चक्रिक

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चान्येऽन्त्यजास्तथा ।

हरिभक्तिं प्रपजा ये ते कृतार्था न संशयः ॥

( पद्मपुराण, क्रियायोग० अ० २६ )

 

' ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य अन्त्यज लोगोंमेंसे भी जो हरिभक्तिद्वारा भगवानके शरणागत हुए, वे कृतार्थ हो गये -- इसमें कोई सन्देह नहीं ।'

द्वापरमें चक्रिक नामक एक भील वनमें रहता था । भील होनेपर भी वह सच्चा, मधुरभाषी, दयालु, प्राणियोंकी हिंसासे विमुख, क्रोधरहित और माता - पिताकी सेवा करनेवाला था । उसने न तो विद्या पढ़ी थी, न शास्त्र सुने थे; किंतु था वह भगवानका भक्त । केशव, माधव, गोविन्द आदि भगवानके पावन नामोंका वह बराबर स्मरण किया करता था । वनमें एक पुराना मन्दिर था । उसमें भगवानकी मूर्ति थी । सरलहदय चक्रिकको जब कोई अच्छा फल वनमें मिलता, तब वह उसे चखकर देखता । यदि फल स्वादिष्ट लगा तो लाकर भगवानको चढ़ा देता और मीठा न होता तो स्वयं खा लेता । उस भोले अपढ़को ' जूठे फल नहीं चढ़ाने चाहिये ' -- यह पता ही नहीं था ।

एक दिन वनमें चक्रिकको पियाल वृक्षपर एक पका फल मिला । फल तोड़कर उसने स्वाद जाननेके लिये उसे मुखमें डाला । फल बहुत ही स्वादिष्ट था, पर मुखमें रखते ही वह गलेमें सरक गया । ' सबसे अच्छी वस्तु भगवानको देनी चाहिये ' यह चक्रिककी मान्यता थी । एक स्वादिष्ट फळ उसे आज मिला तो वह भगवानका था । भगवानके हिस्सेका फल वह स्वयं खा ले, यह तो बड़े दुःखकी बात थी । दाहिने हाथसे अपना गला उसने दबाया, जिसमें फल पेटमें न चला जाय । मुखमें अँगुली डालकर वमन किया, पर फल निकला नहीं । चक्रिकका सरल हदय भगवानको देने योग्य फल स्वयं खा लेनेपर किसी प्रकार प्रस्तुत नहीं था । वह भगवानकी मूर्तिके पास गया और कुल्हाड़ीसे गला काटकर उसने फल निकालकर भगवानको अर्पणकर दिया । इतना करके पीड़ाके कारण वह गिर पड़ा ।

सरल भक्तकी निष्ठासे सर्वेश्वर जगन्नाथ दीझ गये । वे श्रीहरि चतुर्भुजरुपसे वहीं प्रकट हो गये और मन - ही - मन कहने लगे --

यथा भक्तिमतानेन साखिकं कर्म वै कृतम् ।

यद्दत्त्वानृण्यमाप्नोमि तथा वस्तु किमस्ति मे ॥

ब्रह्मत्त्वं वा शिवत्वं वा विष्णुत्वं वापि दीयते ।

तथाप्यानृण्यमेतस्य भक्तस्य न हि विद्यते ॥

( पद्मपुराण, क्रियायोग० १५ । २२, २४ )

' इस भक्तिमान् मीलने जैसा सात्त्विक कर्म किया है, मेरे पास ऐसी कौन - सी वस्तु है, जिसे देकर मैं इसके ऋणसे छूट सकूँ ? ब्रह्माका पद, शिवका पद या विष्णुपद भी दे दूँ, तो भी इस भक्तके ऋणसे मैं मुक्त नहीं हो सकता ।'

फिर भक्तवत्सल प्रेमाधीन प्रभुने चक्रिकके मस्तकपर अपना अभय करकमल रख दिया । भगवानके कर - स्पर्श पाते ही चक्रिकका घाव मिट गया । उसकी पीड़ा चली गयी । वह तत्त्काल स्वस्थ होकर उठ बैठा । देवाधिदेव नारायणने अपने पीताम्बरसे उसके शरीरकी धूलि इस प्रकार झाड़ी, जैसे पिता पुत्रके शरीरकी धूलि झाड़ता है । भगवानको सामने देख देख चक्रिकने गदगद होकर, दोनों हाथ जोड़कर सरल भावसे स्तुति की -- ' केशव ! गोविन्द ! जगदीश ! मैं मूर्ख भील हूँ । मुझे आपकी प्रार्थना करनी नहीं आती, इसलिये मुझे क्षमा करो । मेरे स्वामी ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ । आपकी पूजा छोड़कर जो लोग दूसरेकी पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं ।'

भगवानने वरदान माँगनेको कहा । चक्रिकने कहा -- ' कृपामय ! जब मैंने आपके दर्शन कर लिये, तब अब और क्या पाना रह गया ? मुझे तो कोई वरदान चाहिये नहीं । बस, मेरा चित्त निरन्तर आपनें ही लगा रहे, ऐसा कर दो ।'

भगवान् उस भीलको भक्तिका वरदान देकर अन्तर्धान हो गये । चक्रिक वहाँसे द्वारका चला गया और जीवनभर वहीं भगवद्भजनमें लगा रहा ।

N/A

References : N/A
Last Updated : April 28, 2009

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP