रन्तिदेव

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।

आतिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥

( श्रीमद्भा० ९।२१।१२ )

चन्द्रवंशी राजा संकृतिके दो पुत्र थे - गुरु और रन्तिदेव । इनमें रन्तिदेव बड़े ही न्यानशील, धर्मात्मा और दयालु थे । दूसरोंकी दरिद्रता देखना उनसे सहा ही नहीं जाता था । अपनी सारी सम्पत्ति उन्होंने दीन दुखियोंको बाँट दी थी और स्वयं बड़ी कठिनतासे निर्वाह करते थे । ऐसी दशामें भी उन्हें जो कुछ मिल जाता था, उसे दूसरोंको दे देते थे और स्वयं भूखे ही रह जाते थे ।

एक बार रन्तिदेव तथा उनके पूरे परिवारको अड़तालीस दिनोंतक भोजनकी तो कौन कहे, पीनेको जल भी नहीं मिला । देशमें घोर अकाल पड़ जानेसे जल मिलना भी दुर्लभ हो गया था । भूख - प्याससे राजा तथा उनका परिवार - सब - के - सब मरणासन्न हो गये । उनचासवें दिन कहींसे उनको घी, खीर, हलवा और जल मिला । अड़तालीस दिनोंके निर्जल व्रती थे वे । उनका शरीर काँप रहा था । कण्ठ सूख गया था । शरीरमें उठनेकी शक्ति नहीं थी । भूखा मनुष्य ही रोटीका मूल्य जानता है । रन्तिदेव ऐसी दशामें भोजन करने जा ही रहे थे कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गये । करोड़ों रुपयोंमेंसे दस - पाँच लाखका दान कर देना सरल है । अपना पूरा धन दान करनेवाले उदार भी मिल सकते हैं; किंतु जब अन्नके बिना प्राण निकल रहे हों, तब अपना पेट काटकर दान करनेवाले महापुरुष विरले ही होते हैं । रन्तिदेवने बड़ी श्रद्धासे उन विप्रको उसी अन्नमेंसे भोजन कराया ।

विप्रके भोजन कर लेनेपर बचे हुए अन्नको राजाने अपने परिवारके लोगोंमें बाँट दिया । वे सब भोजन करने जा ही रहे थे कि एक शूद्र अतिथि आ गया । उस दरिद्र शूद्रको भी राजाने आदरपूर्वक भोजन करा दिया । अब एक चाण्डाल मेरे ये कुत्ते भूखे हैं और मैं भी बहुत भूखा हूँ ।'

रन्तिदेवने उन सबका भी सत्कार किया । सभी प्राणियोंमें श्रीहरिको देखनेवाले उन महापुरुषने बचा हुआ साराअन्न कुत्तों और चाण्डालके लिये दे दिया । अब केवल इतना जल बचा था, जो एक मनुष्यकी प्यास बुझा सके । राजा उससे अपना सूखा कण्ठ गीला करना चाहते थे कि एक और चाण्डाल आकर दीन स्वरसे कहने लगा - ' महाराज ! मैं बहुत थका हूँ । मुझ अपवित्र नीचको पीनेके लिये थोड़ा पानी दीजिये ।'

चाण्डाल थका था और बहुत प्यासा था । उसकी वाणी बड़े परिश्रमसे निकलती जान पड़ी थी । उसकी दशा देखकर ' प्रभो ! मैं अणिमादिक अष्ट सिद्धियाँ या मुक्ति नहीं चाहता । मैं ही उनके सब दुःख भोगूँ, जिससे वे ओग दुःखसे छूट जायँ ।

' इस मनुष्यके प्राण जलके बिना निकल रहे हैं । यह प्राण - रक्षाके लिये मुझसे जल माँग रहा है । इसे यह जल देनेसे मेरी भूख - प्यास, थकावट, चक्कर, दीनता, क्लान्ति, शोकविषाद और मोहादि सब मिट जायँगे ।' इतना कहकर स्वयं प्यासके मारे मरणासन्न रहनेपर भी परम दयालु राजा रन्तिदेवने वह जल आदर एवं प्रसन्नताके साथ चाण्डालको पिला दिया ।

भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले त्रिभुवनके स्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही रन्तिदेवकी परीक्षाके लिये इन रुपोंमें आये थे । राजाका धैर्य देखकर वे प्रकट हो गये । राजाने उनको प्रणाम किया, उनका पूजन किया । बहुत कहनेपर भी रन्तिदेवने कोई वरदान नहीं माँगा । जैसे जागनेपर स्वप्न लीन हो जाता है, वैसे ही भगवान् वासुदेवमें चित्तको तन्मय कर देनेसे राजा रन्तिदेवके सामनेसे त्रिगुणमयी माया लीन हो गयी । रन्तिदेवके प्रभावसे उनके परिवारके सब लोग भी नारायणपरायण होकर योगियोंकी परम गतिको प्राप्त हुए ।

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Last Updated : April 28, 2009

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