श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ११

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


श्रीपराशरजी बोले -

हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हें स्वायम्भूवमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान् और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे ॥१॥

हे ब्रह्मन ! उनमेंसे उत्तानपादकी प्रेयसी पत्नी सुरुचिसे पिताका अत्यन्त लाडका उत्तम नामक पुत्र हुआ ॥२॥

हे द्विज ! उस राजाकी जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था । उसका पुत्र ध्रुव हुआ ॥३॥

एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताकी गोंदमें अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें बैठनेकी हुई ॥४॥

किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचिके सामने, गोदमें चढनेके लिये उत्कण्ठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया ॥५॥

आपनी सौतके पुत्रको गोदमें चढनेके लिये उत्सुक और अपने पुत्रको गोदमेम बैठा देख सुरुचि इस प्रकार कहने लगी ॥६॥

"अरे लल्ला ! बिना मेरे पेटसे उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्रीका पुत्र होकर भी तु व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? ॥७॥

तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा करता है । यह ठिक है कि तू भी इन्हीं राजाका पुत्र है, तथापि मैनें तो तुझे अपने गर्भमें धारण नहीं किया ! ॥८॥

समस्त चक्रवर्ती राजाओंका आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता है ? ॥९॥

मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म सुनीतिसे हुआ है ? " ॥१०॥

श्रीपराशरजी बोले -

हे द्विज ! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोडकर अपनी माताके महलको चल दिया ॥११॥

हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ- कुछ काँप रहे थे ऐसे अपने पुत्रको क्रोधयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमें बिठाकर पूछा ॥१२॥

"बेटा ! तेरे क्रोधका क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नहीं किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजीका अपमान करने चला है ? " ॥१३॥

श्रीपराशरजी बोले - ऐसा पूछनेपर ध्रुवने अपनी मातासे वे सब बातें कह दीं जो अति गर्वीली सुरुचिने उससे पिताके सामने कही थीं ॥१४॥

अपने पुत्रके सिसक सिसककर ऐसा कहनेपर दुःखिनी सुनीतिने खिन्न चित्त और दीर्घ निःश्वासके कारण मलिननयाना होकर कहा ॥१५॥

सुनीति बोली - बेटा ! सुरुचिने ठिक ही कहा है, अवश्य ही तू मन्दभाग्य है । हे वत्स ! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षी ऐसा नहीं कह सकते ॥१६॥

बच्चा ! तू व्याकुल मत हो, क्योंकी तुने पूर्व जन्मोमें जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नहीं किया वह तुझें दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद नहीं करना चाहिये ॥१७-१८॥

हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है उसीको राजासन, राजच्छ्फ़त्र तथ उत्तम उत्तम घोडे़ और हाथी आदि मिलते हैं- ऐसा जानकर तू शान्त हो जा ॥१९॥

अन्य जन्मोमें किये हुए पुण्य कर्मोंकि कारण ही सुरुचिमें राजाकी सुरुचि ( प्रीति ) है और पुण्यहीना होनेसे ही मुझ जैसी स्त्री केवल भार्या ( भरण करने योग्य ) ही कही जाती है ॥२०॥

उसी प्रकर उसका पुत्र्फ़ उत्तम भी बड़ा पुण्य पुत्र्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रूव मेरे समान भी बड़ा पुण्य पुत्र्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रूव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान् है ॥२१॥

तथापि बेटा ! तुझे दुःखी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्यको जितना मिलता है वह अपनी ही पूँजीमें मग्न रहता है ॥२२॥

और यदि सुरुचिके वाक्योंसे तुझे अत्यन्त दुःख ही हुआ है तो सर्वफलदायक पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर ॥२३॥

तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भुमिकी और ढलकता हुआ जल अपने-आप हे पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वतः ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती हैं ॥२४॥

ध्रुव बोला -

माताजी ! तुमने मेरे चित्तको शान्त करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्योंसे बिंधे हुए मेरे हृदयमें तनिक भी नहीं ठहरते ॥२५॥

इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करुँगा जिससे सम्पूर्ण लोकोंसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ ॥२६॥

राजाकी प्रियसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता ! अपने गर्भमें बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना ॥२७॥

उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भमें धारण किया है, मेरा भाई ही है । पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे । ( भगवान करें ) ऐसा ही हो ॥२८॥

माताजी ! मैं किसी दुसरेके दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजीने भी नहीं प्राप्त किया है ॥२९॥

श्रीपराशरजी बोले -

मातासे इस प्रकार कह ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा और फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवनमें पहँचा ॥३०॥

वहाँ ध्रुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरोंको कृष्ण मृग चर्मके बिछौनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे देखा ॥३१॥

उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा ॥३२॥

ध्रुवने कहा -

हे महात्माओ ! मुझे आप सुनीतिसे उप्तन्न हुआ राजा उत्तानपादका पुत्र जाने ! मैं आत्मग्लनिके कारण आपके निकट आया हूँ ॥३३॥

ऋषि बोले - राजकुमार ! अभी तो तू चार पाँच वर्षका ही बालक है । अभी तेरे निर्वेदका कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता ॥३४॥

तुझे कोई चिन्ताका विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नहीं देता ॥३५॥

तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई व्याधि नहीं दीख पड़ती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? ॥३६॥

श्रीपराशरजी बोले -

तब सुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया । उसे सुनकर वे ऋषिगण आपसमें इस प्रकार कहने लगे ॥३७॥

'अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालकमें भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाताका कथन उसके हृदयसें नहीं टलता ॥३८॥

हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेदके कारण तुने जो कुछ करनेका निश्चय किया है, यदि तुझे रुचि तो , वह हमलोगोंसे कह दे ॥३९॥

और हे अतुलिततेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तु कुछ कहना चाहता है ॥४०॥

ध्रुवने कहा -

हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे नतो धनकी इच्छा है और न राज्यकी; मैं तो केवल एक उसी स्थानको चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोगा हो ॥४१॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है ॥४२॥

मरीचि बोले - हे राजपुत्र ! बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता; अत: तू श्रीअच्युतकी आराधना कर ॥४३॥

अत्रि बोले -

जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट होते हैं उसीको वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ ॥४४॥

यदि तू अग्रयस्थानका इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है उन गोविन्दकी ही आराधना कर ॥४५॥

पुलस्त्य बोले -

जो परब्रह्म परमधाम और परस्वरूप है उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है ॥४६॥

पुलह बोले -

हे सुव्रत ! जिन जगत्पतिकी आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णुकी अराधना कर ॥४७॥

क्रतु बोले -

जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं उन जनार्दनके सन्तुष्ट होनेपर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है ? ॥४८॥

वसिष्ठ बोले -

हे वत्स ! विष्णुभगवान्‌की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकीके उत्तमोत्तम स्थानकी तो बात ही क्या है ? ॥४९॥

ध्रुवने कहा -

हे महर्षिगण ! मुझे विनीतको आपने आराध्यदेव तो बता दिया ! अब उसको प्रसन्न करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये - यह बताइये । उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी बताइये । उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥५०-५१॥

ऋषिगण बोले -

हे राजकुमार ! विष्णुभगवानकी आराधनामें तप्तर पुरुषोंको जिस प्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत् श्रवण कर ॥५२॥

मनुष्यको चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे चित्तको हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधारमें ही स्थिर कर दे ॥५३॥

हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित होकर तन्मय-भावसे जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन - ॥५४॥

' ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्धज्ञानस्वरूप वासुदेवको नमस्कार है' ॥५५॥

इस ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) मन्तको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान् स्वायम्भुवमनुने जपा था । तब उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवात्र्छित सिद्धि दी थी । उसी प्रकार तू भी इसका निरन्तर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको प्रसन्न कर ॥५६-५७॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥११॥

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Last Updated : April 26, 2009

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