हरिश्चन्द्र

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


सत्य मूल सब सुकृत सुहाए । वेद पुरान प्रगट मनु गाए ॥

महर्षि विश्वामित्रजीकी कृपासे सशरीर स्वर्ग जानेवाले और वहाँसे देवताओंद्वारा गिराये जानेपर बीचमें ही अबतक स्थित रहनेवाले महाराज त्रिशङ्कु विख्यात ही हैं । इन्हीके पुत्र महाराज हरिश्चन्द्रजी थे । ये प्रसिद्ध दानी, भगवद्भक्त तथा धर्मात्मा थे । इनकी धार्मिकताके प्रभावसे इनके राज्यमें कबी अकाल नहीं पड़ता था, महामारी नहीं फैलती थी, दूसरे भी कोई दैविक या भौतिक उत्पात नहीं होते थे । प्रजा सुखी थी, प्रसन्न थी, धर्मपरायण थी । महाराज हरिश्चन्द्रकी सत्य - निष्ठा त्रिभुवनमें विख्यात थी । देवर्षि नारदसे महाराजकी प्रशंसा सुनकर देवराज इन्द्रको भी ईर्ष्या हुई और उन्होंने परीक्षा लेनेका निश्चय करके विश्वामित्रजीको इसके लिये तैयार किया ।

विश्वामित्रजीने अपने तपके प्रभावसे स्वप्नमें राजासे सम्पूर्ण राज्य दानमें ले लिया और दूसरे दिन अयोध्या जाकर उसे माँगा । सत्यवादी राजाने स्वप्नके दानको भी सत्य ही माना और पूरा राज्य तथा कोष मुनिको सौंप दिया । हरिश्चन्द्रजी पूरी पृथ्वीके चक्रवर्ती राजा थे । राज्य तो दान हो गया । शास्त्र कहते हैं कि काशीपुरी भगवान् शङ्करके त्रिशूलपर बसी है, अतः पृथ्वीके राज्यमें उसे नहीं गिना जाता । हरिश्चन्द्रने काशी जानेका निश्चय किया । अब ऋषि विश्वामित्रने कहा - ' इतने बड़े दानकी साङ्गताके लिये दक्षिणा दीजिये ।'

आज राजा हरिश्चन्द्र, जो कलतक पृथ्वीके एकच्छत्र सम्राट् थे, कंगाल हो गये । उनके पास एक कौड़ी भी नहीं थी । इतनेपर भी उन्होंने ऋषिको दक्षिणा देना स्वीकार किया । अपने पुत्र रोहिताश्च तथा पत्नी शैब्याके साथ वे काशी आये । दक्षिणा देनेका दूसरा कोई उपाय न देखकर पत्नीको उन्होंने एक ब्राह्मणके हाथ बेंच दिया । बालक रोहित भी माताके साथ गया । विश्वामित्रजी जितनी दक्षिणा चाहते थे, वह इतनेसे पूरी नहीं हुई । राजाने अपनेको भी बेंचना चाहा । उन्हें काशीके एक चाण्डालने श्मशानपर पहरा देनेके लिये और मृतक - कर वसूल करनेके लिये खरीद लिया । इस प्रकार हरिश्चन्द्रने ऋषिको दक्षिणा दी ।

सोना अग्निमें पड़कर जल नहीं जाता, वह और चमकने लगता है । इसी प्रकार सङ्कटोंमें पड़नेसे धर्मात्मा पुरुष धर्मसे पीछे नहीं हटते । उनकी धर्मनिष्ठा विपत्तिकी अग्निमें भस्म होनेके बदले और उज्ज्वलतम होती है, और विशेषरुपसे चमकने लगती है । हरिश्चन्द्र चाण्डालके सेवक हो गये । एक चक्रवर्ती सम्राट् श्मशानमें रात्रिके समय पहरा देनेके कामपर लगनेको विवश हुए । परंतु हरिश्चन्द्रका धैर्य अडिग रहा । उन्होंने इसे भी भगवानका कृपा - प्रसाद ही समझा !

महारानी शैब्या आज पतिके धर्मका निर्वाह करनेके लिये ब्राह्मणकी दासी हो गयीं । वे वहाँ बर्तन मलने, झाड देने, घर लीपने, गोबर उठाने आदिका काम करने लगीं । जिस राजकुमार रोहिताश्चके सङ्केतपर चलनेके लिये सैकड़ो सेवक सदा हाथ जोड़े खड़े रहते थे, वह नन्हा सुकुमार बालक ब्राह्मणके यहाँ आज्ञाका पालन करता, डाँटा जाता और चुपचाप रो लेता ! एक दिन सन्ध्या - समय कुछ अन्धकार होनेपर रोहिताश्च ब्राह्मणकी पूजाके लिये फूल तोड़ने गया था, वहाँ उसे सर्पने काट लिया । बालक गिर पड़ा और प्राणहीन हो गया । बेचारी शैब्या - वह जब महारानी थी, तब थी । आज एकमात्र पुत्र मरा पड़ा था उसका उसके सामने; न तो कोई उसे दो शब्द कहकर धीरज दिलानेवाला था और न कोई उसके पुत्रके शवको श्मशान ले जानेवाला था । रात्रिमें अकेली, रोती - विलखती बेचारी अपने हाथोंपर पुत्रके देहको लेकर उसे जलाने श्मशान गयी । विपत्तिका यहीं अन्त नहीं हुआ । श्मशानके स्वामी चाण्डालने हरिश्चन्द्रको आज्ञा दे रक्खी थी कि बिना कर दिये कोई भी लाश जलाने न पाये । शैब्याका रोना सुनकर हरिश्चन्द्र वहाँ आ पहुँचे और कर माँगने लगे । हाय ! हाय ! अयोध्याके चक्रवतींकी महारानीके पास था क्या आज जो वह करमें दे । आज अयोध्याके युवराजकी लाश उसकी माताके सामने पड़ी थी । माता कर दिये बिना उसे जला नहीं पाती थी । शैब्याके रुदन - क्रन्दनसे हरिश्चन्द्रने उसे पहचान लिया । कितनी भयङ्कर स्थिति हो गयी - अनुमान किया जा सकता है । पिताके सामने उसके एकमात्र पुत्रका देह लिये पत्नी रो रही थी और पिताको उस कंगालिनीसे कर वसूल करना था । बिनाकर लिये अपने ही पुत्रके शरीरका दाह रोकना था उन्हें । परंतु हरिश्चन्द्रका धर्म अविचल था । उन्होंने कहा - ' भद्रे ! जिस धर्मके लिये मैंने राज्य छोड़ा, तुम्हें छोड़ा और रोहितको छोड़ा, जिस धर्मके लिये मैं यहाँ चाण्डालका सेवक बना, तुम दासी बनी, उस धर्मको मैं नहीं छोडूँ गा । तुम मुझे धर्मपर डटेरहनेमें सहायता दो ।'

शैब्या पतिव्रता थीं । पतिकी धर्मरक्षाके लिये जिस महारानीने राज्य छोड़कर दासी बननातक स्वीकार किया था, वे पतिके धर्मका अद्भर न करें - यह कैसे सम्भव था । परंतु आज माताके सामने उसके पुत्रका निर्जीव शरीर था और उसे दाह करना था । पतिका धर्म कर माँग रहा था और देनेको क्या रक्खा था वहाँ । अन्तमें उस देवीने कहा - ' नाथ ! मेरे पास तो दूसरा वस्त्र भी नहीं है । मेरी यही एक मैली साड़ी है, जिसे मैं पहिने हूँ । इसीके अञ्चलसे ढक्कर अपने बेटेको मैं ले आयी हूँ । आपके पुत्रके देहपर कफनतक नहीं है । आप मेरी इस साड़ीको ही आधा फाड़कर ले लें ' कर ' के रुपमें ।

हरिश्चन्द्रने इस दशामें भी साड़ीका आधा भाग लेना स्वीकार कर लिया । जैसे ही शैब्याने साड़ी फाड़ना चाहा, स्वयं भगवान् विष्णु प्रकट हो गये वहाँ । सत्य और धर्म भगवानका स्वरुप है । जहाँ सत्य तथा धर्म है, वहीं स्वयं भगवान् प्रत्यक्ष हैं । देवराज इन्द्र तथा विश्वामित्रजी भी देवताओंके साथ वहाँ आ गये । धर्मने प्रकट होकर बताया कि ' मैं स्वयं चाण्डाल बना था ।' इन्द्रने अमृतवर्षा करके कुमार रोहिताश्वको जीवित कर दिया ।

भगवानने हरिश्चन्द्रको भक्तिका वरदान दिया । इन्द्रने उनसे पड़ीके साथ सशरीर स्वर्ग चलनेकी प्रार्थना की । हरिश्चन्द्रने कहा - ' मेरी प्रजा मेरे वियोगमें इतने दिन दुखी रही । मैं अपने प्रजाजनोंको छोड़कर स्वर्ग नहीं जाऊँगा ।'

इन्द्रने कहा - ' राजन् ! आपके इतने पुण्य हैं कि आप अनन्त कालतक स्वर्गमें रहें । यह तो भगवानका विधान है । प्रजाके लोगोंके कर्म भिन्न - भिन्न हैं । सब एक साथ कैसे स्वर्ग जा सकते हैं ?'

राजा हरिश्चन्द्रने कहा - ' मैं अपना समस्त पुण्य अपने प्रजाजनोंको देता हूँ । मैं स्वयं स्वर्ग जाना नहीं चाहता आप उन्हीं लोगोंको स्वर्ग ले जायँ । मेरी प्रजाके लोग स्वर्गमें रहें । मैं उन सबके पाप भोगने अकेला नरक जाऊँगा ।' महाराजकी यह उदाहरता, यह प्रजावत्सलता देखकर देवता सन्तुष्ट हो गये । महाराजके प्रभावसे समस्त अयोध्यावासी अपने स्त्री - पुत्रादिके साथ सदेह स्वर्ग गये । पीछे विश्वामित्रजीने अयोध्याको फिरसे बसाया और कुमार रोहिताश्वको वहाँ सिंहासनपर बैठाकर सम्पूर्ण पृथ्वीका एकच्छत्र सम्राट बना दिया ।

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Last Updated : April 28, 2009

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