मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष व्रत - दशादित्यव्रत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


दशादित्यव्रत

( स्कन्दपुराण ) -

यद्यपि यह व्रत किसी भी शुक्ल दशमीको रविवार हो उसी दिन किया जाता है तथापि मार्गशीर्ष, माघ और वैशाखके व्रतारम्भका अधिक फल होता है । मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी रविवारको नदी, तालाब या झरने आदिपर जाकर प्रातःस्त्रानादि नित्यकर्म करके मध्याह्नमें स्त्रान करे और घर आकर देव तथा पितरोंको तृप्त करके वेदी बनाये ।

( १ ) उसपर १२ आर ( नोक या कोण ) का कमल लिखे और उसपर स्वर्णनिर्मित सूर्यमूर्ति स्थापित करके सूर्यके मन्त्नोंसे आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्त्रान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, फल ताम्बूल, दक्षिणा और विसर्जन - इन उपचारोंसे पूजन करे ।

( २ ) गोबरसे पोती हुई वेदीपर काले रंगकी - १ दुर्मुखी, २ दीनवदना, ३ मलिना, ४ सत्यनाशिनी, ५ बुद्धिनाशिनी, ६ हिंसा, ७ दुष्टा, ८ मित्रविरोधिनी, ९ उच्चाटनकारिणी और १० दुश्चिन्तप्रदा - ये दस पुत्रिका ( पुतली ) लिखकर इनकी नाम - मन्त्नोंसे पूजा और प्रतिष्ठा करे और ' नित्यं पापकरे पापे देवद्विजविरोधिनी । गच्छ त्वं दुर्दशे देवि नित्यं शास्त्रविरोधिनि ॥' से प्रार्थना करके विसर्जन करे ।

( ३ ) सूत या रेशमके दस तारका डोरा बनाकर उसमें दस ग्रन्थि ( गाँठ ) लगाये । आवाहनादि षोडश उपचारोंसे पूजन करे और सूर्यकी प्रार्थना करे । फिर दक्षिणासहित दस फल लेकर ' भास्करो बुद्धिदाता च द्रव्यस्थो भास्करः स्वयम् । भास्करस्तारकोभ्यां भास्कराय नमोऽस्तु ते ॥' से वायन - दान करके भोजन करे और

( ४ ) वेदीके स्थानमें चन्दनकी १ सुबुद्धिदा, २ सुख - कारिणी, ३ सर्वसम्पत्तिदा, ४ इष्टभोगदा, ५ लक्ष्मी, ६ कान्तिदा, ७ दुःखनाशिनी, ८ पुत्रप्रदा, ९ विजया और १० धर्मदायिनी - ये दस पुतली लिखकर नाममन्त्नोंसे इनका षोडशोपचार पूजन करे तथा ' विशुद्धवसनां देवीं सर्वाभरणभूषिताम् । ध्यायेद् दशदशां देवीं वरदाभयदायिनीम् ॥' से प्रार्थना करके भोजन करे तो दुर्दशा दूर हो जाती है । ' दुर्दशा क्यों होती हैं ? ' इस विषयमें नारदजीने कश्यपजीसे पूछा, तब उन्होंने बतलाया था कि - ' तुष, भस्म और मूसलका उल्लङ्खन करनेसे - कुमारी, रजकी ( धोबिन ) और वृद्धाके साथ संयोग होनेसे, अयोनि - ( मुख, हाथ, गुदा ) या ब्राह्मणी आदिसे ब्रह्मचर्य नष्ट होनेसे, शाम, सुबह या पर्वमें रजस्वलाके समीप जानेसे - संकटके समय माँ, बाप और मालिकको छोड़ देनेसे और अपने परम्परागत धर्म - कर्म और सदाचारका त्याग कर देनेसे दुर्दशा होती है । अतः न्यायमार्ग और सत्कर्ममें प्रवृत्त रहे और आपत्तिमें दशादित्यका व्रत करे । आपदग्रस्त होनेपर नल राजाने और पाण्डवोंने यह व्रत किया था ।

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Last Updated : January 01, 2002

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