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ययाति n. (सो.आयु.) प्रतिष्ठान देश का एक सुविख्यात राजा, जो नहुष राजा का पुत्र, एवं देवयानी तथा शर्मिष्ठा का पति था । महाभारत एवं पुराणों में इसे ‘सम्राट’ एवं ‘श्रेष्ठ विजेता’ कहा गया है । इसका राज्यकाल ३०००-२७५० ई.पू. माना जाता है ।इसने अपने पितामह आयु एवं पिता नहुष के कान्यकुब्ज देश के राज्य का विस्तार कर, अयोध्या के पश्चिम में स्थित मध्यदेश का सारा प्रदेश अपने राज्य में समाविष्ट किया । उत्तरी पश्चिम में सरस्वती नदी तक का सारा प्रदेश इसके राज्य में समाविष्ट था । इसके अतिरिक्त कान्यकुब्ज देश के दक्षिण, दक्षिणीपूर्व एवं पश्चिम में स्थित बहुत सारा प्रदेश इसने अपने बाहुबल से जीता था ।ऋग्वेद में इसे एक प्राचीन यज्ञकर्ता माना गया है, जो वेद की कुछ ऋचाओं का द्रष्टा था [ऋ. १.३१.१७, १०. ६३.१,९.१०१.४-६] । ऋग्वेद में एक बार इसका निर्देश नहुष राजा के वंशज ‘नहुष्य’ के रुप में किया गया है । पूरु के साथ इसके सम्बन्ध का निर्देश वैदिक ग्रंथो में अप्राप्य है । इसलिए महाकाव्य की परम्परा को निश्चित रुप से त्रुटिपूर्ण मानना चाहिए ।
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ययाति n. ययाति का वंश अग्नि, चन्द तथा सूर्य से उत्पन्न हुआ था [म.आ.१.४४] । प्रजापतिओं में यह दसवॉं था [म.आ.७१.१] । यह नहुष को सुधन्वन् संज्ञक पितृकन्या विराज से उत्पन्न पुत्रों में से दूसरा था [म.आ.७०.२९, ८४.१, ९०.७] ; उ.११२.७;[द्रो.११९.५] ;[अनु.१४७.२७] ;[वा.रा.उ.५८] ;[भा.९.१८] ;[विष्णु.४.१०] ;[गरुड.१.१३९.१८] ;[पद्म. सृ.१२] ;[अग्नि.२७४] ;[वायु ९३] ;[ह.वं.१३०] ;[ब्रह्म.१२] ;[कूर्म. १.२२] ;[लिंग. १.६६] । मत्स्य में, इसकी माता का नाम ‘सुधन्मन्’ की जगह ‘सुस्वधा’ दिया गया है [मत्स्य. १५.२०-२३] । पद्म के अनुसार, यह नहुष को अशोक-सुन्दरी नामक स्त्री से हुआ था [पद्म.भू.१०९] । इसके भाइयों की संख्या तथा नाम पुराणों में भिन्न भिन्न दिये गये हैं (नहुष देखिये) । इसका ज्येष्ठ भ्राता यति योग का आश्रय लेकर मुनि हो गया, तथा नहुष अजगर बन गया, जिससे यह भूमण्डल का सम्राट बना ।
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ययाति n. (१) पूर्वययात, जिसमें इसके स्वर्गगमन तक का चरित्र प्राप्त है, (२) उत्तरयायात, जहॉं इसके स्वर्गपतन के बाद का जीवन ग्रंथित किया गया है [म.आ.७०-८०, ८१-८८] ;[मत्स्य. ३४-८८] ।
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ययाति n. एक बार मृगया के निमित्त जंगल मे विचरण करता हुआ, तृषा से व्याकुल होकर यह एक कुएँ ने निकट आया । जैसे ही इसने कुँए में पानी देखना चाहा कि, इसे उसमें एक नग्न सुन्दरी दिख पडी । ययाति ने तत्काल उसे अपना उत्तरीय देकर एवं उसका दाहिना हाथ पकड कर बाहर निकाला । बाद में उसी स्त्री से इसे पता चला कि, वह दैत्यराज शुक्र की कन्या देवयानी है । अन्त में यह अपने नगर वापस आया [म.आ.७३.२२-२३] ;[भा.९.१८] ।एक बार इसने देवयानी के साथ एक अन्य कन्या को देख कर उन दोनों, का परिचय करना चाहा । तब देवयानी ने बताया, ‘मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ, तथा यह वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा है, जो मेरी दासी है । यह सुन कर राजा ने अपना परिचय दिया, एवं विदा होने के लिए देवयानी से आज्ञा मॉंगी । तब देवयानी ने राजा को रोक कर उससे प्रार्थना करते हुए कहा, ‘मैनें दो सहस्त्र दासी तथा शार्मिष्ठा के सहित आपको तन-मन धन से वरण किया है । अतएव आप मुझे पत्नी बना कर गौरवान्वित करे’।
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