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ऋचीकः [ṛcīkḥ] [ऋच्-ईकक्]
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n. भार्गवकुल का च्यवनवंशज एक प्रख्यात ऋषि [मनु.४] । और्व का पुत्र [म.आ.६०.४६,२.४];[ ह. वं. १.२७] । यह और्व की जंघा फोड कर बाहर आया [ब्रह्मांड. ३.१.७४-१००] । यह ऊर्व का पुत्र है [म. अनु.५६] । इसे काव्यपुत्र भी कहा है [ब्रह्म.१०] । इसका और्व ऋचीक कह कर भी उल्लेख है [विष्णुधर्म. १.३२] । उसी प्रकार अनेक स्थानों पर अनेक बार इसे भृगुपुत्र, भार्गव, भृगुनन्दन, भृग आदि भी कहा है [म.व.११५.१०];[ह. वं.१.२७];[ ब्रह्म.३.१०];[ वा.रा.,बा. ७५.२२];[ पद्म. उ. २६८] । कार्तवीर्य के वंशजों द्वारा अत्यधिक त्रास दिये जाने के कारण सब भार्गव ऋषि मध्य देश में पलायन कर गये । उस समय अथवा उसके कुछ ही पहले ऋचीक का जन्म हुआ तथा जल्द ही उनका मुखिया बन गया । बाल्यावस्था से इसने अपना समय वेदानुष्ठान तथा तप में बिताया । एक बार तीर्थयात्रा करते समय विश्वामित्री नदी के किनारे इसने कान्यकुब्जराज गाधि की कन्या, स्नानहेतु आई हुई देखी । उसके रुप से मोहित हों कर इसने उसके पिता के पास इसकी मॉंग करने का निश्चय किया । हैहय के विरुद्ध गाधिराज की मित्रता संपादन करने के लिये यह विवाह तय किया गया । यह जब मॉंग करने आया तब राजा ना नहीं कह सका । तब उसने कहा कि यदि तुम मुझे सहस्त्र श्यामकर्ण अश्व लाकर शुल्क के तौरपर दोगे तो मैं अपनी यह कन्या तुम्हें दूंगा [म. अनु.४.७-१०];[ विष्णु.४.७];[ भा.९.१५.५-११] । सातसौ अश्व मांगे [स्कंद.६.१६६] । परंतु वनपर्व में राजा कन्या देने के लिये तैय्यार हो गया तथापि रुढि के तौरपर एक कानसे श्याम हजार अश्व मांगे [म.व. ११५.१२] । राजा का यह भाषण सुनते ही यह तत्काल उस कान्यकुब्जदेशीय गंगा के किनारे गया तथा वरुण की स्तुति कर के उससे आवश्यक अश्व प्राप्त किये [म.व.११५];[ म.अनु.४] । अश्वो वोढा नामक [ऋ.९.११२] चार ऋचाओं के सूक्त क पठन कर इसने अश्व प्राप्त किये [स्कंद ६.१६६] । जहॉं ये अश्व निर्माण हुए, वह स्थान कान्यकुब्ज देश में गंगा नदी के किनारे स्थित अश्वतीर्थ नाम से प्रसिद्ध है । अश्व ले कर गाधि राजाने अपनी कन्या सत्यवती इसे दी । इसके विवाह में देव इसके पक्ष के बाराती थे [म.व.११५] । ऋचीक ऋषि, सत्यवती भार्या को ले गया तथा आश्रम स्थापित कर गृहस्थधर्म चलाने लगा । तदनंतर जब यह तपश्चर्या करने जाने लगा तब इसने पत्नी से वरदान मांगने के लिये कहा । उसने अपने लिये तथा माता के लिये उत्तम लक्षणों से युक्त पुत्र मांगा । उसके इस मांग से संतुष्ट हो कर इसने ब्राह्मणोत्पत्ती के लिये एक तथा क्षत्रियोत्पत्ती के लिये एक ऐसे दो चरु सिद्ध कर के उसे दिये [म.शां. ४९.१०];[म. अनु. ५६];[ ह. वं. १.२७];[ ब्रह्म.१०];[ विष्णु. ४.७];[ भा. ९.१५] । इसने चरु तो दिये ही साथ ही यह भी बताया कि ऋतुस्नात होने पर तुम्हारी माता अश्वत्थ (पीपल) तथा तुम गूलर को आलिंगन करो [म.व.११५.५७०];[ अनु.४];[ विष्णुधर्म. १.३२-३३] । दो घटों को अभिमंत्रित कर बताया कि सत्यवती की माता वह वृक्ष की तथा सत्यवती पीपल की सहस्त्र प्रदक्षिणाये करे [स्कंद.६.१६६-६७] । बाद में गाधि ऋचीक के आश्रम में आया । तब सत्यवती को पति द्वारा दिये गये चरु का स्मरण हुआ परंतु माता के कथनानुसार दोनों ने चरु बदल कर भक्षण किये । अल्पकाल में ही जब ऋचीक ने सत्यवती की ओर देखा तब उसे पता चला कि, चरुओं का विपर्यास हो गया है । परंतु सत्यवती की इच्छानुसार क्षत्रिय स्वभाव का पुत्र न हो कर पौत्र होगा ऐसा ऋचीक ने इसे आश्वासन दिया । तदनंतर सत्यवती को जमदग्नि प्रभृति सौ पुत्र हुए । वे सब शांति आदि अनेक गुणों से युक्त थे । परंतु जमदग्नि को रेणुका से उत्पन्न परशुराम उग्र स्वभाव का हुआ । गाधि को विश्वामित्र हुआ तथा उसने अपने तपःसामर्थ्य से पुनः ब्राह्मणत्व प्राप्त किया [म.आ.६१];[ म. व.११५];[ म. शां ४९];[ म. अनु.४.४८];[ वायु.९१.६६-८७ भा. ९.१५];[ स्कंद. ६.१६६-१६७] । तदनंतर सत्यवती कौशिकी नदी बनी [ह. वं.१.२७];[ ब्रह्म.१०];[ विष्णु.४.७,१६];[ वा.रा.बा. ३४] । इस ऋषि ने वडवाग्नि ढूँढ निकाला [विष्णुधर्म. १.३२] । शाल्वदेशाधिपति द्युतिमान् राजा ने इसे अपना राज्य अर्पण किया था [म.शां.२२६.३३];[ अनु.१३७.२२] । यह परशुराम का पिता मह है [पद्म. भू. २६८]) । ऋचीक पुत्र तथा कलत्र सहित भृगुतुंग पर्वत पर रहता था [वा.रा.बा.६५१. १०-१३] । विष्णु ने अमानत के रुप में वैष्णव धनुष्य इसे दिया था । वह इसने जमदग्नि को दिया [वा.रा.बा.७५.२२] । यह धनुर्विद्या में काफी प्रवीण था [म.अनु.५६.७] । इसके वंशजों को आर्चिक कहते है । [ब्रह्म.१०] जमदग्नि के अलावा वत्स [विष्णुधर्म. १.३२] । शुनःशेप तथा शुनःपुच्छ [ह. वं. १.१७];[ ब्रह्म. १०] । इतने नाम प्राप्त है ।
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The father of Jamadagni.
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ऋचीक m. m.
N. of जमद्-अग्नि's father, [MBh.]