कुँअर रानी

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


कुँअर - रानी संभ्रान्त राजपूत माता - पिताकी एकमात्र लड़ैती सन्तान थी । सम्पन्न घर था, माता - पिता बहुत ही साधु स्वभावके तथा भगवद्भक्त थे । कुँअर - रानीके अतिरिक्त उनके कोई सन्तान नहीं थी, इसलिये माता - पिताके समस्त स्नेह - सौहार्दकी पूर्ण अधिकारिणी एकमात्र कुँअर - रानी ही थी । वह बहुत ही प्यार - दुलारसे पाली - पोसी गयी थी । उसने जैसे माता - पिताके स्नेहको प्राप्त किया, उसी प्रकार उनकी साधुता तथा भगवद्भक्तिका भी उसके जीवनपर काफी असर हुआ । वह लड़कपनसे ही भगवानके दिव्य सौन्दर्यमाधुर्यमय स्वरुपका ध्यान किया करती और भगवानका मधुर नामकीर्तन करते - करते प्रेमाश्रु बहाती हुई बेसुध हो जाती । माता - पिताने चौदह वर्षकी उम्रमें बड़े उमंग - उत्साहके साथ उसका विवाह कर दिया । कुँअर - रानी विदा होकर ससुराल गयी । विधाताका विधान बड़ा विचित्र होता है । उसी रात्रिको उसके माता - पिताने भगवानके पवित्र नामका कीर्तन करते हुए विषूचिका रोगसे प्राण त्याग दिये । कुँअर - रानीको पाँचवें दिन एक कासीदने जाकर यह दुःखप्रद समाचार सुनाया । वह उसी दिन वापस लौटनेवाली थी और माता - पिताके भेजे हुए किसी आदमीकी प्रतीक्षा कर रही थी । उसके बदले माता - पिताका मरण - संवाद लेकर कासीद आ गया ! अकस्मात् मा - बापके मरणका समाचार सुनकर कुँअर - रानी स्तब्ध रह गयी । उसको बड़ा ही दुःख हुआ, परंतु लड़कपनमें प्राप्त की हुई सत - शिक्षाने उसे धैर्यका अवलम्बन प्राप्त करनेमें बड़ी सहायता की । उसने इस दुःखको भगवानका मङ्गलविधान मानकर सहन कर लिया और पीहर जाकर माता - पिताके श्राद्धादिको भलीभाँति सम्पन्न करवाया । माता - पिताके कल्याणार्थ अधिकांश सम्पत्ति सुयोग्य पात्रोंको दान कर दी तथा शेषकी सुव्यवस्था करके वह ससुराल लौट आयी ।

उसके पति साँवतसिंह बहुत ही सुशील, धर्मपरायण तथा साधु - स्वभावके थे; इससे उसके मनमें सन्तोष था । परंतु विधाताका विधान कुछ दूसरा ही था । छः ही महिने बाद साँप काटनेसे उनकी भी मृत्यु हो गयी । घरमें रह गये बूढ़े सास - ससुर और विधवा कुँअर - रानी ! कुँअर - रानी अभी केवल चौदह वर्षज्की थी । इस भीषण वज्रपातने एक बार तो उसके हदयको भयानकरुपसे दहला दिया; परंतु कुछ ही समय बाद भगवत्कृपासे उसके हदयमें स्वतः ही ज्ञानका प्रकाश छा गया । उस प्रकाशकी प्रभामयी किरणोंने जगतके यथार्थ रुप, जागतिक पदार्थो और प्राणियोंकी अनित्यता, क्षणभङ्गुरता तथा दुःखरुपता, मानव - जीवनके प्रधान उद्देश्य, मनुष्यके कर्तव्य, मनुष्यको प्राप्त होनेवाले समस्त सुख दुःखोंमें मङ्गलमय भगवानकी मङ्गलमयी कृपा और भगवानकी शरणागति तथा भजनसे ही समस्त दुःखोंका नाश तथा नित्य परमानन्दस्वरुप भगवानकी प्राप्ति होती है -- इन सारी चीजोंके प्रत्यक्ष दर्शन करा दिये । उसका दुःख जाता रहा । जीवनका लक्ष्य निश्चित हो गया और उसकी प्राप्तिके लिये उसे प्रकाशमय निश्चित पथकी भी प्राप्ति हो गयी !

कुँअर - रानीने इस बातको भलीभाँति समझ लिया कि मनुष्य - जीवनका परम और चरम लक्ष्य भगवत्प्राति है । नारी हो या पुरुष -- जीव मनुष्ययोनि प्राप्त करता है भगवानको पानेके लिये ही; परंतु यहाँ विषयभोगोंके भ्रमसे भासनेवाले आपातरमणीय सुखोंमें इस लक्ष्यको भूलकर विषयसेवनमें फँस जाता है और फलतः कामनाकी परवशतासे मानव - जीवनको पापोंके संग्रहमें लगाकर अधोगतिमें चला जाता है । विषय - सेवनसे आसक्ति और कामनादि दोष बढ़ने हैं और इसीलिये बुद्धिमान् विरागी पुरुष विषयोंका स्वेच्छापूर्वक त्याग करके संन्यास ग्रहण करते हैं -- यद्यपि विवाहविधान भी कामनाको संयमित करके भगवत्प्राप्तिके मार्गमे अग्रसर होनेके लिये ही है । उसका भी चरम उद्देश्य विषयोपभोगमें अनासक्त होकर भगवानकी ओर लगाना ही है । इसीलिये गृहस्थीको भगवानका मन्दिर और पतिको भगवान् मानने तथा गृहकार्यको भगवत्सेवाके भावसे करनेका विधान है । इतना होनेपर भी सधवा स्त्रियोंको विषयसेवनकी सुविधा होनेसे उनमें विषयासक्तिका बढ़ना सम्भव है । विधवाजीवन इस दृष्टिसे सर्वथा सुरक्षित है । यह एक प्रकारसे पवित्र साधुजीवन है, जिसमें भोगजीवनकी समाप्तिके साथ ही आत्यन्तिक सुख और परमानन्दस्वरुप भगवानकी प्राप्त करानेवाले आध्यात्मिक साधनोंका संयोग स्वतः ही प्राप्त हो जाता है । कामोपभोग तो नरकोमें ले जानेवाला और दुःखोकी प्राप्ति करानेवाला है । भोगोंसे आजतक किसीको भी परम शान्ति, शाश्वत सुख या भगवानकी प्राप्ति नहीं हुई !

यह सब सोचकर कुँअर - रानीने मन - ही - मन कहा -- मुझे यदि भोग - जीवनमें ही रहना पड़ता तो पता नहीं आगे चलकर मेरी क्या दशा होती । बच्चे होते, उनमें मोह होता; मर जाते, दुःख होता; कामनाका विस्तार होता, चित्त मोहजालमें जलना पड़ता । मनको प्रपञ्चके अतिरिक्त परमात्माका चिन्तन करनेका कभी शायद ही अवकाश मिलता । भगवानकी मुझपर बड़ी ही कृपा है जो उन्होंने मुझको अनायास और बिना ही माँगे जीवनको सफल बनानेका सुअवसर दे दिया है । पशुकी भाँति इन्द्रिय - भोगोंमें रची - पची रहनेकी इस पवित्र जीवनसे क्या तुलना है । भगवानने मुझ डूबती उबार लिया । धन्य है उनकी कृपाको !

उसने सोचा, मनुष्य भ्रमसे ही ऐसा मान बैठता है कि भगवानने अमुक काम बहुत बुरा किया । वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । मङ्गलमय भगवान् जो कुछ भी करते हैं, हमारे मङ्गलके लिये ही करते हैं । समस्त जीवोंपर उनकी मङ्गलमयी कृपा सदा बरसती रहती हैं । उनकी मङ्गलमयता और कृपालुतापर विश्वास न होनेके कारण ही मनुष्य दुखी होता, अपने भाग्यको कोसता और भगवानपर दोषारोपण करता है । फोड़ा होनेपर उसे चीर देना, विषमज्वर होनेपर चिरायते तथा नीमका कड़वा क्वाथ पिलाना और कपड़ा पुराना एवं गंदा हो जानेपर उसे उतारकर नया पहना देना जैसे परम हितके लिये ही होता है, वैसे ही हमारे अत्यन्त प्रिय सांसारिक सुखोंका छीना जाना, नाना प्रकारके दुःखोंका प्राप्त होना और शरीरसे वियोग कर देना भी मङ्गलमय भगवानके विधानसे हमारे परम हितके लिये ही होता है । हम अपनी बेसमझीसे ही उसे भयानक दुःख मानकर रोतेकलपते हैं । इन सारे दृश्योंके रुपमें, इन सभी स्वाँगोंको धारण करके नित्य नवसुन्दर, नित्य नवमधुर हमारे परम प्रियतम भगवान् ही अपनी मङ्गलमयी लीला कर रहे हैं, इस बातको हम नहीं समझते । रोने - कराहनेकी भयानक लीलाके अंदर भी वे नित्य मधुर हँसी हँस रहे हैं, इसे हम नहीं देख पाते, इसीसे बाहरसे दीखनेवाले दृश्यों और स्वाँगोकी भीषणताको देखकर काँप उठते हैं ।

दुःखके रुपमें भगवानका विधान ही तो आता है और वह विधान अपने विधाता भगवानसे अभिन्न है । सारांश यह कि भगवान् ही दुःखके रुपमें प्रकट हैं । और वे इस रुपमें प्रकट हुए हैं हमारे परम कल्याणके लिये ही ।

अहा ! मुझपर भगवानकी कितनी अकारण करुणा है जो उन्होंने मेरे सारे सांसारिक झंझटोंको, विषयोंमें फँसानेवाले सब साधनोंको हटाकर मुझको सहज ही अपनी ओर खींच लिया है । मुझे आज उनकी अहैतुकी कृपासे यह स्पष्ट दीखने लगा है कि समस्त सुखोंके भण्डार एकमात्र वे श्रीभगवान् ही हैं । विषयोंमें सुख देखना और विषयभोगोंसे सुखकी आशा रखना तो जीवका महामोह या भीण भ्रम है । आज भगवानने कृपा करके मेरे इस महामोहको मार दिया और भीषण भ्रमको भंग कर दिया है ! यह क्या मुझपर उनकी कम कृपा है ? वे कृपासागर हैं, कृपा ही उनका स्वभाव है, वे नित्य कृपाका ही वितरण करते हैं । धन्य है ! अब तो वस मैं केवल उन्हींका चिन्तन करुँगी, उन्होंके नामको सदा रटूँगी । वृद्ध सास - ससुरके रुपमें भी उन्हीके दर्शन करुँगी । भगवानका भजन नहीं, वह तो मनुष्य - नामधारी पशु या पिशाच है । मानवताका विकास -- प्रकाश और प्रसार तो भजनसे ही होता है । दिन - रात प्रभुका मधुर स्मरण करना और दिन - रातकी प्रत्येक चेष्टाका प्रभुकी पूजा तथा विवेक, विचार और निश्चय करके परम भाग्यवती कुँअर - रानी भगवानके नित्य भजनमें लग गयी !

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कुँअर - रानी वृद्ध सास - ससुरकी भगवद्भावसे सेवा करने लगी । छोटी उम्र होनेपर भी उसकी सच्ची भक्तिभावनाका प्रताप इतना बढ़ा कि आस - पासके लोग ही नहीं, गाँवभरके नर - नारी उसके परम पवित्र तथा परम तेजस्वी जीवनसे प्रभावित होकर भगवानकी ओर लग गये । वह उस गाँवके लोगोंके लिये मानो भवसागरसे तारनेवाला जहाज ही बन गयी ।

उसकी जीवनचर्या बड़ी ही पवित्र और आदर्श थी । उसने नमक और मीठा खाना छोड़ दिया । वह सदा सादा भोजन करती । सादे सफेद कपड़े पहनती । सिरके केश मुँडवा दिये । आभूषणोंका त्याग करके तुलसीकी माला गलेमें पहन ली । मस्तकपर गोपीचन्दनका तिलक करती । रातको काठकी चौकीपर घासकी चटाई बिछाकर सोती । जाड़ेके दिनोंमें एक कम्बल बिछाती और एक ओढ़ती । रात्रिको केवल चार घंटे सोती । प्रातःकाल सूर्योदयसे बहुत पहले उठकर स्त्रानादिसे निवृत्त हो सास - ससुरकी सेवामें लग जाती । मुँहसे सदा भगवानका नामोच्चारण होता रहता और मनमें सदा भगवानकी मधुर छविका दर्शन करती रहती । गीता, रामायण और भागवतका पाठ तथा मनन करती । दिनमें अधिकांह समय मौन रहती । नियत समयपर सास - ससुरको प्रतिदिन श्रीमद्भागवत, रामायण या गीता सुनाती तथा उनके अर्थको समझाती । उसके सत्सङ्गमें गाँवके लोग भी आते, जो वहाँसे सुख - शान्ति प्रदान करनेवाले अत्यन्त पवित्र मधुर अमृतकणोंको लेकर लौटते । जैसा उसका उपदेश होता, वैसा ही उसका जीवन भी था । तपस्या, विनय, प्रेम, सन्तोष, भगवद्भक्ति, विरक्ति एवं दैवीसम्पत्ति आदि सब मानो उसमें मूर्तिमान् होकर रहते थे । उसे देखते ही देखनेवालेके मनमें पवित्र मातृभाव तथा भगवद्भाव उदय होता । वह अपने घरका सारा काम अपने हाथों करती । घरमें कुआँ था, उससे स्वयं पानी भरती, स्वयं झाडू लगाती, वर्तन माँजती, कपड़े धोती, रसोई बनाती, भगवानकी सेवा करती और सास - ससुरकी सेवा करती । उसका जीवन सब प्रकारसे सात्त्विक और आदर्श था । इस प्रकार सास - ससुर जबतक जीवित रहे, तबतक वह पूर्ण संयमित जीवनसे घरमें रहकर उनकी सेवा करती रही और उनके मरनेपर वह सब कुछ दान करके श्रीवृन्दावनधाममें चली गयी एवं वहाँ एक परम विरक्त संन्यासिनीकी भाँति कठोर तपस्या तथा भजनमय जीवन विताकर अन्तमें भगवानको प्राप्त हो गयी !

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Last Updated : April 29, 2009

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