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ग्राम देवता

सुमित्रानंदन पंत - ग्राम देवता

ग्रामीण लोगोंके प्रति बौद्धिक सहानुभूती से ओतप्रोत कविताये इस संग्रह मे लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देती है।


राम राम,

हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !

तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,

शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,

वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम,

तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ ।

मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;

शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट गणपति वरिष्ठ,

वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ ।

पिक बयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,

नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित ।

प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,

मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित !

शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,

वेणा में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित ।

हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,

बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित ।

अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,

नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन !

पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन

चिर मोह मुक्त कर दिया, देव ! तुमने यह जन !

राम राम,

हे ग्राम देवता, रूढि धाम !

तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,

जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,

शिक्षक तुम, दस वर्षो से में सेवक, प्रणाम ।

कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु-दुस्तर अपार,

कल्पना पुत्र में, भावी द्रष्टा, निराधार,

सौन्दर्य स्वप्नचर, - नीति दंडधर तुम उदार,

चिर परंपरा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार ।

दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,

जन मर्यादा का स्त्रोत शून्य चिर अंध कूप,

जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,

तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप !

यह वही अवध ! तुलसी की संस्कृति का निवास !

श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास !

अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास !

वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास !!

ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम !

संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम !

आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम !

यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति ! राम राम !!

श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,

पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;

कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,

जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास !

पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,

थी रुद्रचरों कुंठित कृषि युग की उन्नति ।

श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,

जीवन कर गए अहल्या की, थे सीतापति !

वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,

वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;

बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,

वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित !

तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,

तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित ।

खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,

जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित !

गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन

कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन ।

जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,

संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण !

उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,

बन गई चिरंतन रीति नीतियाँ, - स्थितियाँ मृत ।

गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,

तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित ।

अति मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,

मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद ।

जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,

विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद ।

तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,

ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्त्र हस्त बलमय ।

अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,

सामंत मान अब व्यर्थ, - समृद्ध विश्व अतिशय ।

अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,

गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;

देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,

अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय ।

राम राम,

हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।

शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हे सविनय प्रणाम ।

विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम

तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम !

पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ' साधु, संत

दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ ।

जो था, जो है, जो होगा- सब लिख गए ग्रंथ,

विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र ।

युग युग से जनगण, देव ! तुम्हारे पराधीन,

दारिद्र्य दुःख के कर्दम में, कृमि सदृश लीन !

बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,

तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन !

जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,

माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;

वे चिर निवृत्ति के भॊगी, -त्याग विराग विहित,

निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित !

वे देव भाव के प्रेमी, पशुओं से कुत्सित,

नैतिकता के पोषक, - मनुष्यता से वंचित;

बहु नारी सेवी, - पतिव्रता ध्येयी निज हित,

वैधव्य विधायक, - बहु विवाह वादी निश्चित ।

सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,

संघर्ष विमुख, अटल उनको विधि का विधान ।

जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हे ध्यान,

मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान ।

राम राम,

हे ग्राम देव, लो ह्रदय थाम,

अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग मे धूम धाम ।

उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,

तुम रूढ़ि रीति की खा अफीम, लो चिर विराम !

यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,

यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण ।

युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण

मानवता में मिल रहे, - ऐतिहासिक यह क्षण !

नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,

राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय ।

जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सह्रदय,

हिन्दु, ईसाई, मुसलमान- मानव निश्चय ।

मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,

संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थी पीड़ित ।

गत देश काल मानव के बल से आज विजित,

अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित ।

छायाएँ हे संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,

वह केन्द्र, परिस्थितियो के गुण उसमे बिम्बित ।

मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित

अब नव संस्कृति के वसनोम से होगी भूषित ।

विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत

जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत ।

बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत

नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत ।

राम राम,

हे ग्राम देवता, रूढिधाम !

तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,

जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,

शिक्षक हो तुम, मे शिष्य, तुम्हें शत प्रणाम ।

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References :

कवी - श्री सुमित्रानंदन पंत

जनवरी' ४०

Last Updated : October 11, 2012

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