मयमतम् - अध्याय १८

मयमतम्‌ नामक ग्रंथमे संपूर्ण वास्तुशास्त्रकी चर्चा की गयी है। संपूर्ण वास्तु निर्माणमे इस ग्रंथको प्रमाण माना गया है।


प्रासाद के उर्द्धा वर्ग -

अब मैं (मय ऋषि) इन (प्रासादों) के गले के अलङ्करणों का, शीर्ष-भाग के आच्छादन का, लुपा के प्रमाण का एवं स्तूपिका के लक्षण का क्रमशः वर्णन करता हूँ ॥१॥

गललक्षण

गल का लक्षण - भवन का गल वेदिका की ऊँचाई का दुगुना ऊँचा होना चाहिये । उसके ऊपर शिखरोदय गल का दुगुना अथवा तीन गुना ऊँचा होना चाहिये । अथवा गल की ऊँचाई वेदिका की ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये ॥२॥

गर्भ-भित्ति (कक्ष की दिवार) के तीन भाग के एक भाग के बराबर अङ्‌घ्रि (पद, चरण, स्तम्भ) की वेदी में अङ्‌घ्रि का निवेश होना चाहिये । इसी प्रकार भित्ति के ऊपरी भाग में ग्रीवा (काष्ठ, गल) का निवेश होना चाहिये । यह विधान देवालय एवं मनुष्यगृह-दोनों के लिये कहा गया है ॥३॥

(अथवा) भित्ति-विष्कम्भ के पाँचवे भाग के बराबर पाद-निवेश की वेदिका एवं ग्रीवावेश (कण्ठ-निवेश) होता है । इसी प्रकार ये दोनों भित्ति-विष्कम्भ के चौथे भाग के बराबर भी हो सकते हैं ॥४॥

इस प्रकार इन तीन प्रकारों से (किसी एक नियम से आवश्यकतानुसार) प्रयत्नपूर्वक कण्ठ निर्मित करना चाहिये । उत्तरवाजन, मुष्टिबन्ध, मृणालिका, दण्डिका एवं वलय गल के भूषण होते है । मुष्टिबन्ध के ऊपर व्याल एव नाट्य-दृश्य ऊपर से (नीचे तक) होते है । दण्डिका का निर्माण (इस प्रकार) होना चाहिये (जिससे) उसके ऊपर शिखर-निर्माण हो सके ॥५-६॥

शिखर के भेद - शिखर की ऊँचाई वर्णित भाग के मान के अनुसार होती है । अथवा दण्डिका के मध्य के विस्तार के अनुसार रक्खी जाती है । इसका माप इस प्रकार होता है - पाँच भाग में दो भाग, सात भाग में तीन भाग, नौ भाग में चार भाग, ग्यारह भाग में पाँच भाग, तेरह भाग में छः भाग, पन्द्रह भाग में सात भाग, सत्रह भाग में आठ भाग अथवा दण्डिका की मोटाई का आधा भाग । इस प्रकार शिखर के आठ भेद बनते हैं, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार है- पाञ्चाल, वैदेह, मागध, कौरव, कौसल, शौरसेन, गान्धार एवं आवन्तिक । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है -

१. पाँच भाग में दो भाग - पाञ्चाल

२. सात भाग में तीन भाग - वैदेह

३. नौ भाग में चार भाग - मागध

४. ग्यारह भाग में पाँच भाग - कौरव

५. तेरह भाग में छः भाग - कौसल

६. पन्द्रह भाग में सात भाग - शौरसेन

७. सत्रह भाग में आठ भाग - गान्धार

८. दण्डिका मोटाई का आधा भाग - आवन्तिक ॥७-१०॥

ज्ञानियों द्वारा इनका (पाञ्चाल आदि का) नाम क्रमशः जानना चाहिये । ये सभी जङ्घा के बाहर निकले होते है । इन शिखरों में नीचे वाला (आवन्तिक) शिखर मनुष्य के आवास के योग्य एवं शेष सभी देवालय के योग्य होते है ॥११॥

इन आवन्तिक आदि शिखरों पर लुपा-संयोजन के लिये दश भाग से प्रारम्भ कर एक-एक अंश बढ़ाते हुये सत्रह भाग पर्यन्त आठ प्रकार की ऊँचाइयाँ प्राप्त होती है । इनके नाम इस प्रकार है - व्यामिश्र, कलिङ्ग, कौशिक, वराट, द्राविड, बर्बर, कोल्लक तथा शौण्डिका ॥१२-१४॥

शिखराकृति

शिखर की आकृति - देवों एवं साधुओं-संन्यासियों का भवन के शिखरों के आकार चौकोर, वृत्ताकार, षट्‍कोण, अष्टकोण, द्वादश कोण, षोडश कोण, पद्माकार, पके आँवले के आकार का, लम्बी गोलाई के आकार का और गोलाकार होता है । ॥१५-१६॥

हर्म्यों (महलों) के शिखर आठ कोण एवं आठ धाराओं वाले होते है; किन्तु ये छः कोण से लेकर साठ कोणपर्यन्त हो सकते है ॥१७॥

स्थूपिकोत्सेध

शिखर की ऊँचाई के चौथे या पाँचवें भाग के बराबर ऊँचा कमल होना चाहिये ।

उसके ऊपर पद्म के बराबर अथवा उसके तीसरे भाग के बराबर लम्बी स्थूपिका (स्तूपिका) होती है ॥१८॥

अत्यन्त छोटे भवन में स्थूपिका (स्तूपिका) का प्रमाण शिखर का आधा अथवा तीसरे भाग के बराबर होना चाहिये । इस प्रकार संक्षेप में स्थूपिका को अलङ्करणों का वर्णन ऊपर किया गया ॥१९॥

लुपासंख्या

देवों एवं मनुष्यों के भवन में चार प्रकार के लुपाओं (लट्ठे, लकड़ी के पट्टे) की संख्या होती है । यह पाँच से लेकर ग्यारह पर्यन्त (पाँच, सात, नौ, ग्यारह) अथवा चार से लेकर दस तक (चार, छः, आठ, दश) होती है ॥२०॥

पुष्कर

पूर्व-वर्णित अन्तर की ऊँचाई व्यामिश्र नामक पुष्कर (शिखर का एक भाग) की है । ऊर्ध्व-स्थितं एवं अधोभाग में स्थित पुष्कर का माप आधे प्रमाण से रखना चाहिये ॥२१॥

आधे प्रमाण से प्रारम्भ कर सबसे ऊँचे प्रमाण तक जाना चाहिये । इसके पश्चात् वापस (नीचे तक) लौटना चाहिये । आरोह एवं अवरोह का यह गोपनीय क्रम इस प्रकार वर्णित है ॥२२॥

लुपामान

(दो) दण्डिकाओं के मध्य के मोटाई (चौड़ाई) के आधे माप के बराबर एक सम चतुर्भुज बनाना चाहिये । इस चतुर्भुज के चारो भुजाओं (सूत्रों) की संज्ञा क, उष्णीष, आसन एवं सीम होती है ॥२३॥

आसन सूत्र के नीचे दण्डिका एवं उत्तर के बराबर सूत्र फैलाना चाहिये (रेखा बनानी चाहिये) । इसके पश्चात् आसनसूत्र पर चार से प्रारम्भ कर दश भागपर्यन्त (चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दश) बिन्दु चिह्नित करना चाहिये ॥२४॥

क सूत्र एवं उष्णीष सूत्र की सन्धि से उस बिन्दु को सीम की छाया (शिखर का एक भाग) की ऊँचाई तक ले जाना चाहिये । छाया की ऊँचाई तक लम्बाई के मान को क सूत्र के म्ल से आसानसूत्र पर न्यस्त करना चाहिये ॥२५॥

ये ही सूत्र दण्डिका आदि तक होते है । लुपाओं की लम्बाई क एवं उष्णीष सूत्र के सन्धिस्थल से बिन्दु के अन्त तक होती है ॥२६॥

क सूत्र पर उनका (लुपाओं का) विस्तार पुनः विन्यस्त करना चाहिये (अर्थात् लुपायें कहाँ-कहाँ लगनी है - इसे चिह्नित करना चाहिये) । सभी को अपने कर्ण से छायामान तक मापना चाहिये ॥२७॥

वे पर्यन्त सूत्र मल्ल (शिखर के एक भाग) तक सूत्र की भाँति होते है । इस प्रकार मध्य में स्थित लुपा अन्य लुपाओं (पार्श्व के स्थित लुपा) की संख्या के अनुसार बढ़ सकते है ॥२८॥

इस प्रकार (लुपा-संयोजन) करने से तथा आरोह एवं अवरोह से पुष्कर निर्मित होता है एवं इससे मल्ल की लम्बाई ज्ञात होती है ॥२९॥

पञ्चलुपाभेद

लुपायें (अपनी स्थिति के अनुसार दो प्रकार की) समध्य (मध्य में लगने वाली) एवं विमध्य (मध्य से हट कर लगने वाली) होती है । लुपायें पाँच प्रकार की क्रमशः इस प्रकार होती है - मध्य, मध्यकर्ण, आकर्ण, अनुकोटिक एवं कोटि । यदि रेखा का विभाजन सम भागों में हुआ हो तो लुपा की संख्या विषम होती है एवं विषम भागों में सम संख्या में लुपायें होती है ॥३०-३१॥

कान्ता, अन्तरा, असिका, उष्णीष, सीमान्त, चूलिका, भ्रमणीया, समया एवं असमया उन सूत्रों से स्थित होकर दन्त एवं स्तन संज्ञक सुत्रों को सूत्र में बाँधती है (दन्त से स्तन संज्ञक सूत्र के मध्य उपर्युक्तों की स्थिति होति है) । नीचे स्थित शयित सूत्र (क्षैतिज सूत्र) पृष्ठवंश (लुपायें जिस पर टिकती है) को सूत्र में बाँधते है । ॥३२-३३॥

शयित सूत्र के भीतरी भाग में स्थित कील के ऊर्ध्व भाग में कूट को अर्धचन्द्र की भाँति स्थापित कर सभी सम चूलिकाओं को चिह्नित करना चाहिये ॥३४॥

लुपा एवं विलुप के मध्य में भीतर स्थिर चूलिका की आकृति निर्मित होती है । इस प्रकार ऋजु निर्मित होता है एवं इसकी आकृति कुक्कुट पक्षी के पंख के समान होती है ॥३५॥

बालकूट के विस्तार में स्थित सूत्रस्तन के मध्य में, वलय के छिद्र के मध्य में स्थित कूट का मध्यम सूत्र होता है ॥३६॥

पर्यन्त-सूत्र से अन्तर-दण्डिका के वाम भाग में जो विस्तार होता है, वहाँ अन्तर्जानुक का व्यास एव उसके मध्य में चूलिका की स्थिति होती है ॥३७॥

शिखरावयवमान

शिखर के अङ्गों के प्रमाण - लुपा की चौड़ाई एक दण्ड, सवा दण्ड या डेढ़ दण्ड होती है तथा उसकी मोटाई का माप विस्तार का तीसरा, चौथा या पाँचवाँ भाग होता है ॥३८॥

जानु का व्यास उत्तर का आधा अथवा चूलिका के आधे का आधा (चतुर्थांश) होना चाहिये । इसकी मोटाई दण्डिका के बराबर, तीन चौथाई अथवा आधी होनी चाहिये ॥३९॥

वलय एवं जानु के नीव्र (किनारा) का माप दण्डिका के विस्तार का आधा होना चाहिये । मल्ल का मध्य एवं आदिक अमीली एवं जानु के आलम्बन से जानु के अन्त तक चूलिका का अंश होता है । नीव्र का आलम्बन-सूत्र शयन से होता है । ॥४०-४१॥

कुठारिका, ललाट एव जघन का मान एक समान होता है । पाद-विष्कम्भ एवं कर्ण का माप समान होता है अथवा विष्कम्भ का दुगुना होता है ॥४२॥

कूट के व्यास के बराबर लुपा की पिण्डी होती है एवं कर्ण की लम्बाई उसकी दुगुनी होती है । उसके आधे माप का नालिका-लम्ब होता है । इसके ऊपर मल्ल के अग्र भाग को जोड़ा जाता है ॥४३॥

छिद्र उसकी मोटाई के अनुसार होना चाहिये, जिससे उसमें मल्लों का प्रवेश हो सके । जानुक, लुपामध्य एवं मध्य पृष्ठ पर स्थित वंश समान के माप के होते है । उनकी मोटाई चूली के भाग के अथवा लुपा के मध्य भाग के बराबर होती है । अथवा लुपा की मोटाई के आठवें भाग के बराबर वलय एवं वंश का विस्तार होता है ॥४४-४५॥

छादन

आच्छादन, छाजन - उपर्युक्त माप का आधा मोटा (आच्छादन होना चाहिये) । काष्ठ के फलकों, धातु के लोष्टकों (धातुनिर्मित पट्ट) अथवा मृत्तिका-निर्मित लोष्टकों से इच्छानुसार (भवन के शीर्ष को) इस प्रकार आच्छादित करना चाहिये, जिससे आच्छादन स्थिर रहे । लुपा के ऊपर फलकों (या लोष्टकों) को रखकर नीचे एवं ऊपर अष्टबन्ध (विशिष्ट गारा) लगाना चाहिये ॥४६॥

वलयसन्धि

वलय की सन्धि - वलय के छिद्र लुपा के मध्य के नीचे होता है । इसके लिये सोलह संख्या में परलेखायें (विशिष्ट रेखायें) निर्मित करनी चाहिये । इसका प्रमाण कुक्षि के व्यास के आठवे भाग के अङ्गुलिमान के बराबर होनी चाहिये ॥४७-४८॥

उस भाग से साढ़े सात से प्रारम्भ कर ढ़ाई भाग बढ़ाते हुये पन्द्रह संख्या तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार सोलह परलेखायें बनती है ॥४९॥

लुपा के नीचे एवं पर बिन्द्वादि को मध्य में करना चाहिये । उस बिन्द्वादि से बुद्धिमान (स्थपति) को परलेका का अवलोकन करना चाहिये ॥५०॥

प्रासादों (महलों, देवालयों) की ये परलेखायें गृहों मे सोलह संख्याओं मे होती है । लुपाओं में प्रथम से दुगुना मान करते हुये उनका मान बुद्धिमान (स्थपति) को स्वीकार करना चाहिये ॥५१॥

क, उष्णीव तथा आसन सूत्र के नीचे शफर को अङ्कित करना चाहिये । उसके ऊपर बुद्धिमान (स्थपति) को मल्ल का अङ्कन करना चाहिये ॥५२॥

मल्ल के नीचे लम्बाई के पन्द्रह भाग करने चाहिये । उन-उन भागों के अन्त से मत्स्य की आकृति बनानी चाहिये ॥५३॥

सभी परलेखाओं का यही क्रम कहा गया है । पाञ्चाल आदि लुपाओं में से प्रत्येक के विषय में बुद्धिमानों ने वर्णन किया है ॥५४॥

आसन एवं क सूत्र के अग्रभाग से एवं मल्ल से संयुक्त, मध्य भाग एव उसके बाद सीधी रेखा को बुद्धिअमन ने परलेखा कहा है ॥५५॥

घटिका

लुपा की चौड़ाई के मान से चौकोर घटिका का निर्माण करना चाहिये । यह एक वितस्ति (बित्ता, बालिश्त) लम्बी, सीधी, मध्यम सूत्र से युक्त होती है ॥५६॥

चूलिका, अन्तर्वर्ण, लुपा एवं तिर्यक सूत्र के मध्य में घटिका को स्थापित करना चाहिये । इसके पश्चात् इसे शमन सूत्र के समान छिद्रयुक्त करना चाहिये ॥५७॥

प्रत्येक वर्ण की घटिका को उसके वर्ण पर स्थापित करना चाहिये । क्षिप्त सूत्र के शेष भाग के वर्ण लुपा के उदर भाग पर दण्डिका, उत्तर एवं वलय पर स्थित समसूत्र का आलेखन करना चाहिये । उदर भाग की लम्बाई के मध्य भाग में सम-सूत्र के अङ्कन से ककर निर्मित होता है ॥५८-५९॥

जिस प्रकार घटिका ललाट के मध्य में हो तथा ककर सम हो, उस विधि से लुपा के उदर भाग में लम्बाई में रखकर उसे ललाट की आकृति में काटना चाहिये । वलय आदि को लुपा के उदर भाग में इच्छित भाग रखना चाहिये । वलय के छिद्रों के साथ छाया के स्थापित करना चाहिये ॥६०-६१॥

उस-उस घटिका के साथ तथा मध्य में स्थित उनके मध्य भाग से संयुक्त जो ललाट से सम्बद्ध छाया है, वह उन-उन (घटिकाओं) की होती है ॥६२॥

दण्डिका, वलय, छिद्र, स्तन, जानु एवं उत्तर आदि पर, शिर के मध्य भाग में तथा अर्ध के मध्य में तुला के ऊपर मुण्ड (सजावटी अङ्ग) स्थापित करना चाहिये । ॥६३॥

विट भाग (शीर्ष भाग) शिखा से युक्त, तुला-पाद से युक्त, वंश से युक्त, वर्ण से युक्त, मत्स्य-बन्ध एवं खर्जूर-पत्र के समान आकृति से युक्त होती है ॥६४॥

पुनश्छादन

पुनः आच्छादन - शिखर के भीतरी भाग में वलयक्ष के साथ लुपा रखनी चाहिये । लुपा के ऊपर फलक अथवा कम्प रखना चाहिये तथा सुधा (गारा) एवं ईटों से आच्छादन को सुन्दर बनाना चाहिये (अर्थात उन्हे सही एवं सुन्दर बनाना चाहिये) । ॥६५॥

स्थूपिकाकील

स्तूपिका की कील - स्थूपिका (स्तूपिका) के कील की लम्बाई स्तम्भ की लम्बाई के बराबर होनी चाहिये । इसके शीर्ष भाग की चौड़ाई चौथाई दण्ड एवं मूल की चौड़ाई आधा दण्ड होनी चाहिये । इसके मूल का वेधन शङ्ग्कु के मूल से लेकर मुण्ड पर्यन्त होना चाहिये ॥६६-६७॥

वंश के नीचे मन्डनाग, अग्रपट्टिका, बालकूट, स्तन, शङ्कुमूल एवं मुण्डक स्थापित करना चाहिये ॥६८॥

शिखर के भीतरी भाग की सज्जा अन्तःस्थ वलय, नालियों से युक्त वर्णपट्टिका, मत्स्यबन्धन, खर्जूरपत्र, मलय, वलक्ष तथा स्वस्ति धाराओं से करनी चाहिये ॥६९॥

मुखपट्टी का विस्तर एक दण्ड या डेढ़ दण्ड होना चाहिये । नीप्र का माप उसके छटवें या आठवें भाग के बराबर होना चाहिये एवं सुअकी चौड़ाई कर्णिका की ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये । शक्तिध्वज के मूल की चौड़ाई एक दण्ड होनी चाहिये । उसका कण्ठ उसके बराबर, उसका सवा भाग या डेढ़ भाग अधिक होना चाहिये । ग्रीवा के अन्त तक जाने वाले गग्रपत्र का मान स्तम्भ की चौड़ाई का आधा ऊँचा होना चाहिये । ॥७०-७१-७२॥

दो गग्रपत्रों के मध्य का भाग दो दण्ड से प्रारम्भ कर तीन दण्ड तक होना चाहिये । कर्णिका वायु के वेग से हिलती हुई लता की भाँति होनी चाहिये ॥७३॥

नीचे अर्धकर्ण होना चाहिये एवं उसके ऊपर शिर होना चाहिये । डेढ़ भाग से अनति होनी चाहिये । ग्रीवा के ऊपर कपोल-पर्यन्त का भाग तीन या साढ़े तीन दण्ड होना चाहिये ॥७४॥

उससे पत्र एवं शूल से युक्त शक्तिध्वज लगा होना चाहिये । वहाँ नेत्र से युक्त मल्ल, चूलिका एवं स्तनमण्डल आदि निर्मित होना चाहिये ॥७५॥

क्षैतिज स्थित पट्ट कमल आदि से अलङ्‍कृत होना चाहिये । अर्धकर्ण, ऊर्ध्वपट्ट एवं ऊर्ध्वप्रति के ऊपर मुष्टिबन्ध निर्मित होना चाहिये ॥७६॥

शोभा के अनुसार निष्क्रान्त होना चाहिये । उसके ऊपर त्रिमुख होना चाहिये, जो शूल के समान, मतल के सदृश, व्याल (गज अथवा सर्प) के सदृश अथवा नृत्यादि के दृश्यों से युक्त हो ॥७७॥

ललाटभूषण

ललाट के अलङ्करण - उसके ऊपर कूट एवं कोष्ठ आदि से अलङ्कृत विमान (मन्दिर) के सदृश रचना होती चाहिये, जो पट्ट, क्षुद्रकम्प आदि अङ्गों अथवा मध्य तोरण से युक्त हो ॥७८॥

तोरण के मध्य में लक्ष्मी अङ्कित होनी चाहिये, जिनका (गजों द्वारा) ऐषेक किया जा रहा ओ एव हाथ में कमल-पुष्प हो । इस प्रकार अथवा अन्य विधि से ललाटिका को सजाना चाहिये ॥७९॥

ललाट के वंश विद्ध, मध्य के शूल से दृढ़ बनाई गई, एक दण्ड विस्तृत कुठारिका होनी चाहिये । इसका कर्ण पत्र एवं मकर से अलङ्कृत तथा उस पर टिका होना चाहिये । अथवा पत्र तथा मकर मध्य में या अर्धकर्ण पर रुचि एवं योजना के अनुसार निर्मित करना चाहिये ॥८०-८१॥

स्थूपिका

स्तूपिका - अग्र भाग (ऊपरी भाग) में जोड़े गये ईंटों के मध्य में तिरछी लुपायें प्रविष्ट होती है । उसके ऊपर उनको भेद कर स्थूपिका-यूप निकली होती है ॥८२॥

स्थूपिका के प्रमाण का पहले वर्णम किया चुका है । अब उसके अलङ्करणों के बाईस भागों का (प्रमाणसहित) वर्णन किया जा रहा है; जो इस प्रकार है - पद्म - एक, क्षेपण, आधा, वेत्र - आधा, क्षेपण - आधा, पङ्कजः, एक, घट - पाँच, पङ्कज - एक , क्षेपण - आधा, धृक्‍ - एक, क्षेपण - आधा, वेत्र - एक, क्षेपण - आधा, धृक - एक, कम्प - आधा, पद्म - आधा, फलक - एक, अम्बुज - आधा, वेत्र - आधा तथा मुकुल - साढ़े चार ॥८३-८६॥

पद्म से आरम्भ कर मुकुल पर्यन्त (ऊपर वर्णित क्रम से अङ्गों) की चौड़ाई इस प्रकार होनी चाहिये - पद्म - सात भाग, क्षेपण - दो, वेत्र - तीन, क्षेपण - दो, पङ्कज - क्षेपण - तीन, धृक्‍ - दो, कम्प - तीन, पद्म - पाँच, फलक - छः, अम्बुज - पा~म्च, वेत्र - दो एवं मुकुल - तीन भाग ॥८७-८८॥

मुकुल के अग्र भाग को शोभा के अनुसार एक या डेढ़ भाग बढ़ाया जा सकता है । इसका आकार चार, आठ या सोलह कोण वाला अथवा गोल रक्खा जा सकता है । जिस प्रकार से ऊपरी भाग को सहारा दे सके (वही आकृति चुनी जानी चाहिये)। ॥८९॥

अथवा इसकी आकृति भवन के शीर्ष भाग के अलङ्करण के अनुसार रखनी चाहिये । ये आकृतियाँ देवों, राजाओं, ब्राह्मणों एवं वैश्यों के अनुकूल होती है ॥९०॥

देवों, ब्राह्मणों , क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिये तो यह अनुकूल ऐ; किन्तु शूद्रो के लिये नही है । इन अङ्गों को (यथोचित रीति से) नियोजित कर ध्वजदण्ड को उसके ऊपर रखना चाहिये । इन लक्षणों से युक्त विमान (देवालय, ऊँचा भवन) सम्पतिकारक होता है ॥९१॥

लेप एवं गारा -

कराल, मुद्गी, गुल्माष, कल्क एवं चिक्कण - ये पाँचों चूर्ण सभी (निर्माण) कार्यो के लिये उचित होते है । कराल अभया (हर्र, हरीतकी) अथवा अक्ष (बहेड़ा, बिभीतक) के बीज के बराबर आकार के कङ्कड़ होते है ॥९२-९३॥

मूँग के दाने के बराबर छोटे कङ्कड़ को मुद्ग कहते है । डेढ़ भाग, तीन चौथाई अथवा दुगुने माप में बालू से युक्त किञल्क (कमल के सूत्र, रेशे) में शर्करा (कङ्कड़) एवं सीपियों (के चूर्ण के साथ) चूना मिलाने पर गुल्माष (एक प्रकार का गारा) तैयार होता है । करालं एव मुद्गी को भी इसी माप से तैयार किया जाता है ॥९४-९५॥

पूर्व-वर्णित माप में बालू के साथ चणक (चने के आकार का चूना) को एक साथ पीसना चाहिये । यह कल्क होता है । चिक्कण केवल (सादा, इसमें कुछ नही मिलाया जाता ) होता है ॥९६॥

पूर्ववर्णित कराल, मुद्गी आदि पदार्थों का प्रयोग अलग-अलग करना चाहिये । इनसे ईटों को आपस में इस प्रकार जोड़ा जाता है; जिससे उनमें छिद्र शेष न रहें । ॥९७॥

उपर्युक्त पदार्थों में से किसी एक का चूनाव करना चाहिये । (चुने गये पदार्थ को) केवल जल के साथ पहले तीन बार कूटना चाहिये ॥९८॥

इसके पश्चात् क्षीरद्रुम, कदम्ब, आम, अभया, (हर्र) तथा अक्श (बहेड़ा) के छाल के जल के साथ, इसके पश्चात् त्रिफला (हर्र, बहेड़ा एवं आँवला ) के जल के साथ, तदनन्तर उड़द के पानी के साथ (कूटा जाता है) ॥९९॥

इसके पश्चात् कुङ्कड़, सीपियाँ एवं चूने में कूप का (अथवा गड्ढ़े का) जल मिला कर खुर से विधिवत् कुटाई करना चाहिये । पुनः इसको कपड़े से छानना चाहिये ॥१००॥

इस (तरल पदार्थ) से कल्क एवं चिक्कण को बुद्धिमान (स्थपति) को तैयार करना चाहिये । दही, दूध, उड़द का पानी, गुड़,घी, केला, नारियल का पानी एवं पके आम का रस- इन पदार्थों का उचित मात्रा में संयोजन कर शिल्पी लोग 'बुद्धोदक' तैयार करते है ॥१०१-१०२॥

प्रथमतः साफ पानी से (भित्ति आदि) स्थान को शुद्ध कर (साफ कर) पुनः बन्धोदक का लेप करना चाहिये । लेप के पश्चात् सुधा से लेप करके विभिन्न प्रकार के रूपों (चित्रों) आदि का निर्माण करना चाहिये ॥१०३॥

गोपान के ऊपर पकी मिट्टी के द्वारा निर्मित अथवा धातु-निर्मित लोष्ट (टाइल्स) से बुद्धिमान स्थपति को आच्छादन करना चाहिये ॥१०४॥

उसके ऊपर कराल, मुद्गी एवं गुल्माष को एक-एक अङ्गुल, कल्क को उसका आधा (आधा अङ्गुल) तथा चिक्कण को कल्क का आधा मोटा रखना चाहिये ॥१०५॥

जल वाले स्थान पर उपर्युक्त पदार्थो को पर्याप्त मोटा लगाना चाहिये । इन्हें बन्धोदक से गीला कर यदि छः मास के लिये छोड़ दिया जाय तो उत्तम परिणाम प्राप्त होता है (इससे ईंटो की जोड़ाई अत्यधिक द्रुढ़ होती है) । चार मास छोड़ने पर मध्यम एवं दो मास छोड़ने पर कम परिणाम प्राप्त होता है ॥१०६-१०७॥

लुपाओं के ऊपर ईंटों को बिछाना चाहिये एवं उसके ऊपर चूना डालना चाहिये । छत को प्रयत्नपूर्वक (पूर्वोक्त लेप से) घना आच्छादित करना चाहिये ॥१०८॥

देवताओं एवं ब्राह्मणों के सभी भवनों के भीतर एवं बाहर बुद्धिमान को व्यक्ति को चित्रों से युक्त करना चाहिये ॥१०९॥

विप्र आदि सभी वर्ण वालों के गृहों मे माङ्गलिक कथाओं से युक्त, श्रद्धा, नृत्य एवं नाटक आदि के चित्र बनाने चाहिये । ये चित्र गृहस्वामी को समृद्धि प्रदान करने वाले होते है ॥११०॥

युद्ध, मृत्यु, दुःख से युक्त देवासुर की कथा का चित्रण, नग्न, तपस्वियों की लीला तथा रोगियों-दुःखियों का अङ्कन नही करना चाहिये । अन्य लोगो के निवास स्थान में उनकी इच्छानुसार अङ्कन करना चाहिये ॥१११॥

(अच्छे सुबन्धन के लिये) पाँच भाग उड़द का पानी, नौ भाग गुड़, आठ भाग दही, दो भाग घी, सात भाग क्षीर, छः भाग चर्म, दश भाग त्रिफला, चार भाग नारियल का पानी, एक भाग शहद एवं तीन भाग केला होना चाहिये । इनमें दश भाग चूना मिलाने से सुबन्धन (अच्छा मसाला, लेप) प्राप्त होता है । इन सभी पदार्थों में गुड़, दही एवं दूध अधिक होना चाहिये ॥११२-११४॥

दो भाग चूना, कराल, मधु, घी, केला, नारियल, उड़द, शुक्ति (सीपी) का जल, दूध, दही, गुड़ एवं त्रिफला-इनसे प्राप्त चूर्ण में इनके सौवें भाग के बराबर चूना मिलाना चाहिये । इस विधि से तैयार बन्ध (ईंटों को जोड़ने का गारा) पत्थर के समान दृढ़ होता है - ऐसा तन्त्र के ज्ञाता ऋषियों का कथन है ॥११५॥

शिरोभाग की ईंट - अब देवों, ब्राह्मणों, क्षत्रियो एवं वैश्यों के भवन में मूर्ध्नेष्टका (भवन के ऊर्ध्व भाग में रक्खी जाने वाली इष्टका) रक्खी जानी चाहिये । इसे चार लक्षणों से युक्त होना चाहिये - ये चिकनी हो, भली-भाँति पकी हों, (ठोकने पर) इससे सुन्दर स्वर उत्पन्न हो तथा देखने में सुन्दर हों ॥११६-११७॥

ये ईंटे स्त्रीलिङ्ग अथवा पुल्लिङ्ग होनी चाहिये । ये टूटी न हों तथा छिद्र आदि से रहित हो । लम्बाई, चौड़ाई एवं मोटाई में ये प्रथम ईंटों (शिलान्यास की ईंटो) के समान होती है ॥११८॥

प्रस्तर से निर्मित भवन में शिला को सभी दोषों से रहित होना चाहिये । जन्म (नींव) से लेकर शिखर के अन्तिम बाग तक भवन जिस द्रव्य से निर्मित होता है, उसी द्रव्य (ईंटो अथवा शिलाओं) से निर्मित इष्टका को भवन के प्रारम्भ एवं अन्तिम भाग (शिखर) में भी स्थापित करना चाहिये । यह प्रशस्त होता है । मिश्रित द्रव्यों से निर्मित भवन में ऊपरी भाग में जो द्रव्य ऊपर स्थित हो, उसी द्रव्य का विन्यास भवन के ऊपरी भाग में करना चाहिये । यह रहस्य (ऋषियों द्वारा) कहा गया है । ॥११९-१२०॥

स्थूपिकाकील

स्तूपिका की कील - स्थूपिका (स्तूपिका) की कील धातुनिर्मित या काष्ठनिर्मित होनी चाहिये ॥१२१॥

कील की चौड़ाई ऊर्ध्व भाग एवं अधोभाग में समान होनी चाहिये । इसकी लम्बाई (ऊपरी मञ्जिल के) स्तम्भ के बराबर होनी चाहिये तथा अग्र भाग (ऊपरी भाग का अन्तिम भाग) एक अङ्गुल चौड़ा एवं नीचे की अपेक्षा पतला होना चाहिये ॥१२२॥

कील के नीचे का एक-तिहाई भाग चौकोर होना चाहिये तथा उसके ऊपर गोलाकार होना चाहिये । इसके निचले भाग में मोर के पैर की आकृति होनी चाहिये । ॥१२३॥

इसकी लम्बाई चौड़ाई की तीन गुनी होनी चाहिये एवं चौड़ाई ऊपरी स्तम्भ के बराबर होनी चाहिये । यह भूमि पर दृढ़तापूर्वक टिका रहे एवं इसे पञ्चमूर्तियों से युक्त होना चाहिये ॥१२४॥

अथवा स्तूपिका-कील की लम्बाई भवन की शिखा की लम्बाई से दुगुनी तथा चौड़ाई स्तम्भ के व्यास की आधी, तीसरे अथवा चौथे भाग के बराबर होनी चाहिये । ॥१२५॥

यदि कील के अग्र भाग का व्यास आधा अङ्गुल हो तो मयूर-पाद बल की आवश्यकता के अनुसार रखना चाहिये । शिखर की आकृति के अनुसार कील की आकृति अथवा लिङ्ग की आकृति का स्तूपिक-कील निर्मित होना चाहिये । इस प्रकार तीन प्रकार के स्तूपिका-कील वर्णन विद्वानों ने किया है ॥१२६॥

मूर्ध्नेष्टकादिस्थापन

मुर्ध्नेष्टका आदि की स्थापना - गृह के उत्तरी भाग में मण्डप को स्वच्छ करके, चार दीपों से युक्त, वस्त्रों से आच्छादित करके सभी मंगल पदार्थों से युक्त करना चाहिये । शुद्ध शालिधान्य को बिछा कर स्थण्डिल वास्तुमण्डल अथवा मण्डूक वास्तुमण्डल निर्मित करना चाहिये । इसके पश्चात् वास्तुमण्डल में ब्रह्मा आदि देवों का विन्यास कर उनको श्वेत तण्डुल (अक्षत) समर्पित करना चाहिये ॥१२७-१२९॥

गन्ध तथा पुष्प आदि से गृह-देवता की पूजा एवं स्तवन करना चाहिये । देवताओं को उनके नाम से विधिपूर्वक बलि प्रदान करनी चाहिये ॥१३०॥

स्थपति को पच्चीस सुन्दर लक्षणों वाले कलश स्थापित करने चाहिये । इन कलशों में सुगन्धित जल भरना चाहिये तथा पाँच रत्नों को डालना चाहिये । सूत्र, वस्त्र, कूर्च तथा स्वर्ण से युक्त करके इन कलशों को ढँक देना चाहिये । उपपीठ संज्ञक वास्तुमण्डल में देवों को उनके नाम से आहूत कर 'ॐ से प्रारम्भ कर 'नमः' से अन्त करते हुये उन देवों की गन्ध आदि से क्रमशः पूजा करनी चाहिये ॥१३१-१३२॥

इष्टकाओं एवं कील को पञ्चगव्य से, नवरत्नों एवं कुशा के जल से प्रक्षालित करके क्रमशः सूत्रों से लपेटना चाहिये । प्रत्येक कुम्भ के दाहिने भाग में शुद्ध शालिधान्य के द्वारा निर्मितस्थण्डिल वास्तुमण्डल में ॥१३३-१३४॥

वास्तुदेवों की पूजा गन्ध एवं पुष्पों से करके एवं उन्हे विधि के अनुसार बलि प्रदान कर ईंटो एवं कीलों को शुभ वस्त्र से लपेटना चाहिये ॥१३५॥

श्वेत वस्त्र के आस्तरण (चादर, बिछा वस्त्र) के ऊपर बिछे हुये पवित्र कुश पर इष्टका एवं कीलों को रखना चाहिये । स्थपति को अच्छा वेष, श्वेत पुष्पों की माला, श्वेत (चन्दन) का लेप, श्वेत वस्त्र के उत्तरीय को ऊपर ओढ़ कर तथा सुवर्णनिमित अंगूठी धारण कर शुद्ध जल पीना चाहिये तथा रात्रि में उपवास रखते हुये वहीं निवास करना चाहिये ॥१३६-१३७॥

स्थपति को (रात्रि में ) कलश के उत्तरी भाग में श्वेत वस्त्र के बिस्तर (अथवा चादर, बिछावन) पर रहना चाहिये । इसके पश्चात् प्रभात वेला में शुद्ध नक्षत्र एवं करण में, सुन्दर मुहूर्त एवं शुभ लग्न में स्थपति को स्थापक (भवन-स्वामी) के साथ पुष्प, कुण्डल, हार, कटक (हाथ के आभूषण) एवं अंगूठी- इन पाँच अंगों के सुवर्ण निर्मित आभूषणों से अलङ्‌कृत होकर सुवर्ण-निर्मित जनेऊ तथा नवीन वस्त्र का परिच्छद (ओढ़ने का वस्त्र) धारण करना चाहिये । श्वेत लेप तथा सिर पर सफेद पुष्प धारण करना चाहिये एवं पवित्र होना चाहिये ॥१३८-१४०॥

(पवित्र तन एवं मन से) दिशाओं के गजों, समुद्रों एवं पर्वतों से युक्त तथा अनन्त सर्प पर स्थित पृथिवी का ध्यान करते हुये सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय के आधार, भुवनों के अधिपति देवता का जप (स्तुति) करना चाहिये ॥१४१-१४२॥

पूर्ववर्णित कलशों के जलों से इष्टका एवं कील को स्नान कराकर गन्ध, पुष्प, धूप एवं दीप से वास्तुदेवों की पूजा करनी चाहिये ॥१४३॥

नियमानुसार वास्तुदेवों को बलि प्रदान कर जय आदि मङ्गल शब्दों, ब्राह्मणो द्वारा किये जा रहे वेदपाठ एवं शङ्ख तथा भेरी आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ मुर्ध्नेष्टका को क्रमानुसार पूर्व से दक्षिण क्रम में स्थापित करना चाहिये । इसे विमान (भवन) के शिखर के अर्ध भाग में अथवा गग्र एवं पत्र के मध्य में स्थापित करना चाहिये । ॥१४४-१४५॥

शिखर के तीसरे अथवा चौथे भाग के अन्त तक, पद्म के नीचे से, स्थूपिका (स्तूपिका) की लम्बाई से कील की लम्बाई ग्रहण करनी चाहिये ॥१४६॥

इष्टका के स्थान को पहले ही छिद्ररहित एवं दृढ़ करना चाहिये; साथ ही उसके मध्य में नवरत्नों को क्रमानुसार रखना चाहिये ॥१४७॥

इन्द्र के पद पर मरकत मणि, अग्नि के पद पर वैदूर्य मणि, यम के स्थान पर इन्द्रनील मणि एवं पितृपद पर मोती स्थापित करना चाहिये ॥१४८॥

वरुण के स्थान पर स्फटिक, वायु के स्थान पर महानील मणि, सोम के पद पर वज्र (हीरा) तथा ईशान में प्रवाल (मूँगा) स्थापित करना चाहिये ॥१४९॥

मध्य भाग में माणिक्य, सोना, रस (धातुर्निमित अन्न के दाने), उपरस (रंगे हुये पदार्थ), बीज, धान्य (अन्न) एव औषध (जड़ी) डालना चाहिये ॥१५०॥

उसके ऊपर बराबर एवं स्थिर करते हुये स्तूपिका-कील स्थापित करना चाहिये । इससे निचली भूमि तक उत्तर दिशा में महाध्वज स्थापित होता है ॥१५१॥

इसे रेशमी वस्त्र अथवा सूती वस्त्र से निर्मित सुन्दर (ध्वज) ईशान कोण में लटकाना चाहिये । यदि यह ईशान कोण की भूमि को छूता है तो वह भवन सभी (वर्णों) के प्राणियों के लिये सम्पत्ति एवं समृद्धिदायक होता है ॥१५२॥

भवन के स्थूपिकील (स्तूपिका-कील) को श्वेत वस्त्रों से लपेट कर चारो दिशाओं में बछड़ो के साथ चार गायें रखनी चाहिये । द्वार को नये रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजाना चाहिये ॥१५३-१५४॥

दक्षिणादान

दान-दक्षिणा - यजमान (गृहस्वामी) को शुद्ध मन-मस्तिष्क से गुरु (प्रधान आचार्य), विमान (भवन या मन्दिर), स्थूपिका (स्तूपिका, स्तम्भ, द्वार एवं सज्जा को प्रणाम कर प्रसन्न भाव से स्थपति को वस्त्र, धन, अन्न एवं बछड़े सहित पशु (गाय) प्रदान करना चाहिये एवं शेष (उसके सहायकों) को भक्तिपूर्वक (धनादि द्वारा) तृप्त करना चाहिये ॥१५५-१५६॥

रत्नादिस्थान

रत्न आदि का स्थान - इस प्रकार प्रासादों के शिरोभाग में, भवन के शिलान्यास से जुड़े भित्तियों में, प्रत्येक तल के बीच मेम,मण्डप में, मध्य भाग मे, सभागार आदि में, शिखर पर स्थित पद्म के नीचे एवं गोपुर द्वारों के शीर्ष भाग में प्रासाद के सदृश रत्नादि स्थापित करना चाहिये - ऐसा श्रेष्ठ मुनियों का वचन है ॥१५७-१५८॥

कर्मसमाप्ति

कार्य की समाप्ति - इस प्रकार भवन-निर्माण के प्रारम्भ में एवं अन्त में विधिपूर्वक सभी क्रियायें सम्पन्न करने से गृह में सम्पदा आती है ॥१५९॥

गृहस्वामी के द्वरा विधिपूर्वक किया गया कर्म श्री, सौभाग्य, आयु एवं धन प्रदान करता है । गृहस्वामी के अभाव में उसका पुत्र अथवा शिष्य उसकी आकृति को वस्त्र पर रेखाङ्कित कर उसके (वस्त्र पर अंकित चित्र के) द्वारा सभी कार्यो को सम्पन्न करे । अन्य व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य यदि शीघ्रता अथवा अज्ञानतावश सही रीति से नहीं होता है तो गृहस्वामी को विपरीत परिणाम प्राप्त होता है ॥१६०-१६१॥

गृहकर्ता जिस विधि से कार्य का प्रारम्भ करे, उसी विधि से कार्य करते हुये समापन करना चाहिये । यदि बीच में अन्य विधि का अनुसरण किया जाय तो गृहस्वामी का अशुभ होता है ॥१६२॥

इस प्रकार अलङ्कारों से युक्त ग्रीवा, पद्म की आकृति, मल्लों का प्रमाण एवं शीर्ष-स्थान के अलङ्करण का निर्माण करना चाहिये । उचित रीति से कराल आदि से बन्ध (ईंटो का जोड़ने का गारा) बनाकर ऊर्ध्व भाग में भली-भाँति ईंटो को जोड़ना चाहिये ॥१६३॥

स्थूपिकीलवृक्षा

स्तूपिका-कील के वृक्ष - स्थूपिकील के लिये प्रसिद्ध वृक्ष कत्था, चीड़, साल, स्तबक, अशोक, कटहल, तिमिस, नीम, सप्तवर्ण - ये सभी वृक्ष तथा परुष, वकुल, वहिन (अगरु), क्षीरिणी (सनोवर का वृक्ष) आदि वृक्ष एवं इस प्रकार के अन्य सुदृढ़्म दोषहीन एवं ठोस वृक्ष उपयुक्त होते है ॥१६४॥

भवन के सम्पूर्ण हो जाने पर यजमान, गुरु एवं वर्धकि (बढ़ई) को शुभ उत्तरायण नक्षत्र एवं पक्ष में जलसम्प्रोक्षण कर्म का प्रारम्भ करना चाहिये ॥१६५॥

अधिवासमण्डप

नवीं, सातवीं, तीसरी एवं पाँचवी रात्रि में विधिपूर्वक अङ्कुरार्पण कर्म करना चाहिये । भवन के उत्तर-पूर्व भाग में स्वधिवास-योग्य मण्डप बनाना चाहिये ॥१६६॥

इस मण्डप को चौकोर, नौ, सात, या पाँच हस्तमाप का एवं आठ स्तम्भों से युक्त निर्मित करना चाहिये तथा नवीन वस्त्रों से सजाना चाहिये । अन्दर वितान को सुन्दर वस्त्र से तथा श्वेत पुष्पों से सजा कर मण्डप को मनोहर बनाना चाहिये ॥१६७॥

उसके मध्य भाग में शालिधान्य से एक दण्ड प्रमाण का स्थण्डिल वास्तुमण्डल निर्मित करना चाहिये ॥१६८॥

चौसठ पद बनाकर श्वेत चावल से ब्रह्मा आदि वास्तुदेवताओ को क्रमानुसार स्थापित कर तथा पुष्प-गन्ध-धूप-दीप आदि से उनकी पूजा कर उनेहं विधिपूर्वक बलि प्रदान करनी चाहिये । इसके ऊपर वस्त्रों से सुशोभित पच्चीस कलश रखना चाहिये । ॥१६९-१७०॥

इन कलशों को रत्नों, सुवर्ण, सूत्रों एवं ढक्कनों से युक्त करना चाहिये । ये कलश दोषरहित, छिद्ररहित एवं हाटक-जल (सुनहरा, पीला जल) अथवा धतूरायुक्त जल से भरे होने चाहिये । उपपीठ वास्तुमण्डल पर रक्खे गये प्रत्येक घट को उस-उस वास्तुदेवता (जिसके पद पर कलश हो) का नाम लेते हुये ओंकार से प्रारम्भ कर नमः से अन्त करते हुये वास्तुदेवता की पुजा (आवाहन करते हुये) करनी चाहिये । ॥१७१-१७२॥

पवित्र मन एवं आत्मा वाले, व्रत में स्थित स्थपति को शुद्ध जल पीकर उपवास रखते हुये कलश के उत्तरी भाग में कुश के बिस्तर पर, जिसके चतुर्दिक चार दीपक जल रहे हों एवं जो माङ्गलिक पदार्थों से सुशोभित हो, रात्रि में निवास करना चाहिये ॥१७३-१७४॥

मन्दिर के अग्र भाग में विधिपूर्वक चार तोरणों से सुसज्जित, चार द्वारों से युक्त याग-मण्डप निर्मित करना चाहिये । इस यागमण्डप को वस्त्रों, कुशमालाओं एवं पुष्पों से अलङ्‌कृत करना चाहिये । इसके मध्य भाग में याग-मण्डप के विस्तार के तीसरे भाग के माप से वेदिका का निर्माण करना चाहिये ॥१७५-१७६॥

चारो दिशाओं में चौकोर तथा दिक्कोणों में पीपल के पत्ते के सदृश कुण्ड निर्मित करना चाहिये । इन्द्र एवं ईशकोण के मध्य अष्टकोण का तीन मेखला अथवा एक मेखल से युक्त कुण्ड निर्मित करना चाहिये ॥१७७॥

कुम्भस्थापन

कुम्भ की स्थापना - स्थापक को मूर्तिरक्षक के साथ विधिपूर्वक हवन करना चाहिये । शालिधान्य द्वारा वेदि के मध्य में स्थण्डिल वास्तुमण्डल निर्मित कर बुद्धिमान व्यक्ति को बीज-मन्त्र का स्मरण करते हुये सम्यक्‍ रीति से मूर्तिकुम्भ का न्यास करना चाहिये ॥१७८-१७९॥

प्रासाद के चारो दिशाओं में वृत्ताकार कुण्ड में स्थापक को विधिपूर्वक अग्नि स्थापित करनी चाहिये ॥१८०॥

विमान (मन्दिर) को जन्म (प्रारम्भ) से लेकर स्थूपिकापर्यन्त वस्त्रों से आवृत्त करना चाहिये । स्थूपिकील को कुशा से युक्त नवीन वस्त्र से सुसज्जित करना चाहिये । ॥१८१॥

स्थापक को बलि का अन्न, खीर, यव (जौ) से पका अन्न, खिचड़ी, गुड़ एवं शुद्ध अन्न (चावल), पीला, काला एवं लाल (रंग में रंगा चावल)- ये सभी सामग्री सुवर्ण-पात्र में लेकर वास्तु-देवता के आगे रखकर दही, दूध, घी, शहद, रत्न, पुष्प, अक्षत एवं जल तथा केला से युक्त पात्र लेकर अन्य शिल्पियों के साथ रात्रि में इन पदार्यों के द्वारा वास्तुदेवता को बलि प्रदान करनी चाहिये ॥१८२-१८४॥

चक्षुर्मोक्षण

आँख खोलना - इसके पश्चात् प्रातःकाल शुभ नक्षत्र एवं करण से युक्त वेला में स्थपति को सुन्दर वेष धारण कर, पाँचों अंगों में आभूषण धारण कर, सुवर्ण-निर्मित जनेऊ तथा श्वेत (चन्दन) का लेप धारण कर, शिर पर श्वेत पुष्प से युक्त पगड़ी तथा कोरे वस्त्र को पहन कर दिशा-मूर्तियों एवं अन्य (मुर्तियों) की ओर चक्षुर्मोक्षण (आँख खोलने का कृत्य) करना चाहिये एवं इन मूर्तियों को गन्ध एवं पुष्प से युक्त कलश के जल से स्नान कराना चाहिये ॥१८५-१८७॥

प्रथमतः सोने की सुई से नेत्र-मण्डल की आकृति बना कर (तदनन्तर) तीक्ष्ण शस्त्र से तीन (नेत्र) मण्डल निर्मित करना चाहिये ॥१८८॥

ब्राह्मणों के लिये नवीन वस्त्र से अन्न के ढेर को ढँक कर बछड़े सहित गाय एवं कन्या को क्रमशः दिखाना चाहिये ॥१८९॥

सम्प्रोक्षण

सम्प्रोक्षण कार्य - इसके पश्चात स्थापक की आज्ञा से शङ्ख, काहल (पीट कर बजाया जाने वाला वाद्य) तथा तूर्य आदि वाद्यों के स्वर एवं (ब्राह्मणों द्वारा किये जाने वाले) स्वस्ति-पाठ के साथ स्थपति को मन्दिर पर चढ़ाकर स्तूपिका से प्रारम्भ कर भूमि तक चारो दिशाओं में रेशमी अथवा सूती वस्त्र से निर्मित एवं नर (की आकृति से युक्त) ध्वज को लटकाना चाहिये ॥१९०-१९१॥

बुद्धिमान स्थपति को चन्दन एवं अगरु के जल से, सभी गन्धों से युक्त जल से, कलश के जल से एवं कुश के जल से ऊपर से चारो ओर प्रोक्षण करना चाहिये एवं संसार के स्वामी की स्तुति करनी चाहिये ॥१९२॥

स्थूपिकुम्भ

देवालयों में स्थूपिकुम्भ सुवर्ण, ताँबा, चाँदी, प्रस्तर, ईंट अथवा सुधा-इन पाँच पदार्थो के मिश्रण से निर्मित करना चाहिये । इसे कील के समान रखना चाहिये । ॥१९३-१९४॥

इसे स्थिर करते हुये स्थापित करके सुगन्धित जल से इसका प्रोक्षण करना चाहिये । विमान (देवालय) से उतरने के पश्चात गर्भगृह एवं मण्डप का प्रोक्षण करना चाहिये तथा सम्मुख खड़े होकर वास्तुदेव को प्रणाम कर इस प्रकार कहना चाहिये । ॥१९५॥

(हे ईश्वर) इस भवन की गिरने से, जल के प्रकोप से, (गजादि पशुओं के) दाँत से गिरने से, वायु के प्रकोप से, अग्नि द्वाराजलने से एवं चोरों से रक्षा कीजिये और मेरा कल्याण किजिये ॥१९६॥

रोगरहित, प्रसन्नता, धनय्क्त, कीति का विस्तार करने वाली, बड़े चमत्कारो से एवं बल से युक्त, विना उपद्रव के निरन्तर कर्म से युक्त यह पृथिवी चिरकाल तक धर्मपूर्वक रहे ॥१९७॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सभी देवता, क्षोणी (पृथिवी), लक्ष्मी, वाग्वधू (सरस्वती), सिंहकेतु, ज्येष्ठा, विश्वदेव तथा देवियाँ प्रजाजनों को श्री, सौभाग्य, आरोग्य एवं भोग प्रदान करें ॥१९८॥

इस प्रकार कहने के पश्चात् स्थपति का कार्य पूर्ण हो जाता है । इसके पश्चात् स्थापक को विधि-पूर्वक यज्ञ आदि कार्य से तथा घट के जल, पञ्चगव्य एवं कुश के जल से प्रोक्षण कर (विमान को) शुद्ध करना चाहिये ॥१९९-२००॥

स्थापक को गन्ध एवं पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिये तथा नैवेद्य प्रदान करना चाहिये; साथ ही देवालय के प्रधान देवता को निमित्त बना कर प्रासाद के बीज-मन्त्र का न्यास करना चाहिये ॥२०१॥

दक्षिणादान

दक्षिणा एवं दान - प्रसन-मति यजमान द्वालय के सम्मुख खड़े होकर स्थपति के सम्पूर्ण धर्म (उत्तरदायित्व) को, जो उसके ऊपर कष्ट के साथ थे, उन सबको प्रसन्न भाव से स्थापक की आज्ञा से ग्रहण करे एवं शक्ति के अनुसार स्थापक एवं स्थपति का सत्कार करे ॥२०२-२०३॥

अपने पुत्र, भाई एवं पत्नी के साथ यजमान धन, अन्न, पशु, वस्त्र, वाहन तथा भूमि के दान से एवं सोने तथा सुन्दर वस्त्रों से शेष तक्षक आदि सभी शिल्पियों को भी सन्तुष्ट करे ॥२०४-२०५॥

विमान, स्थूपिका (स्तूपिका), स्तम्भ एं मण्डप को अलङ्करणोम से युक्त, वस्त्रादि, ध्वज एवं गाय को प्रसन्न भाव से स्थपति को देना चाहिये ॥२०६॥

सम्प्रोक्षणावश्यकता

सम्प्रोक्षण की आवश्यकता - इस प्रकार से निर्मित वास्तु युगों तक नित्य वृद्धि को प्राप्त होता है । यजमान को इस लोक एवं परलोक में स्थिर फल भली भाँति प्राप्त होता है ॥२०७॥

यदि वास्तु-कृत्य अन्य विधि से होता है तो वह वास्तु फलदायी नही होता है । उस भवन में भूत, प्रेत, पिशाच एवं राक्षस निवास करते है । इसलिये प्रासाद निर्मित हो जाने पर सब प्रकार से प्रोक्षण कर्म अवश्य करना चाहिये ॥२०८॥

मण्डप में, सभा में, रङ्गमण्डप में, विहारशाला में, हेमगर्भ के सभागार में, तुलाभारकूट में, विश्वकोष्ठ में, प्रपा (जल का प्याऊ) में, धान्यगृह में तथा रसोई में विधिपूर्वक वास्तुदेव को बलिप्रदान कर पवित्र चित्त एवं आत्मा से पाँच अङ्गो में आभूषण धारण कर, नवीन वस्त्र पहन कर तथा नवीन उत्तरीय (ऊपर ओढ़ने का चादर) धारण कर सभी प्रकार के मङ्गल-स्वर के साथ जलसम्प्रोक्षण कर्म सम्पन्न करना चाहिये ॥२०९-२१२॥

सम्प्रोक्षणकाल

सम्प्रोक्षण का समय - यदि सम्प्रोक्षण-कर्म उत्तरायण मासों में किया जाय तो अति उत्तम होता है । इदि शीघ्रता हो तो दक्षिणायन मासों में भी करना चाहिये ॥२१३॥

कर्ता प्रासाद के पूरीतरह पूर्ण हो जाने पर तीन रात्रि, एक रात्रि अथवा उसी दिन वहाँ अधिवास करे तो वह महान फल प्राप्त होता है ॥२१४॥

देवालय मे एक, तीन या पाँच देवतामूर्ति हो तो एक, तीन या पाँच कलशों में मन्त्रसहित उनके नीचे सुवर्ण के साथ रत्नन को देखकर विधिपूर्वक कलशों का न्यास करना चाहिये ॥२१५॥

इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक भवन का निर्माण पूर्ण होता है तो गृहस्वामी, उसके परिवार, उसके परिजन एवं उसके गायों के वंश की वृद्धि होती है । इसके विपरीत वास्तुकार्य सम्पन्न होने पर एवं वास्तुदेवता के बलि से रहित होने पर वह निर्मित भवन अनर्थकारी होता है ॥२१६॥

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Last Updated : January 20, 2012

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