उग्रसेन

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


विधि बस सुजन कुसंगति परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥

महाराज उग्रसेन प्रजावत्सल, धर्मात्मा और भगवदभक्त थे । विधिका विधान ही कुछ विचित्र है । अनेक बार हिरण्यकशिपु - जैसे देवता, धर्म तथा ईश्वरविरोधी असुरसदृश लोगोंके कुलमें प्रह्लाद - जैसे भगवदभक्त उत्पन्न होते हैं और अनेक बार ठीक इससे उलटी बात हो जाती है । उग्रसेनजीका पुत्र कंस बचपनसे क्रूर था । धर्मके प्रति सदासे उसकी उपेक्षा थी । असुरों तथा आसुरी प्रकृतिके लोगोंसे ही उसकी मित्रता थी । इतना होनेपर भी कंस बलवान् था, तेजस्वी था और शूर था । उसने दिग्विजय की थी । महाराज उग्रसेन अपने पुत्रकी धर्मविरोधी रुचिसे बहुत दुखी रहते थे; किंतु कंस पिताकी सुनता ही नहीं था । सेनापर उसीका प्रभुत्व था । महाराज विवश - जैसे थे ।

जब कंसने वसुदेव - देवकीको वन्दीगृहमें डाल दिया, तब महाराज उग्रसेन बहुत असन्तुष्ट हुए । इसका परिणाम उल्टा ही निकला । दुरात्मा कंसने अपने पिता उग्रसेनजीको भी कारागारमें बंद कर दिया और स्वयं राजा बन बैठा । धन और पदके लोभसे नीच पुरुष माता - पिता, भाई - मित्र तथा गुरुका भी अपमान करते नहीं हिचकते । वे इनकी हत्यातक कर डालते हैं । नश्वर शरीरमें मोहवश आसक्त होकर मनुष्य नाना प्रकारके पाप करता है । कंस भी शरीरके मोह तथा अहङ्कारसे अन्धा हो गया था ।

कारागारमें महाराज उग्रसेनको सन्तोष ही हुआ । उन्होंने सोचा -- ' भगवाननें कृपा करके पापी पुत्रके दुष्कमोंका भागी होनेसे मुझको बचा दिया ।' वे अपना सारा समय भगवानके चिन्तनमें बिताने लगे । श्रीकृष्णचन्द्रने कंसको पछाड़कर परम धाम भेज दिया और महाराजको कारागारसे छुड़ाया । उग्रसेनजीकी इच्छा राज्य करनेकी नहीं थीं; किंतु श्रीकृष्णके आग्रहको वे टाल नहीं सकते थे । सेवक भगवान् श्रीकृष्णनें कहा -- ' महाराज ! मैं आपका सेवक होकर आपकी आज्ञाका पालन करुँगा । देवतातक आपकी आज्ञाको स्वीकार करेंगे ।'

द्वारकाका ऐश्वर्य अकल्पनीय था । देवराज इन्द्र भी महाराजके चरणोंमें प्रमाण करते थे । त्रिभुवनके स्वामी मधुसूदन जिनको प्रणाम करें, जिनसे आज्ञा माँगे, उनसे श्रेष्ठ और कौन हो सकता है ? परंतु कभी भी महाराज उग्रसेनको अपने प्रभाव, ऐश्वर्य या सम्पत्तिका गर्व नहीं आया । वे तो श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये ही सिंहासनपर बैठते थे । अपना सर्वस्व श्रीकृष्णको ही उन्होंने बना लिया था । श्रीकृष्णकी इच्छा पूर्ण हो, वे केशव सन्तुष्ट रहें, इसीके लिये उरसेनजीके सब कार्य होते थें ।

महाराज उग्रसेनने अश्वमेधादि बड़े - बड़े यज्ञ भगवानको प्रसन्न करनेके लिये किये । नित्य ही ब्राह्मणीं, दीनों, दुखियोंको वे बहुत अधिक दान किया करते थे । इस प्रकार निरन्तर श्रीकृष्णके सान्निध्यमें, उन कमललोचनका ध्यान करते हुए महाराजका जीवन बीता और भगवानके लीला संवारण करनेपर वे भी भगवानके अनुगामी हुए ।

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Last Updated : April 28, 2009

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