अत्रि

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ।

भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥

( अत्रि )

ये ब्रह्माके मानसपुत्र और प्रजापति हैं । ये दक्षिण देशामें रहते हैं , इनकी पत्नी अनसूया भगवदवतार भगवान् कपिलकी भगिनी तथा कर्दम प्रजापतिकी पत्नी देवहूतिके गर्भसे पैदा हुई हैं । जैसे महर्षि अत्रि अपने नामके अनुसार त्रिगुणातीत परम भक्त थे, वैसे ही अनसूया भी असूयारहित भक्तिमती थीं । इन दम्पतीको जब ब्रह्माने आज्ञा की कि सृष्टि करो, तब इन्होंने सृष्टि करनेके पहले तपस्या करनेका विचार किया और बड़ी घोर तपस्या की । इनके तपका लक्ष्य सन्तानोत्पादन नहीं था, बल्कि इन्हीं आँखोंसे भगवानके दर्शन प्राप्त करना था । इनकी श्रद्धापूर्वक दीर्घकालकी निरन्तर साधना और प्रेमसे आकृष्ट होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश - तीनों ही देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए । उस समय ये दोनों उनके चिन्तनमें इस प्रकार तल्लीन थे कि उनके आनेका पतातक न चला । जब उन्होंने ही इन्हें जगाथा तब ये उनके चरणोंपर गिर पड़े, किसी प्रकार सँभलकर उठे और गद्गद वाणीसे उनकी स्तुति करने लगे । इनके प्रेम, सत्य और निष्ठाको देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वरदान माँगनेको उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वरदान माँगनेको कहा । इन दम्पतीके मनमें अब संसारी सुखकी इच्छा तो थी ही नहीं, परंतु ब्रह्माकी आज्ञा थी सृष्टि करनेकी और वे इस समय सामने ही उपस्थित थे; तब इन्होंने और कोई दूसरा वरदान न माँगकर उन्हीं तीनोंको पुत्ररुपमें माँगा और भक्तिपरवश भगवानने इनकी प्रार्थना स्वीकार करके ' एवमस्तु ' कह दिया । समयपर तीनोंको ही इनके पुतरुपसे अवतार ग्रहण किया । विष्णुके अंशसे ' दत्तात्रेय ' , ब्रह्माके अंशसे ' चन्द्रमा ' और शङ्करके अंशसे ' दुर्वासा ' का जन्म हुआ ।

जिनकी चरणधूलिके लिये बड़े - बड़े योगी और ज्ञानी तरसते रहते हैं, वे ही भगवान् अत्रिके आश्रममें बालक बनकर खेंलने लगे और दोनों दम्पती उनके दर्शन और वात्सल्य स्नेहके द्वारा अपना जीवन सफल करने लगे । अनसूयाको तो अब कुछ दूसरी बात सूझती ही न थी । अपने तीनो बालकोंको खिलाने - पिलानेमें ही वे लगी रहतीं ।

इन्हीके पातिव्रत्य, सतीत्व और भक्तिसे प्रसन्न होकर वनगमनके समय स्वयं भगवान् श्रीराघवेन्द्र श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीके साथ इनके आश्रमपर पधारे और इन्हें जगज्जननी मा सीताको उपदेश करनेका गौरव प्रदान किया ।

उस समय अत्रिजीने बड़े ही सुन्दर शब्दोंमें भगवान् श्रीरामचन्द्रकी स्तुति करते हुए अन्तमें एक हाथ जोड़कर प्रार्थना की -

बिनती करि मुनि नाइ सिरु, कह कर जोरि बहोरि ।

चरनसरोरुह नाथ जनि, कबहुँ तजै मति मोरि ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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