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ब्रह्मन्

   { brahman }
Script: Devanagari

ब्रह्मन्     

ब्रह्मन् n.  एक पौराणिक देवता, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का स्त्रष्टा माना जाता है । इसने सर्वप्रथम प्रजापति बनाये, चिन्होंने आगे चल कर प्रजा का निर्माण किया । वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति देवता से इस पौराणिक देवता का काफी साम्य है एवं प्रजापति की बहुत सारी कथायें इससे मिलती जुलती है (प्रजापति देखिये) । सृष्टि के आदिकर्त्ता एवं जनक चतुर्मुख ब्रह्मन् निर्देश, जो पुराणों में अनेक बार आता है, वह वैद्क ग्रन्थों में अप्राप्य है । किन्तु वेदों में ‘धाता’, ‘विधाता’, आदि ब्रह्मा के नामांतर कई स्थानों पर आये है । उपनिषद्‍ ग्रन्थों में ब्रह्मन् का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहॉं इसके सम्बन्ध में सारे निर्देश एक तत्त्वज्ञ एवं आचार्य के नाते से किये गये है । वहॉं उसे सृष्टि का सृजनकर्ता नहीं माना है । उपनिषदों के अनुसार यह परमेष्ठिन् ब्रह्म नामक आचार्य का शिष्य था [बृ.उ.२.६.३, ४.६.३] । सारी सृष्टि में यह सर्वप्रथम को ब्रह्मविद्या प्रदान की थी [मुं.उ.१.१.२] । इसी प्रकार इसने नारद को भी ब्रह्म विद्या का ज्ञान कराया थ [गरुड.उ.१-३] । छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्मोपनिषद्‍ नामक एक छोटा उपनिषद्‍ प्राप्त है, जो सुविख्यात ब्रह्मोपनिषद्‍ से अलग है । इस उपनिषद्‍ का ज्ञान ब्रह्मा ने प्रजापति को कराया, एवं प्रजापति ने ‘मनु’ को कराया था [छां.उ.३.११.३-४] । ब्रह्मन् नामक एक ऋत्विज का निर्देश भी उपनिषद्‍ ग्रन्थों में प्राप्त है ।
ब्रह्मन् n.  पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु ने कमल रुपधारी पृथ्वी का निर्माण किया, जिससे आगे चल कर ब्रह्मन् उत्पन्न हुआ [मत्स्य.१६९.२] ;[म.व.परि.१ क्र.२७ पंक्ति.२८.२९] ;[भा.३.८.१५] । महाभारत के अनुसार, भगवान विष्णु जब सृष्टि के निर्माण के सम्बन्ध में विचारनिमग्न थे, उसी समय उनके मन में जो सृजन की भावना जागृत हुयी, उसीस ब्रह्मा का सृजन हुआ [म.शां.३३५.१८] । महाभारत में अन्यत्र कहा है कि, सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वत्र अन्धकार ही था । उस समय एक विशाल अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था । उस दिव्य एवं महान् अण्ड में से सत्यस्वरुप ज्योर्तिमय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रुप से प्रविष्ट हुआ । उस अण्ड से ही प्रथमदेहधारी प्रजापालन देवगुरु पितामह ब्रह्मा का अविर्भाव हुआ । एक तेजोमय अण्ड से सृष्टि का निर्माण होने की यह कल्पना, वैदिक प्रजापति से, चिनी ‘कु’ देवता से, एव मिस्त्र ‘रा’ देवता से मिलती जुलती है प्रजापति देखिये, म.आ.१.३०;[स्कंद.५.१.३] । विष्णु के अनुसार, विश्व के उत्पत्ति आदि के पीछे अनेक अज्ञात अगम्य शक्तियों का बल सन्निहित है, जो स्वयं ब्रह्मन् है । यह स्वयं उत्पत्ति आदि की अवस्था से अतीत है । इसी कारण इसकी उत्पत्ति की सारी कथाएँ औपचारिक हैं [विष्णु१.३] । महाभारत में ब्रह्मन् के अनेक अवतारों का वर्णन प्राप्त है, जहॉं इसके निम्नलिखित अवतारों का विवरण दिया गया हैः---मानस, कायिक, चाक्षुष, वाचिक. श्रवणज, नासिकाज, अंडज, पद्मज (पाद्म) । इनमें से ब्रह्मन् का पद्मज अवतार अत्यधिक उत्तरकालीन माना जाता है [म.शां.३५७.३६-३९] । सृष्टि के सृजन के समय, इसने सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा, सिंचनकर्ता विष्णु, एवं संहारकर्ता रुद्र ये तीनों रुप स्वयं धारण किये थे । यही नहीं, सृष्टि के पूर्व मत्स्य, तथा सृष्टि के सृजनोपरांत वाराह अवतार भी लेकर इसने पृथ्वी का उद्धार भी किया था ।
ब्रह्मन् n.  यह मूलतः एक मुख का रहा होगा, किन्तु पुराणों में सर्वत्र इसे चतुर्मुख कहा गया है, एवं उसकी कथा भी बताई गयी है । इसने अपने शरीर के अर्धभाग से शतरुपा नामक एक स्त्री का निर्माण किया, जो इसकी पत्नी बनी । शतरुपा अत्यधिक रुपवती थी । यह उसके रुप के सौन्दर्भ में इतना अधिक डूब गया कि, सदैव ही उसे देखते रहना ही पसन्द करता था । एक बार अनिंद्य-सुंदरी शतरुपा इसके चारों ओर परिक्रमा कर रही थी । वहीं पास में इसके मानसपुत्र भी बैठे थे । अब यह समस्या थी कि, शतरुपा को किस प्रकार देखा जाये कि, वह कभी ऑंखो से ओझल न हो । बार बार मुड मुडकर देखना पुत्रों के सामने अभद्रता थी । अतएव इसने एक मुख के स्थान पर चार मुख धारण किये, जो चारों दिशाओं की ओर देख सकते थे । शतरुपा एक बार आकाशमार्ग से ऊपर जा रही थी । अतएव इसने जटाओं के उपर एक पॉंचवॉं मुख भी धारण किया था, किन्तु वह बाद को शंकर द्वारा तोड डाला गया । इसे स्त्री के रुप सौन्दर्य में लिप्त होने कारण, अपने उस समस्त तप को जडमूल से खों देना पडा, जो इसने अपने पुत्रप्राप्ति के लिए किया था [मत्स्य.३.३०-४०] । ‘जैमिनिअश्वमेध’ में ब्रह्मा की एक कथा प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, अति प्राचीन काल में ब्रह्म को चार से भी अधिक मुख प्राप्त थे । बक दाल्भ्य नामक ऋषि को यह अहंकार हो गया था कि, मैं ब्रह्मा से भी आयु में ज्येष्ठ हूँ । उसका यह अहंकार चूर करने के लिए, ब्रह्मा ने पूर्वकल्प में उत्पन्न हुए ब्रह्माओं का दर्शन उसे कराया । उन ब्रह्माओं को चार से भी अधिक मुख थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश प्राप्त है [जै.अ.६०-६१]
ब्रह्मन् n.  शंकर ने इसका पॉंचवा मुख क्यों तोडा इसकी विभिन्न कथायें पुराणों में प्राप्त हैं । मत्स्य के अनुसार, एक बार शंकर की स्तुति कर ब्रह्मा ने उसे प्रसन्न किया एवं यह वर मॉंग कि वह उसका पुत्र बने । शंकर को इसका यह अशिष्ट व्यवहार सहन न हुआ, और उसने क्रोधित होकर शाप दिया, ‘पुत्र तो तुम्हारा मैं बनूँगा, किन्तु तेरा यह पॉंचवा मुख मेरे द्वारा ही तोडा जायेगा’। सृष्टिनिर्माण के समय इसने ‘नीललोहित’ नामक शिवावतार का निर्माण किया । शेष सृष्टि का निर्माण करते समय, इसने उस शिवावतार का स्मरण न किया, जिसकारण क्रुद्ध होकर उसने इसे शाप दिया, ‘तुम्हारा पॉंचवॉं मस्तक शीघ्र ही कटा जायेगा’। मत्स्य में अन्यत्र लिखा है कि, इसके पॉंचवें मुख के कारण बाकी सारे देवों का तेज हरण किया गया । एक दिन यह अभिमान में आकर शंकर से कहने लगा, ‘इस पृथ्वी पर तुम्हारे अस्तित्त्व होने के पूर्व मैं यहॉं निवास करता हूँ, मैं तुमसे हर प्रकार ज्येष्ठ हूँ’। यह सुनकर क्रोधित हो कर शंकर ने सहजभाव से ही इसके मस्तक को अपने अँगूठे से मसल कर पृथ्वी पर ऐसा फेंक दिया, मानों किसी ने फूल को क्रूरता के साथ डाली से नोच कर जुदा कर दिया हो [मत्स्य. १८३. ८४-८६] । इसका मस्तक तोडने के कारण, शंकर को ब्रह्महत्य का पाप लगा । उस पाप से छुटकारा पाने के लिये, ब्रह्मा के कपाल को लेकर उसने कपालीतीर्थ में उसका विसर्जन किया [पद्म. सृ.१५] । पॉंचवे मस्तक के कट जाने के उपरांत, इसके अन्य मस्तक स्तम्भित हो गये । उनमें से स्वेदकण निकल कर मस्तक पर छा गये । जिसे देखकर इसने उन स्वेदकणों को हाथ से निचोड कर जमीन में फेंका । फेंकते ही उससे एक रौद्र पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसको इसने शंकर के पीछे पीछे छोड दिया । अंत में शंकर ने उसे पकड कर विष्णु के हवाले किया [स्कंद ५.१.३-४] । ब्रह्मा एवं शंकर के आपसी विरोध की और अन्य कथाएँ भी पुराणों में प्राप्त हैं । एक बार शिवपत्नी सती के रुपयौवन पर यह आकृष्ट हुआ, जिस कारण क्रुद्ध हो कर शंकर इसे मारने दौडा । किन्तु विष्णु ने शंकर को रोकने का प्रयत्न किया । फिर भी शंकर ने इसे ‘ऐंद्रशिर’ एवं’ विरुप’ बनाया । इसकी विरुपता के कारण सारे संसार में यह अपूज्य ठहराया गया [शिव. रुद्र. स.२०] । एक बार शंकर ने अपनी संध्या नामक कन्या का दर्शन इसे कराया । उसे देखते ही ब्रह्मा मोहित हो गया । शंकर ने इसका यह अशोभनीय एवं अनुवित कार्य इसके पुत्रों को दिखा कर, उनके द्वारा इसका उपहास कराया । अपने इस अपमान का बदला लेने के लिये, ब्रह्मा ने दक्षकन्या सती का निर्माण कर, दक्ष द्वारा शंकर का अत्यधिक अपमान कराया [स्कंद २.२.२३] । इसे दाहिने अँगूठे से दक्ष का, एवं बाये से दक्षपत्नी का निर्माण हुआ था [म.आ.६०.९] । स्कंद.के अनुसार, सृष्टि का निर्माण करने के लिए ब्रह्मा एवं नारायण सर्वप्रथम उत्पन्न हुए थे । सृष्टि निर्माण करने के पश्चात् ब्रह्मा तथा नारायण में यह विवाद हुआ कि, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह झगडा जब तय न हो सका, तो दोनों शंकर के पास गये । वहॉं शंकर ने दोनों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि, जो व्यक्ति शिवलिंग के आदि एवं अन्त को शोध कर, सर्वप्रथम उसकी सूचना उसे देगा, वही ज्येष्ठ बनने का अधिकारी होगा । ब्रह्मा ने उर्ध्वमार्ग से शोध करना आरम्भ किया, किन्तु इसे सफलता न मिली । तब इसने ‘गौ’ एवं ‘केतकी’ को अपना झूठा गवाह बना कर, शंकर के सामने पेश करते हुए कहा, ‘मैं ने शिवलिंग के आदि एवं अन्त शोध किया है, जिसके प्रत्यक्ष गवाह देनेवाले गौ एवं ‘केतकी’ सम्मुख है’। यह सुन कर ब्रह्मा को ज्येष्ठपद दिया गया । किन्तु बाद में असलियत मालूम होने के उपरांत, शंकर ने नारायण को ज्येष्ठ, एवं इसे कनिष्ठ एवं अपूज्य ठहराया । पश्चात्, शंकर के कथनानुसार, इसने गंधमादन पर्वत पर एक यज्ञ किया, जिस कारण श्रौत एवं स्मार्त धर्मविधियों में इसे पूज्यत्व प्रदान किया गया [स्कंद.१.१.६, १.३.२,९-१५,३.१.१४]
ब्रह्मन् n.  इसने अनेकानेक प्राणियों का सृजन किस प्रकार किया, इसकी कथा विभिन्न पुराणों में तरह तरह से दी गयी है । महाभारत के अनुसार, वरुणरुपधारी शंकर ने एक बार यज्ञ किया, जिसमें ब्रह्मा ने अपने वीर्य की आहुती दी । उसी यज्ञ असे प्रजापतियों का जन्म हुआ [म.अनु.८५.९९.१०२] । पद्म के अनुसार, इसने सर्वप्रथम तमोगुणी प्रजा उत्पन्न की, एवं उसके उपरांत क्रमशः रजोगुणी, तथा सत्वगुणी प्रजा का निर्माण किया । इसके द्वारा निर्माण की गयी तमोगुणी सृष्टि पॉंच प्रकार की थी, जो निम्नलिखित हैः---तम, मोह, महामोह, तामिस्त्र एवं अन्धतामिस्त्र । यह पॉंचो प्रकार की सृष्टि अन्धकारमय थी, एवं उसमें केवल नागों की उत्पत्ति ब्रह्मा ने की थी । तत्पश्चात् इसने विभिन्न प्रकारों की कुल आठ सृष्टियों का निर्माण किया, जिनके नाम एवं उनमें उत्पन्न, प्राणियों के नाम इस प्रकार हैः---तिर्यकस्तोत्रस् (पशु), ऊर्ध्वस्त्रोतस् (देव), अर्वाक्सोतस् (मनुष्य), अनुग्रह, भूत, प्राकृत, वैकृत एवं कौमार । पद्म में यह भी लिखा है कि, देव, राक्षस, पितर, मनुष्य, यक्ष एवं पिशाच गणों की उत्पत्ति ब्रह्मा ने अपने मनःसामर्थ्य से की । ब्रह्मा का पहला शरीर शमोगुणी था, जिसके ‘जघन’ से असुरों का निर्माण हुआ । पश्चात्, इसने अपने तमोगुणी शरीर का त्याग कर, नये सत्वगुणी शरीर को धारण किया । इसके द्वारा परित्याग किये गये तमोगुणी शरीर से रात्रि का निर्माण हुआ, एवं इसके द्वारा धारण किये गये सत्वगुणी शरीर से देवों की उत्पत्ति हुई । पश्चात् इसने अपने द्वितीय शरीर का भी त्याग किया, जिससे दिन की उत्पत्ति हुयी । इसके तृतीय शरीर से ‘पितर’ उत्पन्न हुए, एवं उसके त्यक्त भाग से संध्याकाल की उत्पत्ति हुयी । इसके चतुर्थ शरीर से मनुष्य उत्पन्न हुए, एवं उसके त्यक्त भाग से उषःकाल का निर्माण हुआ । इसके पॉंचवे शरीर से यक्ष एवं राक्षस उत्पन्न हुए । अपने शरीर के द्वारा देवता, ऋषि, नाग एवं असुर निर्माण करने के पश्चात्, इसने उन चारों प्राणिगणों को एकाक्षर ‘ॐ’ का उपदेश किया था [म.आश्व.२६.८] ; देव देखिये । ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न भागों से किन किन प्राणियों की उत्पत्ति हुयी है, इसकी जानकारी विभिन्न पुराणों मे तरह तरह से दी गयी है । पद्म के अनुसार, ब्रह्मा के हृदय से बकरी, उदर से गाय, भैस आदि ग्राम्य पशु, पैरों से अश्व, गद्‌धे, उँट आदि वन्य पशु उत्पन्न हुए । मत्स्य के अनुसार, इसके दहिने अंगूठे से दक्ष, हृदय से मदन, अधरों से लोभ, अहंभाव से मद, ऑखों से मृत्यु, स्तनाग्र से धर्म, भूम्रध्य से क्रोध, बुद्धि मोह, कंठ से प्रमोद, हथेली से भरत, एवं शरीर से शतरुपा नामक पत्नी उत्पन्न हुयीं । उक्त वस्तुओं एवं व्यक्तियों की कोई माता नहीं थी, कारण ये सभी ब्रह्मा के शरीर से ही पैदा हुए थे । मत्स्य एवं महाभारत के अनुसार, इसके शरीर से मृत्यु नामक स्त्री की उत्पत्ति हो गयी थी [म.द्रो.परि.१.८.१५०]
ब्रह्मन् n.  पुराणों के अनुसार, ब्रह्म के चार मुखों से समस्त वैद्क साहित्य एवं ग्रथों का निर्माण हुआ है । विभिन्न प्रकार के वेद निर्माण करने के पूर्व, इसने पुराणों का स्मरण किया था । पश्चात्, अपने विभिन्न मुखों से इसने निम्नलिखित वैदिक साहित्य का निर्माण कियाः--- (१) पूर्वमुख से---गायत्री छंद, ऋग्वेद, त्रिवृत, रथंतर एव अग्निष्टोमः (२) दक्षिणमुख से---यजुर्वेद, पंचदश ऋक्समूह, बृहत्साम एवं उक्थयज्ञः (३) पश्चिममुख से---सामवेद, सप्तदश ऋक्समूह, वैरुपसाम एवं अतिरात्रयज्ञ; (४) उत्तरमुख से---अथर्ववेद, एकविंश ऋक्समूह, आप्तोर्याम, अनुष्टुप छंद एवं वैराजसाम । वेदादि को निर्माण करने के पश्चात्, इसने ब्रह्म नाम से ही सुविख्यात हुए अपने निम्नलिखित मानसपुत्रों का निर्माण कियाः---मरिचि, अत्रि, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, भृगु एवं वसिष्ठ [ब्रह्मांड.२.९] । महाभारत में इसके धाता एवं विधाता नामक दो मानसपुत्र और दिये गये हैं [म.आ.६०.४९]
ब्रह्मन् n.  ब्रह्मा की पत्नी शतरुपा के लिये मत्स्य में सावित्री, सरस्वती, गायत्री, ब्रह्माणी आदि नामांतर दिये गये है । अपने द्वारा उत्पन्न पुत्रों को प्रजोत्पत्ति करने की आज्ञा देकर, यह स्वयं अपनी पत्नी सावित्री के साथ रत हुआ, जिससे स्वायंभुव मनु की उत्पत्ति हुयी । शतरुपा अथवा सावित्री इसके द्वारा ही पैदा की गयी थी । अतएव उसका एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध पिता एवं पुत्री का हुआ । किन्तु इसने उसे अपनी धर्मपत्नी मानकर उसके साथ भोग किया । पुराणों में प्राप्त यह कथा, वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति के द्वारा अपनी कन्या उषा से किये ‘दुहितृगमन’ से मिलती जुलती है (प्रजापति देखिये) । मत्स्य के अनुसार, ब्रह्म स्वयं वेदों का उद्नाता एवं ‘वेदराशि’ होने के कारण यह दुहितृगम्न के पाप से परे है [मत्स्य.३] । अपने द्वारा किये गये दुहितृगम्न से लज्जित होकर, एवं कामदेव को इसका जिम्मेदार मानकर, इसने मदन को शाप दिया कि, वह रुद्र के द्वारा जलकर भस्म होगा । इसके शाप को सुनकर मदन ने जबाब दिया, ‘मैनें तो अपनी कर्तव्य निर्वाह किया है । उसमें मेरी त्रुटि क्या है?’ यह सुनकर ब्रह्मा ने उसे उःशाप दिया, ‘रुद्र के द्वारा दग्ध होने के बाद भी तुम निम्नलिखित बारह स्थान पर निवास करोंगे:---स्त्रियों के नेत्रकटाक्ष, जंघा, स्तन, स्कंध, अधरोष्ठ आदि शरीर के भाग, तथा वसंतऋतु, किकिलकंठ, चंद्रिका, वर्षाऋतु, चैत्रमास और वैशाखमास आदि’ [मत्स्य.४.३-२०] ;[स्कंद ५.२.१२]
ब्रह्मन् n.  स्कंद में, ब्रह्मा की पत्नी सावित्री एवं गायत्री को एक न मान कर अलग अलग माना गया है, एवं सावित्री के द्वारा इसे तथा अन्य देवताओं को जो शाप दिया गया था उसकी कथा निम्न प्रकार से दी गयी हैः---एक बार ब्रह्मा ने प्रभासक्षेत्र में एक यज्ञ किया, जिसमें यज्ञ की मुख्य व्यवस्था विष्णु को, ब्राह्मणसेवा इन्द्र को, एवं दक्षिणादान कुबेर को सौंपी गयी थी । ब्रह्मा के इस यज्ञ में निम्नलिखित ऋषि ब्रह्मन्, उद्‌गातृ, होतृ एवं अध्वर्यु बने थेः--- (१) ब्रह्मन्गण---नारद (ब्रह्मा), गौतम अथवा गर्ग (ब्राह्मणाच्छंसी), देवगर्भ व्यास (होता), देवल भरद्वाज (आग्नीध्र) । (२) उद्‌गातृगण----अंगिरस् मरीचि गोभिल (उद्‍गाता), पुलह कौथुम (उद्‌गता अथवा प्रस्तोता), नारायण शांडिल्य (प्रतिहर्ता), अत्रि अंगिरस् (सुब्रह्यण्य) । (३) होतृगण---भृगु (होता), वसिष्ठ मैत्रावरुण (मैत्रावरुन ऋत्विज), क्रतु (मरीचि (अच्छावाच्‍), च्यवन गालव (ग्रावा अथवा ग्रावस्तुद्‍) । (४) अध्वर्युगण---पुलस्त्य (अध्वर्यु), शिबि अत्रि (प्रतिष्ठाता अथवा प्रस्थाता), बृहस्पति रैभ्य (नेष्टा), अंशपायन सनातन (उन्नेता) । बाकी सारे ऋषि इसके यज्ञ के सदस्य बने थे ।
ब्रह्मन् n.  यज्ञ की दिक्षा लेकर यह यज्ञ प्रारम्भ करने ही वाला था कि, इसे ध्यान आया कि, यज्ञकुण्ड के पास सावित्री उपस्थित नहीं है, और बिना पत्नी के यज्ञ आरम्भ नही किया जा सकता । अतएव इसने सावित्री को बुलाव भेजा, पर सावित्री के आने में देर हुयी, पता नहीं उसे वहॉं आने में हिचकिचाहट थी, अथवा वह अकेले न आकर लक्ष्मी के साथ आने के लिये उसे ढूँढ रही थी, बहरहाल उसे देरी हुयी । इस देरी से ब्रह्मा चिड गया, तथा उसने इन्द्र को आज्ञा दी कि, शीघ्र ही किसी स्त्री को इस कार्य की पूर्ति के लिये लाया जाय । इन्द्र एक ग्वाले की कन्या ले आया । ब्रह्मा ने उसे ‘गायत्री’ नाम देकर वरण किया, एवं यज्ञ पर उसे बिठा कर कार्य आरम्भ किया । कुछ समय के बाद सावित्री आयी, तथा उसने देखा कि यज्ञ करीब करीब हो चुका है । यह देखकर वह ब्रह्मा एवं उपस्थित देवों पर अत्यधिक क्रुद्ध हुयी कि, मेरे बिना यज्ञ किस प्रकार आरम्भ हुआ । कुपित होकर उसने ब्रह्म को शाप दिया कि, वह अपूज्य बनकर रहेगा, उसकी कोई पूजा न करेगा [स्कंद ७.१.१६५] । सावित्री ने अन्य देवताओं को भी शाप दिये जो इस प्रकार थेः---इन्द्र को-हमेशा पराभव होने का एवं कारावास भोगने का; विष्णु को-भृगु ऋषि के द्वारा शाप मिलने का, स्त्री का राक्षसद्धारा हरण होने का, तथा पशुओं की दास्यता में रहेन का; रुद्र विष्णु को---भृगु ऋषि के द्वारा शाप मिलने का, स्त्री का राक्षसद्वारा हरण होने का, तथा पशुओं की दास्यता में रहेन का; रुद्र को---ब्राह्मणों के शाप से पौरुष के नष्ट होने का; अग्नि को---अपवित्र पदार्थो की ज्वाला से अधिक भडकने का; ब्राह्मणों को---लोभी बनने का, दूसरे के अन्न पर जीवित रहने का, पापियों के घर भी यज्ञहेतु जाने का, तथा द्रव्यसंचन में अधिक प्रयत्नशील रहने का आदि । इस प्रकार प्रमुख देवताओं को शाप देकर सावित्री वापस आयी । देवस्त्रियों ने उसका साथ न दिया अतएव सावित्री ने उन्हें शाप दिया कि ‘तुम सभी वंध्या रहोगी’ लक्ष्मी को शाप दिया ‘तुम चंचल रहकर, मूर्ख, म्लेंच्छ, आग्रही तथा अभिमानी लोगों की संगति करोगी’। इन्द्राणी को शाप दिया, तुम्हारी इज्जत लेने के लिये नहुष तुम्हारा पीछा करेगा, तथा तुम्हें अपनी रक्षा के लिए बृहस्पति के घर पर छिपकर बैठना पडेगा ।
ब्रह्मन् n.  सावित्री के चले जाने के उपरान्त, गायत्री ने समस्त देवताओं एवं उनकी धर्मपत्नियों को विभिन्न वरप्रदान करते हुए कहा, ‘ब्रह्मा की पूजा करनेवाले व्यक्ति को सुख एवं मोक्ष प्राप्त होगा । इन्द्र शत्रुद्धारा पराजित होकर भी, ब्रह्मा की सहायता प्राप्त कर पुनः अपना पद प्राप्त करेगा । विष्णु को मनुष्यजन्म में पत्नी विरह सहन करना पडेगा, किन्तु अत्न में वह शत्रुओं को परास्त कर लोगों का पूज्य बनेगा । शंकर के पूजक पाप से मुक्त होकर अपना उद्धार करेंगे । अग्नि की तृप्ति पर ही देवों को सुख और शान्ति मिलेगी । लक्ष्मी सब को प्रिय होगी, तथा वह हरएक जगह पूजी जायेगी; उसके कारण ही लोग तेजस्वी होंगे । देवस्त्रियॉं संततिविहीन होने पर भी उन्हे निःसंतान होने का दुःख न होगा’ [पद्म. सृ.१७]
ब्रह्मन् n.  ब्रह्मा का यह यज्ञ सहस्त्र युगों तक चलता रहा, अर्थात् यह ब्रह्मा की वर्षगणना से करीब अर्ध वर्ष तक चला [स्कंद६.१९४] । स्कंद के अनुसार, ब्रह्मा के इस यज्ञ में तीन विभिन्न व्यक्ति विचित्र रुप से यज्ञ में आये, जिनकी कथा अत्यधिक रोचक है । यज्ञ चल्र रहा था कि, शंकर अपनी विचित्र वेशभूषा में आया, और अपना कपाल मंडप में रख दिया । उसे कोई पहचान न सका । ऋत्विजों में से एक ने उस कपाल को बाहर फेंकने का प्रयत्न किया, किन्तु उसके फेंकते ही उस स्थान पर लाखों कपाल उत्पन्न हो गये । यह कृत्य देख कर सबको आभास हुआ कि, यह भगवान् शंकर की ही लीला हो सकती है । अतएव समास्त देवताओं ने तुरंत उसकी स्तुति कर, उससे क्षमा मॉंगी । शंकर प्रसन्न हुए और ब्रह्मा से वर मॉंगने को कहा । किन्तु ब्रह्मा ने यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण शंकर से वर मॉंगने की मजबूरी प्रकट की, और स्वयं शंकर को वर प्रदान किया । इसके उपरांत ब्रह्मा ने यज्ञकुंड की उत्तर दिशा की ओर शंकर को उचित आसन देकर, उसके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया । दूसरे दिन एक बटु ने यज्ञमंडप में प्रवेश कर सहजभाव से एक सर्प छोड दिया, जिसने उपस्थित होतागणों को अपने पाश में बॉंध लिया । इस कृत्य से क्रोधित होकर उपस्थित सदस्यों ने शाप दिया कि, वह स्वयं सर्प हो जाये । किन्तु उस बटु ‘शंकर भगवान्’ की स्तुति कर शाप से मुक्त हुआ । तीसरे दिन एक विद्वान् अतिथि आया और उसने कहा, ‘आप सभे लोगों से मैने केवल गुण प्राप्त किये है, अतएव मैं विद्वान बनने का अधिकारी हूँ’। ब्रह्मा ने उसका सत्कार किया एवं उसे उचित आसन दिया । उपर्युक्त यज्ञ के अतिरिक्त, ब्रह्मा के द्वारा निम्नलिखित स्थानों पर यज्ञ करने के निर्देश प्राप्त हैः---हिरण्यशृंग पर्वत पर बिंदुसर के समीप, धर्मारण्य में ब्रह्मसर के समीप, एवं कुरुक्षेत्र में [म.स.३.८.९, ८२.७४,१२९.१]
ब्रह्मन् n.  एक बार अभिमान में आ कर तारका सुर नामक दैत्य देवों को अत्यधिक त्रस्त करने लगा । फिर उसके विनाश के लिये ब्रह्मा ने अपनी एक मानसकन्या निशा अथवा विभावरी को शंकरपत्नी पार्वती बनने के लिए भेजा । आगे चलकर उसी पार्वती के गर्भ से उत्पन्न हुए स्कंद ने तारकासुर का नाश किया [मत्स्य.१५४.४७-७२] । शिवप्रसाद से इसने पुलोमा नामक दैत्य का वध किया [स्कंद. ५.२.६६] । जिस समय शंकर ने त्रिपुरासुर का वध किया था, उस समय ब्रह्मा उसका सारथी था [म.क.२४.१०८] । इसकी मानसकन्याओं में सरस्वती नामक कन्या इसे विशेष प्रिय थी । इस कारण इसके दर्शनार्थ वह प्रतिदिन आया करती थी । एक बार, इसके दर्शन के लिये सहज वश आया हुआ पुरुरवस् राजा सरस्वती को देखकर उसपर मोहित हुआ । फिर अपनी पत्नी उर्वशी के द्वारा सरस्वती को बुलवा कर, उसके साथ रत हुआ । यह जान कर क्रुद्ध हुए ब्रह्म ने अपनी पुत्री सरस्वती को नदी बन जाने का शाप दिया । उर्वशी के द्वारा प्रार्थना की जाने पर ब्रह्म ने सरस्वती को उःशाप दिया, नदी हो जाने के उपरांत तुम नदियों में पवित्र समझी जाओगी’[ब्रह्म.१०१] । विष्णु, रुद्र आदि अन्य देवताओं के समान ब्रह्मा के द्वारा भी अनेक तीर्थस्थान, एवं पवित्र क्षेत्रों का निर्माण किया गया था । इन्द्रद्युम्न नामक राजा के द्वारा अनुरोध करने पर, ब्रह्मा ने सुविख्यात ‘जगन्नाथ’ क्षेत्र की स्थापना की थी [स्कंद.२.२.२३]
ब्रह्मन् n.  ब्रह्मा की आयु सौ वर्षो की मानी जाती है । किन्तु ये सौ वर्ष सामान्य लोगों की वर्ष गणना से भिन्न हैं । अतएव उस हिसाब से इसकी कुल आयु लाखों वर्षों की ठहरती है । ब्रह्मा की कालगणना में एक वर्ष में तीन सौ साठ दिन रहते है । किन्तु इसका एक दिन एक हजार ‘पर्यायी’ का बनता है, एवं एक पर्याय में कृतयुत (१७२८०००वर्ष), त्रेतायुग (१२९६००० वर्ष) समाविष्ट होते है। ब्रह्म के कालगणना की तालिका इस प्रकार हैः---ब्रह्मा का एक दिन अथवा एक कल्प---१००० पर्याय, १. पर्याय=कृत, त्रेता द्वापर एवं कलियुग [कृतयुग= १,७२८०० वर्षे, त्रेतायुग=१२,९६०० वर्ष, द्वापरयुग=८,६४..१ वर्ष, कलियुग= ४,३२००० वर्ष] - ४, ३२०००१ वर्ष , ब्रह्मा का एक दिन= ४३,२००००x१००० = ४३,२००००००० वर्ष [विष्णु.३.२.४८] । पौराणिक कालगणना के अनुसार, ब्रह्मा का एक वर्ष विष्णु के एक दिन के बराबर होता है, विष्णु का एक वर्ष शंकर के एक दिन के बराबर होता है [स्कंद.६.१.९४] । पद्म के अनुसार, ब्रह्मा के आयु के ५० वर्ष अर्थात् एक परार्ध समाप्त हो चुका है, एवं दूसरा चल रहा है [पद्म.सृ.३] ;[स्कंद.७.१.१०४] । इसकी रात्रि का काल वही हैं, जिसे नैमित्तिक प्रलय का काल कहा जाता है [भा.३.११.२२-३५, १२.४.२] ;[विष्णु.१.३.११-२७] ;[मत्स्य.१४२.५.३६] । हर एक कल्प के आरम्भ में, जो अवतार ब्रह्मा द्वारा लिए गये हैं, उस कल्प को वही नाम दिया जाता है ।
ब्रह्मन् n.  ब्रह्मा द्वारा ‘वास्तुशस्त्र’ पर लिखित एक ग्रन्थ उपलब्ध है [मत्स्य.२५२.२] । ‘दण्डनीति’ नामक एक लक्ष अध्यायों का एक अन्य ग्रन्थ भी इसके द्वारा लिखा गया था । आगे चलकर शंकर ने उस ग्रन्थ को दस हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया, जिसे ‘वैशालाक्ष’ कहते है। बाद में, इन्द्र ने उसे पॉंच हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया, एवं उसे ‘बाहुदंतक’ नाम दिया । आगे चलकर अन्य ऋषियों के द्वारा वह और संक्षिप्त किया गया । बृहस्पति ने उसे संक्षिप्त कर तीन हजार अध्यायों का, एवं उसके बाद शुक्राचार्य ने उसे और भी संक्षिप्त कर एक हजार अध्यायों का बना दिया । बाद में वह ग्रन्थ प्रजापति के द्वारा अति संक्षिप्त कर दिया गया [म.शां.५९.८७] ; प्रजापति देखिये ।
ब्रह्मन् n.  पद्म में ब्रह्म के एक सौ आठ स्थानों का निर्देश प्राप्त है [पद्म. सृ.२९.१३२-१५९]

ब्रह्मन्     

A Sanskrit English Dictionary | Sanskrit  English
ब्रह्मन्  n. n. (lit. ‘growth’, ‘expansion’, ‘evolution’, ‘development’ ‘swelling of the spirit or soul’, fr.2.बृह्) pious effusion or utterance, outpouring of the heart in worshipping the gods, prayer, [RV.] ; [AV.] ; [VS.] ; [TS.]
वाच्   the sacred word (as opp. to , the word of man), the वेद, a sacred text, a text or मन्त्र used as a spell (forming a distinct class from the ऋचस्, सामानि and यजूंषि; cf.ब्रह्म-वेद), [RV.] ; [AV.] ; [Br.] ; [Mn.] ; [Pur.]
the ब्राह्मण portion of the वेद, [Mn. iv, 100]
the sacred syllable Om, [Prab.,] Sch., (cf.[Mn. ii, 83] )
तपस्   religious or spiritual knowledge (opp. to religious observances and bodily mortification such as &c.), [AV.] ; [Br.] ; [Mn.] ; [R.]
ब्रह्म-चर्य   holy life (esp. continence, chastity; cf.), [Śak. i, 24/25] ; [Śaṃk.] ; [Sarvad.]
ROOTS:
ब्रह्म चर्य
ज्येष्ठ  m. (exceptionally treated as m.) the ब्रह्म or one self-existent impersonal Spirit, the one universal Soul (or one divine essence and source from which all created things emanate or with which they are identified and to which they return), the Self-existent, the Absolute, the Eternal (not generally an object of worship but rather of meditation and-knowledge ; also with , प्रथम-ज॑, स्वय॑म्-भु, अ-मूर्त, पर, परतर, परम, महत्, सनातन, शाश्वत; and = परमा-त्मन्, आत्मन्, अध्यात्म, प्रधान, क्षेत्र-ज्ञ, तत्त्व), [AV.] ; [ŚBr.] ; [Mn.] ; [MBh.] &c. ([IW. 9, 83 &c.] )
ब्रह्मन्  n. n. the class of men who are the repositories and communicators of sacred knowledge, the Brāhmanical caste as a body (rarely an individual Brāhman), [AV.] ; [TS.] ; [VS.] ; [ŚBr.] ; [Mn.] ; [BhP.]
food, [Naigh. ii, 7]
wealth, ib. 10
final emancipation, [L.]
ब्रह्मन्  m. m. (ब्रह्म॑न्), one who Prays, a devout or religious man, a Brāhman who is a knower of Vedic texts or spells, one versed in sacred knowledge, [RV.] &c. &c.
ब्रह्मन्   [cf.Lat., flāmen]
N. of बृहस्-पति (as the priest of the gods), [RV. x, 141, 3]
one of the 4 principal priests or ऋत्विज्as (the other three being the होतृ, अध्वर्यु and उद्गातृ; the ब्रह्मन् was the most learned of them and was required to know the 3 वेदs, to supervise the sacrifice and to set right mistakes; at a later period his functions were based especially on the अथर्व-वेद), [RV.] &c. &c.
प्रजा-पति   ब्रह्मा or the one impersonal universal Spirit manifested as a personal Creator and as the first of the triad of personal gods (= q.v.; he never appears to have become an object of general worship, though he has two temples in India See, [RTL. 555 &c.] ; his wife is सरस्वती, ib. 48), [TBr.] &c. &c.
ROOTS:
प्रजा पति
ब्रह्मण आयुः   = , a lifetime of ब्रह्मा, [Pañcar.]
an inhabitant of ब्रह्मा's heaven, [Jātakam.]
the sun, [L.]
N. of शिव, [Prab.] Sch.
the वेद (?), [PārGṛ.]
बुद्धि   the intellect (= ), [Tattvas.]
N. of a star, δ Aurigae, [Sūryas.]
a partic.astron.योग, [L.]
N. of the 9th मुहूर्त, [L.]
(with जैनs) a partic.कल्प, [Dharmaś.]
N. of the servant of the 10th अर्हत् of the present अवसर्पिणी, [L.]
of a magician, [Rājat.]

ब्रह्मन्     

ब्रह्मन् [brahman]  n. n. [बृंह्-मनिन् नकारस्याकारे ऋतो रत्वम्; cf. [Uṇ.4.145.] ]
The Supreme Being, regarded as impersonal and divested of all quality and action; (according to the Vedāntins, Brahman is both the efficient and the material cause of the visible universe, the all-pervading soul and spirit of the universe, the essence from which all created things are produced and into which they are absorbed; अस्ति तावन्नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसमन्वितं ब्रह्म Ś. B.); ... यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद् विजिज्ञा- सस्व । तद् ब्रह्मेति [Tai. Up.3.1;] समीभूता दृष्टिस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म मनुते [Bh.3.84;] [Ku.3.15;] दर्शनं तस्य लाभः स्यात् त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः [Mb.]
A hymn of praise.
A sacred text; मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया [Bhāg.9.1.17.]
The Vedas; ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यात् [Ms.2.74;] यद् ब्रह्म सम्यगाम्नातम् [Ku.6.16;] [U.1.15;] समस्तवदनोद्गीतब्रह्मणे ब्रह्मणे नमः [Bm.1.1;] [Bg.3.15.]
The sacred and mystic syllable om; एकाक्षरं परं ब्रह्म [Ms.2.83.]
The priestly of Brahmanical class (collectively); तदेतद् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रः [Bṛi. Up.1.4.15;] ब्रह्मैव संनियन्तृ स्यात् क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम् [Ms.9.32.]
The power or energy of a Brāhmaṇa; पवनाग्निसमागमो ह्ययं सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा [R.8.4.]
Religious penance or austerities.
Celibacy, chastity; शाश्वते ब्रह्मणि वर्तते [Ś.1.]
Final emancipation or beatitude.
Theology, sacred learning, religious knowledge.
The Brāhmaṇa portion of the Veda.
Wealth.
Food.
A Brāhmaṇa.
Truth.
The Brāhmaṇahood (ब्राह्मणत्व); येन विप्लावितं ब्रह्म वृषल्यां जायतात्मना [Bhāg.6.2.26.]
The soul (आत्मा); एतदेषां ब्रह्म [Bṛi. Up.1.6.1-3.]
See ब्रह्मास्त्र. अब्राह्मणे न हि ब्रह्म ध्रुवं तिष्ठेत् कदाचन [Mb.12.3.31.]
The गायत्री mantra; उभे सन्ध्ये च यतवाग्जपन् ब्रह्म समाहितः [Bhāg.7.] 12.2. -m.
The Supreme Being, the Creator, the first deity of the sacred Hindu Trinity, to whom is entrusted the work of creating the world. [The accounts of the creation of the world differ in many respects; but, according to Manu Smṛiti, the universe was enveloped in darkness, and the self-existent Lord manifested himself dispelling the gloom. He first created the waters and deposited in them a seed. This seed became a golden egg, in which he himself was born as Brahmā the progenitor of all the worlds. Then the Lord divided the egg into two parts, with which he constructed heaven and earth. He then created the ten Prajāpatis or mind-born sons who completed the work of creation. According to another account (Rāmāyaṇa) Brahmā sprang from ether; from him was descended marīchi, and his son was Kaśyapa. From Kaśyapa sprang Vivasvata, and Manu sprang from him. Thus Manu was the procreator of all human beings. According to a third account, the Supreme deity, after dividing the golden egg, separated himself into two parts, male and female, from which sprang Virāj and from him Manu; cf. [Ku.2.7.] and [Ms.1.32] et seq. Mythologically Brahman is represented as being born in a lotus which sprang from the navel of Viṣṇu, and as creating the world by an illicit connection with his own daughter Sarasvatī. Brahman had originally five heads, but one of them was cut down by Śiva with the ring-finger or burnt down by the fire from his third eye. His vehicle is a swan. He has numerous epithets, most of which have reference to his birth, in a lotus.]
A Brāhmaṇa; [Ś.4.4.]
A devout man.
One of the four Ritvijas or priests employed at a Soma sacrifice.
One conversant with sacred knowledge.
The sun.
Intellect.
An epithet of the seven Prajāpatis: मरीचि, अत्रि, अङ्गिरस्, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु and वसिष्ठ.
An epithet of Bṛihaspati; ब्रह्मन्नध्ययनस्य नैष समयस्तूष्णीं बहिः स्थीयताम् Hanumannāṭaka.
The planet Jupiter; ब्रह्मराशिं समावृत्य लोहिताङ्गो व्यवस्थितः [Mb. 3.6.18.]
The world of Brahmā (ब्रह्मलोक); दमस्त्यागो- ऽप्रमादश्च ते त्रयो ब्रह्मणो हयाः [Mb.11.7.23.]
Of Śiva.-Comp.
-अक्षरम्   the sacred syllable om.
घोषः recital of the Veda.
the sacred word, the Vedas collectively; [U.6.9] (v. l.).
-घ्नः   the murderer of a Brāhmaṇa.
चक्रम् The circle of the universe; Śvet. [Up.]
 N. N. of a magical circle.
चर्यम् religious studentship, the life of celibacy passed by a Brāhmaṇa boy in studying the Vedas, the first stage or order of his life; अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाचरेत् [Ms.3.2;2.] 249; [Mv.1.24;] यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् Kaṭh.
religious study, self-restraint.
celibacy, chastity, abstinence, continence; also ब्रह्म- चर्याश्रम. (-र्यः) a religious student; see ब्रह्मचारिन्. (-र्या) chastity, celibacy. ˚व्रतम् a vow of chastity. ˚स्खलनम् falling off from chastity, incontinence.
-चारिकम्   the life of a religious student.
-चारिन्   a.
studying the Vedas.
practising continence of chastity. (-m.) a religious student, a Brāhmaṇa in the first order of his life, who continues to live with his spiritual guide from the investiture with sacred thread and performs the duties pertaining to his order till he settles in life; ब्रह्मचारी वेदमधीत्य वेदौ वेदान् वा चरेद् ब्रह्मचर्यम् Kaṭha- śrutyopaniṣad 17; [Ms.2.41,175;6.87.]
one who vows to lead the life of a celibate.
an epithet of Śiva.
of Skanda.
चारिणी an epithet of Durgā.
a woman who observes the vow of chastity.
-जः   an epithet of Kārtikeya.
-जन्मन्  n. n.
spirtual birth.
investiture with the sacred thread; ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम् [Ms.2.146,17.]
-जारः   the paramour of a Brāhmaṇa's wife; Rāmtā. [Up.]
-जिज्ञासा   desire to know Brahman; अयातो ब्रह्मजिज्ञासा Brahmasūtra.
-जीविन् a.  a. living by sacred knowledge. (-m.) a mercenary Brāhmaṇa (who converts his sacred knowledge into trade), a Brāhmaṇa who lives by sacred knowledge.-ज्ञानम् knowledge about Brahman; वेदान्तसाङ्ख्यसिद्धान्त- ब्रह्मज्ञानं वदाम्यहम् [Garuḍa. P.]
-ज्ञ, -ज्ञानिन् a.  a. one who knows Brahma.
(ज्ञः) an epithet of Kārtikeya.
of Viṣṇu.
-ज्ञानम्   true or divine knowledge, knowledge of the identity of the universe with Brahma; ब्रह्मज्ञान- प्रभासंध्याकालो गच्छति धीमताम् [Paśupata. Up.7.]
-ज्येष्ठः   the elder brother of Brahman; ब्रह्मज्येष्ठमुपासते [T. Up.2.5.] (-a.) having Brahmā as first or chief.
the light of Brahma or the Supreme Being.
-तत्त्वम्   the true knowledge of the Supreme Spirit.
-तन्त्रम्   all that is taught in the Veda.-तालः (in music) a kind of measure.
the glory of Brahman.
Brahmanic lustre, the lustre or glory supposed to surround a Brāhmaṇa.
-दः   a spiritual preceptor; [Ms.4.232.]
दण्डः the curse of a Brāhmaṇa; एकेन ब्रह्मदण्डेन बहवो नाशिता मम [Rām.]
a tribute paid to a Brāhmaṇa.
 N. N. of a mythical weapon (ब्रह्मास्त्र); स्वरस्य रामो जग्राह ब्रह्मदण्डमिवापरम् [Rām.3.3.24.]
magic, spells, incantation (अभिचार); ब्रह्मदण्डमदृष्टेषु दृष्टेषु चतुरङ्गिणीम् [Mb.12.] 13.27.
-दर्मा   Ptychotis Ajowan (Mar. ओवा).
अङ्गभूः a horse.
one who has touched the several parts of his body by the repetition of Mantras; स च त्वदेकेषुनिपात- साध्यो ब्रह्माङ्गभूर्ब्रह्मणि योजितात्मा [Ku.3.15] (see Malli. thereon).
दानम् the imparting of sacred knowledge.
sacred knowledge, received as an inheritance or hereditary gift; सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते [Ms.4.233.]
दायः instruction in the Vedas, the imparting of sacred knowledge.
sacred knowledge received as an inheritance; तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः [Ms.3.3.]
the earthly possession of a Brāhmaṇa.
दायादः one who receives the Vedas as his hereditary gift, a Brāhmaṇa.
the son of a Brāhmaṇa.
-दारुः   the mulberry tree.
-दिनम्   a day of Brahman.
-दूषक a.  a. falsifying the vedic texts; [Hch.]
-देय a.  a. married according to the Brāhma form of marriage; ब्रह्मदेयात्मसंतानो ज्येष्ठसामग एव च [Ms.3.185.] (-यः) the Brāhma form of marriage.
(यम्) land granted to Brahmaṇas; श्रोत्रियेभ्यो ब्रह्मदेयान्यदण्डकराण्यभिरूपदायकानि प्रयच्छेत् [Kau.A.2.1.19.]
instruction in the sacred knowledge.-दैत्यः a Brāhmaṇa changed into a demon; cf. ब्रह्मग्रह.-द्वारम् entrance into Brahmā; ब्रह्मद्वारमिदमित्येवैतदाह यस्त- पसाहतपाप्मा [Maitra. Up.4.4.]
hating Brāhmaṇas; [Ms.3.154] (Kull.).
hostile to religious acts or devotion, impious, godless.
-द्वेषः   hatred of Brāhmaṇas.
-धर a.  a. possessing sacred knowledge.
-नदी   an epithet of the river Sarasvatī.
-नाभः   an epithet of Viṣṇu.
-निर्वाणम्   absorption into the Supreme Spirit; स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति [Bg.2.72.]
= ब्रह्मानन्द q. v.; तं ब्रह्मनिर्वाणसमाधिमाश्रितम् [Bhāg.4.6.39.] -निष्ठ a. absorbed in or intent on the contemplation of the Supreme Spirit; ब्रह्मनिष्ठस्तथा योगी पृथग्भावं न विन्दति Aman. Up.1.31. (-ष्ठः) the mulberry tree.
-नीडम्   the resting-place of Brahman.
पदम् the rank or position of a Brāhmaṇa.
the place of the Supreme Spirit.
-पवित्रः   the Kuśa grass.
-परिषद्  f. f. an assembly of Brāhmṇas.
-पादपः, -पत्रः   the Palāśa tree.
-पारः   the final object of all sacred knowledge.
-पारायणम्   a complete study of the Vedas, the entire Veda; याज्ञवल्क्यो मुनिर्यस्मै ब्रह्मपारायणं जगौ [U.4.9;] [Mv.1.14.] -पाशः N. of a missile presided over by Brahman; अबध्नादपरिस्कन्दं ब्रह्मपाशेन विस्फुरन् [Bk.9.75.]
-पितृ  m. m. an epithet of Viṣṇu.
पुत्रः a son of Brahman.
 N. N. of a (male) river which rises in the eastern extremity of the Himālaya and falls with the Ganges into the Bay of Bengal.
(त्रा) a kind of vegetable poison.
See ब्रह्मपुत्रः (2). (-त्री) an epithet of the river Sarasvatī.
-पुरम्   the heart; दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः Muṇḍ.2.2.7.
the body; [Ch. Up.]
पुरम्, पुरी the city of Brahman (in heaven).
 N. N. of Benares.
-पुराणम्  N. N. of one of the eighteen Purāṇas.-पुरुषः a minister of Brahman (the five vital airs).-प्रलयः the universal destruction at the end of one hundred years of Brahman in which even the Supreme Being is supposed to be swallowed up.
-प्राप्तिः  f. f. absorption into the Supreme spirit.
-बलम्   the Brahmanical power.
बन्धुः a contemptuous term for a Brāhmaṇa, an unworthy Brāhmaṇa (cf. Mar. भटुर्गा); वस ब्रह्मचर्यं न वै सोम्यास्मत्कुलीनोऽननूज्य ब्रह्मबन्धुरिव भवतीति [Ch. Up.6.1.1;] ब्रह्मबन्धुरिति स्माहम् [Bhāg.1.81.16;] [M.4;] [V.2.]
one who is a Brāhmaṇa only by caste, a nominal Brāhmaṇa.
-बिन्दुः   a drop of saliva sputtered while reciting the Veda.
अञ्जलिः respectful salutation with folded hands while repeating the Veda.
obeisance to a preceptor (at the beginning and conclusion of the repetition of the Veda); अपश्यद्यावतो वेदविदां ब्रह्माञ्जलीनसौ [N.17.183;] ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा । संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः ॥ [Ms.2.71.]
-अण्डम्   'the egg of Brahman', the primordial egg from which the universe sprang, the world, universe; ब्रह्माण्डच्छत्रदण्डः [Dk.1.] ˚कपालः the hemisphere of the world. ˚भाण्डोदरम् the hollow of the universe; ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्ड- भाण्डोदरे [Bh.2.95.] ˚पुराणम् N. of one of the eighteen Purāṇas.
-अदि(द्रि)जाता   an epithet of the river Godāvarī.
-अधिगमः, अधिगमनम्   study of the Vedas.-अम्भस् n. the urine of a cow.
-अभ्यासः   the study of the Vedas.
-अयणः, -नः   an epithet of Nārāyaṇa.
बीजम् the mystic syllableom; मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजमविस्मरन् [Bhāg.2.1.17.]
-ब्रुवः, -ब्रुवाणः   one who pretends to be a Brāhmaṇa.
-भवनम्   the abode of Brahman.
भागः the mulberry tree.
the share of the chief priest; अथास्मै ब्रह्मभागं पर्याहरन्ति [Śat. Br.]
-भावः   absorption into the Supreme Spirit
-भावनम्   imparting religious knowledge; छेत्ता ते हृदयग्रन्थिमौदर्यो ब्रह्मभावनः [Bhāg.3.24.4.]
-भिद् a.  a. dividing the one Brahma into many.
-भुवनम्   the world of Brahman; आ ब्रह्म- भुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन [Bg.8.16.]
-भूत a.  a. become one with Brahma, absorbed into the Supreme Spirit; आयुष्मन्तः सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मताः [Mb.1.1.14.]
-भूतिः  f. f. twilight.
-भूमिजा   a kind of pepper.
भूयम् identity with Brahma, absorption or dissolution into Brahma, final emancipation; स ब्रह्मभूयं गतिमागजाम [R.18.28;] ब्रह्मभूयाय कल्पते [Bg.14.26;] [Ms.1.98.]
Brahmanahood, the state or rank of a Brāhmaṇa. धृष्टाद्धार्ष्टमभूत् क्षत्र ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ [Bhāg.9.2.17.]
-भूयस  n. n. absorption into Brahma.
-मङ्गलदेवता   an epithet of Lakshmī.
-महः   a festival in honour of Brāhmaṇas.
-मित्र a.  a. having Brāhmaṇas for friends.
-मीमांसा   the Vedānta philosophy which inquires into the nature of Brahma or Supreme Spirit.
-मुहूर्तः   a particular hour of the day.
-मूर्ति a.  a. having the form of Brahman. -मूर्धभृत्m. an epithet of Śiva.
-मेखलः   the Munja plant.-यज्ञः one of the five daily Yajñas or sacrifices (to be performed by a householder), teaching and reciting the Vedas; अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः [Ms.3.7] (अध्यापनशब्देन अध्य- यनमपि गृह्यते Kull.)
-योगः   cultivation or acquisition of spiritual knowledge.
sprung from Brahman; गुरुणा ब्रह्मयोनिना [R.1.64.] (-निः) f.
original source in Brahman.
the author of the Vedas or of Brahman; किं पुनर्ब्रह्मयोनेर्यस्तव चेतसि वर्तते [Ku.6.18.] ˚स्थ a. intent on the means of attaining sacred knowledge; ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः [Ms.1.74.]
-रत्नम्   a valuable present made to a Brāhmaṇa.
-रन्ध्रम्   an aperture in the crown of the head through which the soul is said to escape on its leaving the body; आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम् [Bhāg.11.15.24.]
-राक्षसः   See ब्रह्मग्रह; छिद्रं हि मृगयन्ते स्म विद्वांसो ब्रह्मराक्षसाः [Rām. 1.8.17.]
-रवः   muttering of prayers.
-रसः   Brahma's savour. ˚आसवः Brahma's nectar.
-रातः   an epithet of Śuka; [Bhāg.1.9.8.]
-रात्रः   early dawn.
-रात्रिः   an epithet of Yājñavalkya, (wrong for ब्रह्मरातिः)
राशिः the whole mass or circle of sacred knowledge.
an epithet of Paraśurāma.
a particular constellation.
-रीतिः  f. f. a kind of brass.
-रे(ले)खा -लिखितम्, -लेखः   lines written by the creator on the forehead of a man which indicate his destiny, the predestined lot of any man.
-लोकः   the world of Brahman.
-लौकिक a.  a. inhabiting the ब्रह्मलोक.
-वक्तृ  m. m. an expounder of the Vedas.
-वद्यम्   knowledge of Brahma.
-वधः, -वध्या, -हत्या   the murder of a Brāhmaṇa.
-वर्चस्  n. n.,
वर्चसम् divine glory or splendour, spiritual pre-eminence or holiness resulting from sacred knowledge; स य एवमेतद्रथन्तरमग्नौ प्रोतं वेद ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति [Ch. Up.2.12.2;] (तस्य) हेतुस्त्वद्ब्रह्मवर्चसम् [R.1.63;] [Ms.2.37;4.94.]
the inherent sanctity or power of a Brāhmaṇa; [Ś.6.]
-वर्चसिन्, -वर्चस्विन् a.  a. holy or sanctified by spiritual pre-eminence, holy; अपृथग्धीरुपा- सीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मषः [Bhāg.11.17.32.] (-m.) an eminent or holy Brāhmaṇa; ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसंमताः [Ms. 3.39.]
-वर्तः   see ब्रह्मावर्त.
-वर्धनम्   copper.
-वाच्  f. f. the sacred text.
-वादः   a discourse on the sacred texts; ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते [Bhāg.1.87.1.] -वादिन्m.
one who teaches or expounds the Vedas; [U.1;] [Māl.1.]
a follower of the Vedānta philosophy; तस्याभिषेक आरब्धो ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः [Bhāg.4.15.11.] (-नी) an epithet of Gāyatrī; आयाहि वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि Gāyatryāvāhanamantra.
-वासः   the abode of Brāhma- ṇas.
knowing the Supreme Spirit; ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति. (-m.) a sage, theologian, philosopher.
-विद्या, -वित्त्वम्   knowledge of the Supreme Spirit. ब्रह्मविद्यापरिज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिकरं स्थितम् [Śuka. Up.3.1.]
-विन्दुः   see ब्रह्मबिन्दु.
-विवर्धनः   an epithet of Indra.
-विहारः   a pious conduct, perfect state; Buddh.
-वीणा   a particular Vīṇā.
वृक्षः the Palāśa tree.
the Udumbara tree.
-वृत्तिः  f. f. livelihood of a Brāhmaṇa; ब्रह्मवृत्त्या हि पूर्णत्वं तया पूर्णत्वमभ्यसेत् [Tejobindu Up.1.42.]
-वृन्दम्   an assemblage of Brāhmaṇas.
अरण्यम् a place of religious study.
 N. N. of a forest.
वेदः knowledge of the Vedas.
monotheism, knowledge of Brahma.
the Veda of the Brāhmaṇas (opp. क्षत्रवेद).
 N. N. of the Atharvaveda; ब्रह्मवेदस्याथर्वर्णं शुक्रमत एव मन्त्राः प्रादु- र्बभूवुः Praṇava [Up.4.]
-वेदिन् a.  a. knowing the Vedas; cf. ब्रह्मविद्.
-वैवर्तम्  N. N. of one of the eighteen Purāṇas-व्रतम् a vow of chastity.
-शल्यः   Acacia Arabica (Mar. बाभळ).
शाला the hall of Brahman.
a place for reciting the Vedas.
शासनम् a decree addressed to Brāhmaṇas.
a command of Brahman.
the command of a Brāhmaṇa.
instruction about sacred duty.
-शिरस्, -शीर्षन्  n. n. N. of a particular missile; अस्त्रं ब्रह्मशिरस्तस्मै ततस्तोषाद्ददौ गुरुः [Bm.1.649.] -श्री N. of a Sāman.
-संसद्  f. f. an assembly of Brāhmaṇas.
-संस्थ a.  a. wholly devoted to the sacred knowledge (ब्रह्म); ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति [Ch. Up.2.23.1.]
सत्रम् repeating and teaching the Vedas (= ब्रह्मयज्ञ q. v.); ब्रह्मसत्रेण जीवति [Ms.4.9;] ब्रह्मसत्रे व्यवस्थितः [Mb.12.243.4.]
meditation of Brahma (ब्रह्मविचार); स्वायंभुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत् पुरा [Bhāg.1.87.9.]
absorption into the Supreme Spirit.
-सत्रिन् a.  a. offering the sacrifice of prayer.-सदस् n. the residence of Brahman.
-सभा   the hall or court of Brahman.
-संभव a.  a. sprung or coming from Brahman. (-वः) N. of Nārada.
-सर्पः   a kind of snake.
-सवः   distillation of Soma.
-सायुज्यम्   complete identification with the Supreme Spirit; cf. ब्रह्मभूय.-सार्ष्टिता identification or union or equality with Brahma; [Ms.4.232.]
-सावर्णिः  N. N. of the tenth Manu; दशमो ब्रह्मसावर्णिरुपश्लोकसुतो महान् [Bhāg.8.13.21.]
सुतः N. of Nārada, Marīchi &c.
a kind of Ketu.-सुवर्चला f.
 N. N. of a medicinal plant (ब्राह्मी ?).
an infusion (क्वथितमुदक); पिबेद् ब्रह्मसुवर्चलाम् [Ms.11.159.]
सूः N. of Aniruddha.
 N. N. of the god of love.
सूत्रम् the sacred thread worn by the Brāhmaṇas or the twice-born (द्विज) over the shoulder; [Bhāg. 1.39.51.]
the aphorisms of the Vedānta philosophy by Bādarāyaṇa; ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः [Bg.13.4.] -सूत्रिन् a. invested with the sacred thread.
-सृज्  m. m. an epithet of Śiva.
-स्तम्बः   the world, universe; ब्रह्मस्तम्बनिकुञ्जपुञ्जितघनज्याघोषघोरं धनुः [Mv.3.48.]
-स्तेयम्   acquiring holy knowledge by unlawful means; स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते [Ms.2.116.]
-स्थली   a place for learning the Veda (पाठशाला); ...... ब्रह्मस्थलीषु च । सरी- सृपाणि दृश्यन्ते ... [Rām.6.1.16.]
-स्थानः   the mulberry tree.-स्वम् the property or possessions of a Brāhmaṇa; परस्य योषितं हृत्वा ब्रह्मस्वमपहृत्य च । अरण्ये निर्जले देशे भवति ब्रह्मराक्षसः ॥ [Y.3.212.] ˚हारिन् a. stealing a Brāhmaṇa's property.
-स्वरूप a.  a. of the nature of the Supreme Spirit.
-हत्या, -वधः   Brahmanicide, killing a Brāhmaṇa; ब्रह्महत्यां वा एते घ्नन्ति Trisuparṇa. हन् a. murderer of a Brāhmaṇa; ब्रह्महा द्वादश समाः कुटीं कृत्वा वने वसेत् [Ms.11.72.]
-हुतम्   one of the five daily Yajñas or sacrifices, which consists in offering the rites of hospitality to guests; cf. [Ms.3.74.]
-हृदयः, -यम्  N. N. of a star (Capella).
अर्पणम् the offering of sacred knowledge.
devoting oneself to the Supreme Spirit.
 N. N. of a spell.
a mode of performing the Śrāddha in which no Piṇḍas or rice-balls are offered.
-अस्त्रम्   a missile presided over by Brahman.
-आत्मभूः   a horse.-आनन्दः bliss or rapture of absorption into Brahma; ब्रह्मानन्दसाक्षात्क्रियां [Mv.7.31.]
-आरम्भः   beginning to repeat the Vedas; [Ms.2.71.]
-आवर्तः  N. N. of the tract between the rivers Sarasvatī and Dṛiṣavatī (northwest of Hastināpura); सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् । तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते [Ms.2.17,19;] [Me.5.]
-आश्रमः = ब्रह्मचर्याश्रमः; वेदाध्ययननित्यत्वं क्षमाऽथाचार्यपूजनम् । अथोपाध्यायशुश्रूषा ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥   Mb.12.66.14.
-आसनम्   a particular position for profound meditation.
-आहुतिः  f. f.
the offering of prayers; see ब्रह्मयज्ञ.
-उज्झता   forgetting or neglecting the Vedas; [Ms.11.57] (अधीतवेदस्यानभ्यासेन विस्मरणम् Kull.). -उत्तरa.
treating principally of Brahman.
consisting chiefly of Brāhmaṇas.
-उद्यम्   explaining the Veda, treatment or discussion of theological problems; ब्राह्मणा भगवन्तो हन्ताहमिमं द्वौ प्रश्नौ प्रक्ष्यामि तौ चेन्मे वक्ष्यति न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद् ब्रह्मोद्यं जेतेति [Bṛi. Up.]
-उपदेशः   instruction in the Vedas or sacred knowledge. ˚नेतृ m. the Palāśa tree.
-ऋषिः (ब्रह्मर्षिः   or ब्रह्माऋषिः) a Brahmanical sage. ˚देशः N. of a district; (कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः । एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः [Ms.2.19] ).-ओदनः,
-नम्   food given to the priests at a sacrifice.-कन्यका an epithet of Sarasvatī.
-करः   a tax paid to the priestly class.
the religious duties of a Brāhmaṇa, the office of Brahman, one of the four principal priests at a sacrifice.
-कला   an epithet of Dākṣāyaṇī (who dwells in the heart of man).
-कल्पः   an age of Brahman.
-काण्डम्   the portion of the Veda relating to spiritual knowledge.
-किल्बिषम्   an offence against Brāhmaṇas.
-कूटः   a thoroughly learned Brāhmaṇa.
-कूर्चम्   a kind of penance; अहोरात्रोषितो भूत्वा पौर्णमास्यां विशेषतः । पञ्चगव्यं पिबेत् प्रातर्ब्रह्मकूर्चमिति स्मृतम् ॥.
-कृत्   one who prays. (-m.) an epithet of Viṣṇu.
-कोशः   the treasure of the Vedas, the entire collection of the Vedas; क्षात्रो धर्मः श्रित इव तनुं ब्रह्मकोशस्य गुप्त्यै [U.6.9.]
-गायत्री  N. N. of a magical mantra composed after the model of गायत्री mantra.-गिरिः N. of a mountain.
-गीता  f. f. The preaching of Brahmā as included in the Anuśāsana parva of the Mahābhārata.
-गुप्तः  N. N. of an astronomer born in 598. A. D.
-गोलः   the universe.
-गौरवम्   respect for the missile presided over by Brahman; विष्कम्भितुं समर्थोऽपि नाऽचलद् ब्रह्मगौरवात् [Bk.9.76] (मा भून्मोघो ब्राह्मः पाश इति).
ग्रन्थिः N. of a particular joint of the body.
 N. N. of the knot which ties together the 3 threads of the यज्ञोपवीत.
-राक्षसः   a kind of ghost, the ghost of a Brāhmaṇa, who during his life time indulges in a disdainful spirit and carries away the wives of others and the property of Brāhmaṇas; (परस्य योषितं हृत्वा ब्रह्मस्वमपहृत्य च । अरण्ये निर्जले देशे भवति ब्रह्मराक्षसः ॥ [Y.3.212;] cf. [Ms.12.6] also).-ग्राहिन् a. worthy to receive that which is holy.-घातकः,
-घातिन्  m. m. the murderer of a Brāhmaṇa.-घातिनी a woman on the second day of her courses.

ब्रह्मन्     

Shabda-Sagara | Sanskrit  English
ब्रह्मन्  m.  (-ह्मा)
1. BRAHMĀ, the first deity of the Hindu triad, and the operative creator of the world.
2. A Brāhman.
3. The superin- tending or presiding priest at the sacrifice.
4. One of the astrono- mical Yogas.
5. One of the principal servants of the Jinas.
 n.  (-ह्म) 1. The divine cause and essence of the world, from which all created things are supposed to emanate and to which they return; the unknown God.
2. The practice of austere devotion.
3. The Vedas or scripture.
4. Holy knowledge.
E. वृह् to increase, (man- kind) aff. मनिन् and the initial letter changed to ब .
ROOTS:
वृह् मनिन् ब .

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