक्षणकी हों ॥४८॥

उन शिलाओंके मध्यमें क्रमसे कूर्म्म ( कच्छप ) शेष जनार्दन और श्री ध्रव इन चारोंके भवनके मध्यमें स्थितिके लिये स्थापन करे यह प्रमाण मुनियोंने कहा है ॥४९॥

शिलाओंका प्रमाण वर्णोके क्रमसे यह कहा है कि, इक्कीस २१ घन [ १७ ] तेरह १३ नन्द [ ९ ] इतने अंगुलोंका विस्तार वर्णोके जानना और इनसे आधा व्यास होता है ॥५०॥

उससे आधा प्रमाण पिण्डिकाका होता है वह ऊपरको अधिक बनानी अत्यन्त न्यून न बनानी और प्रमाणसे हीन होय तो पुत्रके नाशको करती है और व्यंग ( टूटी ) भ्रष्ट और विवर्ण देह ( मैली ) व्यय अर्थात अधिक खर्च वा नाशको करती है ॥५१॥

धनकी भी नष्टताको करती है. विस्तारके घरका जो प्रमाण हो उसके समान शिल्पिजनोंके अनुकुल शिला बनवानी, पत्थरके घरमें शिला पथरकी ही बनवाने, शिलाके घरमें शिलाओंसे बनवानी और ईटके घरमें ईटकाही पीठ कहा है ॥५२॥

भद्रनामके घरमें मूलपाद शिलास्थापन आदिका कहा है और पक्की ईटोंके घरमें ईटोंकाही मूलपाद बनवावे ॥५३॥

ईटोंकाही बनवायेहुए घरमें वास्तुके विषे शिलाके प्रमाणको देखना और अन्य घरोंमें शिलाके प्रमाणकी चिन्ता न करनी ॥५४॥

आधारकी जो शिला है वह ऎसी बनवानी जो दृढ मनोहर परिमाणसे युक्त उत्तम जिसके लक्षण हों जो परिमाणके मानसे न अधिक न अत्यन्त न्यून हो और जिसका रंग काला हो ॥५५॥

द्बारके अधिप आदि स्वामी गज अश्व इनका बलि और मंत्रोंसे भलीप्रकार पूजन करे फ़िर स्नानके लिये सुन्दर तीर्थके जलको लाकर पूजाकी सामग्रियोंसे कुंभका पूजन कर ॥५६॥

फ़िर शिलाके ध्रुवभागमें पांच अगुल खोदकर इस कुंभका स्थापन करे वह कुम्भ ब्राम्हण आदि वर्णोके अनुसार आधे २ न्यून प्रमाणसे प्रशस्त होता है ॥५७॥

उस कुंभको जल अक्षत व्रीहि पंचगव्य मधु घृत आदिसे भलीप्रकार पूर्ण करके ॥५८॥

शिलाके स्थापन समयमें सामग्रियोंको इकठ्ठी करे समुद्रमें जितने रत्न हों उनको और सुवर्ण चांदी सर्व बीज गन्ध शर कुशा ॥५९॥

सफ़ेद पुष्प घी सफ़ेद मधु गोरोचन आमिष ( मांस ) और मदिरा नानाप्रकारके फ़ल ॥६०॥

नैवेद्यके लिये पक्वान्न और ऎसे भूषण जो सफ़ेद पीले रक्त और कृष्णवर्णंके क्रमसे हों ॥६१॥

गन्धादि वस्त्र और पुष्प इनको वास्तुविधानके ज्ञाताओंसे बडी सावधानीसे इकठ्ठे करवावे ॥६२॥

इति पण्डित मिहिरचंद्र्कृत भाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे गृहादिनिर्माणवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्याय: ॥४॥

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Last Updated : January 20, 2012

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