न स्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम् ।

कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥

' मुझे राज्य नहीं चाहिये, स्वर्ग नहीं चाहिये और मोक्ष भी मैं नहीं चाहता । मैं तो नाना प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित प्राणियोंकी आर्ति - पीड़ाका नाश चाहता हूँ ।'

उशीनरके पुत्र शरणागत - वत्सल महाराज शिबि यज्ञ कर रहे थे । शिबिकी दयालुता तथा भगवद्भक्तिकी ख्याति पृथ्वीसे स्वर्गतक फैली थी । देवराज इन्द्रने राजाकी परीक्षा करनेका निश्चय किया । इन्द्रने बाज पक्षीका रुप धारण किया और अग्निदेव कबूतर बने । बाजके भयसे डरता, काँपता, घबराया कबूतर उड़ता आया और राजा शिबिकी गोदमें बैठकर उनके वस्त्रोंमें छिप गया । उसी समय वहाँ एक बड़ा भारी बाज भी आया । वह मनुष्यकी भाषामें राजासे कहने लगा - ' राजन् ! आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हैं, परन्तु आज यह धर्मविरुद्ध आचरण क्यों कर रहे हैं ? आपने कृतघ्नको धनसे, झूठको सत्यसे, निर्दयको क्षमासे तथा दुर्जनको अपनी साधुतासे ही सदा जीता है । आप तो अपनी बुराई करनेवालेका भी उपकार ही करते हैं । जो आपका अहित सोचते हैं, उनका भी आप भला ही करना चाहते हैं; पापियोंपर भी आप दया करते हैं । जो आपमें दोष ढूँढते रहते हैं, उनके भी आप गुण ही देखते हैं । मैं भूखसे व्याकुल हूँ और भाग्यसे मुझे यह कबूतर आहारके रुपमें मिला है । अब आप मुझसे मेरा आहार छीनकर अधर्म क्यों कर रहे हैं ?'

कबूतरने राजासे बड़ी कातरतासे कहा - ' महाराज ! मैं इस बाजके भयसे प्राणरक्षाके लिये आपकी शरण आया हूँ । आप मेरी रक्षा करें ।'

राजाने बाजसे कहा - ' पक्षी ! जो मनुष्य समर्थ रहते भी शरणागतकी रक्षा नहीं करते या लोभ, द्वेष अथवा भयसे उसे त्याग देते हैं, उनको ब्रह्महत्याके समान पाप लगता है, सर्वत्र उनकी निन्दा होती है । मैं मरुँगा - इस प्रकार सभीको मृत्युका भय तथा दुःख होता है । अपनेसे ही दूसरेके दुःखका अनुमान करके उसकी रक्षा करनी चाहिये । जैसे तुम्हें अपना जीवन प्यारा है, जैसे तुम भूखसे नहीं मरना चाहिते, उसी प्रकार दूसरेकी जीवनरक्षा भी तुम्हें करनी चाहिये । मैं शरण आये हुए भयभीत कबूतरको तुम्हैं नहीं दे सकता । तुम्हारा काम और किसी प्रकार हो सके तो बतलाओ ।'

बाजने कहा - ' वह धर्म धर्म नहीं है, जो दूसरेके धर्ममें बाधा दे । भोजनसे ही जीव उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं तथा जीविन रहते हैं । बिना भोजन कोई जीवित नहीं रह सकता । मैं भूखसे मर जाऊँ तो मेरे बाल - बच्चे भी मर जायँगे । एक कबूतरको बचानेमें अनेकोंके प्राण जायँगे । आप परस्परविरोधी इन धमोंमें सोच - समझकर निर्णय करें कि एककी प्राण - रक्षा ठीक है या कईकी ।'

राजाने कहा - ' बाज ! भयभीत जीवोंकी रक्षा ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । दयासे द्रवित होकर जो दूसरोंको अभयदान देता है, वह मरनेपर संसारके महान् भयसे छूट जाता है । यश और स्वर्गके लिये तो बहुत लोग दान - पुण्य करते हैं; किन्तु सब जीवोंकी निःस्वार्थ भलाई करनेवाले पुरुष थोड़े ही हैं । यज्ञोंका फल चाहे जितना बड़ा हो, अन्तमें क्षय हो जाता है, पर प्राणीको अभयदान देनेका फल कभी क्षय नहीं होता । मैं सारा राज्य तथा अपना शरीर भी तुम्हें दे सकता हूँ, पर इस भयभीत दीन कबूतरको नहीं दे सकता । तुम तो केवल आहारके लिये ही उद्योग कर रहे हो, अतः कोई भी दूसरा आहार माँग लो, मैं तुम्हें दूँगा ।'

बाजने कहा - ' राजन् ! मैं मांसभक्षी प्राणी हूं मास ही मेरा आहार है । कबूतरके बदले आप और किसी प्राणीको मारें या मरने दें, इससे कबूतरको मरने देनेमें मुझे तो कोई अन्तर नहीं जान पड़ता । हाँ, आप चाहें तो अपने शरीरसे इस कबूतरके बराबर माँस तौलकर मुझे दे सकते हैं । मुझे अधिक नहीं चाहिये ।'

राजाको बड़ा हर्ष हुआ । उन्होंने कहा - ' बाज ! तुमने मुझपर बड़ी कृपा की । यदि यह शरीर प्राणियोंके उपकारमें न आये तो प्रतिदिनका इसका पालन - पोषण व्यर्थ ही है । इस नाशवान् अनित्य शरीरसे नित्य, अविनाशी धर्म किया जाय, यही तो शरीरकी सफलता है ।'

एक तराजू मँगाया गया । एक पलड़ेमें कबूतरको रखकर दूसरेमें राजा शिबि अपने हाथों अपने शरीरका मांस काटकाटकर रखने लगे । कबूतरके प्राण बचे और बाजको भी भूखका कष्ट न हो, इसलिये वे राजा बिना पीड़ा या खेद प्रकट किये अपना मांस काटकर पलड़ेपर रखते जात ए थे; किन्तु कबूतरका वजन बढ़ता ही जाता था । अन्तमें राजा स्वयं तराजूपर चढ़ गये । उनके ऐसा करते ही आकाशमें बाजे बजने लगे । ऊपरसे फूलोंकी वर्षा होने लगी ।

' ये मनुष्यभाषा बोलनेवाले बाज और कबूतर कौन हैं ? ये बाजे क्यों बजते हैं ?' राजा शिबि यह सोच ही रहे थे कि उनके सामने अग्निदेव और इन्द्र अपने वास्तविक रुपमें प्रकट हो गये । देवराज इन्द्रने कहा - ' राजन् ! तुमने बड़ोंसे कभी ईर्ष्या नहीं की, छोटोंका कभी अपमान नहीं किया और बराबरवालोंसे कभी स्पर्धा नहीं की; अतः तुम संसारमें सर्वश्रेष्ठ हो । जो मनुष्य अपने प्राणोंको त्यागकर भी दूसरोंको प्राण - रक्षा करता है, वह परम धामको जाता है । पशु भी अपना पेट तो भर ही लेते हैं; पर प्रशंसनीय वे पुरुष हैं, जो परोपकारके लिये जीते हैं । संसारमें तुम्हारे समान अपने सुखकी इच्छासे रहित केवल परोपकार - परायण साधु जगतकी रक्षाके लिये ही जन्म लेते हैं । तुम दिव्यरुप प्राप्त करो और चिरकालतक पृथ्वीका सुख भोगो । अन्तमें तुम्हें परमपद प्राप्त होगा ।' यों कहकर इन्द्र और अग्नि स्वर्ग चले गये ।

राजा शिबि भगवानमें मन लगाकर चिरकालतक पृथ्वीका शासन करते रहे और अन्तमें भगवद्धाम पधारे ।

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Last Updated : April 28, 2009

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