श्रीविष्णुपुराण - तृतीय अंश - अध्याय ४

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


श्रीपराशरजी बोले -

सृष्टीके आदिमें ईश्वरमें आविर्भुत वेद ऋक् - यजुः आदि चार पादोंसे युक्त और एक लक्ष मन्तवाला था । उसीसे समस्त कमानाओंको देनेवाले अग्निहोत्रादि दस प्रकारके यज्ञोंका प्रचार हुआ ॥१॥

तदनन्तर अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें मेरे पुत्र कॄष्णद्वैपायनने इस चतुष्पादयुक्त एक ही वेदके चार भाग किये ॥२॥

परम बुद्धिमान वेदव्यासने उनका जिस प्रकार विभाग किया हैं, ठीक, उसी प्रकार अन्यान्य वेदव्यासोंने तथा मैंने भी पहलें किया था ॥३॥

अतः हे द्विज ! समस्त चतुर्युगोंमें इन्हीं शाखाभेदोंसे वेदका पाठ होता हैं - ऐसा जानो ॥४॥

भगवान् कृष्णद्वैपायनको तुम साक्षात नारायण ही समझो, क्योंकी है मैत्रेय ! संसारमें नारायणकें अतिरिक्त और कौन महाभारतका रचयिता हो सकता है ? ॥५॥

हे मैत्रेय ! द्वापरयुगमें मेरे पुत्र महात्मा कॄष्णद्वैपायनने जिस प्रकार वेदोंका विभाग किया था वह यथावत् सुनो ॥६॥

जब ब्रह्माजीकी प्रेरणासे व्यासजीने वेदोंका विभाग करनेका उपक्रम किया, तो उन्होंने वेदका अन्ततक अध्ययन करनेंमें समर्थ चार ऋषियोंको शिष्य बनाया ॥७॥

उनमेंसे उन महामुनिने पैलको ॠग्वेद, वैशम्पायनको यजुर्वेद और जैमिनिको सामवेद पढ़ाया तथा उन मतिमान् व्यासजीका सुमन्तु नामक शिष्य अथर्ववेदका ज्ञाता हुआ ॥८-९॥

इनके सिवा सुतजातीय महाबुद्धिमान रोमहर्षको महामुनि व्यासजीने अपने इतिहास और पुराणके विद्यार्थारूपसे ग्रहण किया ॥१०॥

पूर्वकालमें यजुर्वेद एक ही था । उसके उन्होंने चार विभाग किये, अतः उससें चातुहोंत्रकी प्रवृत्ति हुई और इस चातुर्होंत्र विधिसे ही उन्होंने यज्ञानुष्ठानकी व्यवस्था की ॥११॥

व्यासजीने यजुःसे अध्वर्युके, ऋक्‌से होताके, सामसे उद्गाताके तथा अथर्ववेदसे ब्रह्माके कर्मकी स्थापना की ॥१२॥

तदनन्तर उन्होंने ऋक् तथा यजुःश्रुतियोंसे उद्धार करके ॠग्वेद एवं यजुर्वेदकी और सामश्रुतियोंसे सामवेदकी रचना की ॥१३॥

हे मैत्रेय ! अर्थवेदके द्वारा भगवान् व्यासजीने सम्पूर्ण राज-कर्म और ब्रह्मात्वकी यथावत् व्यवस्था की ॥१४॥

इस प्रकार व्यासजीने वेदरूप एक वृक्षसे चार विभाग कर दिये फिर विभक्त हुए उन चारोंसे वेदरूपी वृक्षोंका वन उप्तन्न हुआ ॥१५॥

हे विप्र ! पहले पैलने ऋग्वेदरूप वृक्षके दो विभाग किये और उन दोनों शाखाओंको अपने शिष्य इन्द्रप्रमिति और बाष्कलको पढ़ाया ॥१६॥

फिर बाष्कलने भी अपनी शाखाके चार भाग किये और उन्हें बोध्य आदि अपने शिष्योंको दिया ॥१७॥

हे मुने ! बाष्कलकी शाखाकी उन चारों प्रतिशाखाओंको उनके शिष्य बोध्य, आग्निमाढक, याज्ञवल्क्य और पराशरने ग्रहण किया ॥१८॥

हे मैत्रेयजी ! इन्द्रप्रिमितिने अपनी प्रतिशाखाको अपने पुत्र महात्मा माण्डुकेयको पढा़या ॥१९॥

इस प्रकार शिष्य - प्रशिष्य - क्रमसे उस शाखांका उनके पुत्र और शिष्योंमें प्रचार हुआ । इस शिष्य परम्परासे ही शाकल्य वेदमित्रने उस संहिताको पढ़ा और उसको पाँच अनुशाखाओंमें विभक्त कर अपने पाँच शिष्योंको पढाया ॥२०-२१॥

उसके जो पाँच शिष्य थे उनके नाम सुनो । हे मैत्रेय ! वे मुद्गल, गोमुख, वात्स्य और शालीय तथा पाँचवें महामति शरीर थे ॥२२॥

हे मुनिसत्तम ! उनके एक दुसरे शिष्य शाकपूर्णने तीन वेदसंहिताओंकी तथा चौथे एक निरुक्त ग्रन्थकी रचना की ॥२३॥

( उन संहिताओंका अध्ययन करनेवाले उनके शिष्य ) महामुनि क्रोच्च , वैतालिक और बलाक थे तथा ( निरुक्तका अध्ययन करनेवाले ) एक चौथे शिष्य वेदवेदांगके पारगामी निरुक्तकार हुए ॥२४॥

इस प्रकार वेदरूप वृक्षकी प्रतिशाखाओंसे अनुशाखाओंकी उप्तत्ति हुई । हे द्विजोत्तम ! बाष्कलने और भी तीन संहिताओंकी रचना की । उनके ( उन संहिताओंको पढ़नेवाले ) शिष्य कालायनि, गार्ग्य तथा कथाजव थे । इस प्रकार जिन्होंने संहिताओंकी रचना की वे बह्‌वृच कहलाये ॥२५-२६॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशें चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥

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Last Updated : April 26, 2009

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