भजन - यारो, सुनो ये दधिके ...

हरिभक्त कवियोंकी भक्तिपूर्ण रचनाओंसे जगत्‌को सुख-शांती एवं आनंदकी प्राप्ति होती है।


यारो, सुनो ये दधिके लुटैयाका बालपन,

औ मधुपुरी नगरके बसैयाका बालपन ।

मोहन सरूप नृत्य-करैयाका बालपन,

बन-बनके ग्वाल गौवें चरैयाका बालपन ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१॥

बाले थे बिर्जराज, जो दुनियाँमें आ गये,

छीलाके लाख रंग तमासे दिखा गये ।

इस बालपनके रूपमें कितनोंको भा गये,

एक यह भी लहर थी जो जहाँको जता गये ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥२॥

परदा न बालपनका वो करते अगर जरा,

क्या ताब थी जो कोई नजर भरके देखता ।

झाड़ औ पहाड़ देते सभी अपना सर झुका,

पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥३॥

अब घुटनियोंका उनके मैं चलना बयाँ करूँ ?

या मीठी बातें मुँहसे निकलना बयाँ करूँ ?

या बालकोंमें इस तरह पलना बयाँ करूँ ?

या गोदियोमें उनका मचलना बयाँ करूँ ?

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥४॥

पाटी पकड़के चलने लगे जब मदनगोपाल,

धरती तमाम हो गयी एक आनमें निहाल ।

बासुकि चरन छुअनको चले छोड़के पताल,

आकासपर भी धूम मची देख उनकी चाल ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥५॥

करने लगे ये धूम जो गिरधारी नंदलाल,

इक आप और दूसरे साथ उनके ग्वाल-बाल ।

माखन दही चुराने लगे सबके देखभाल,

दी अपनी दूध चोरीकी घर-घरमें धूम डाल ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥६॥

कोठेमें होवे फिर तो उसीको ढँढोरना,

मटका हो तो उसीमें भी जा मुखको बोरना ।

ऊँचा हो तो भी कंधेपै चढ़के न छोड़ना,

पहुँचा न हाथ तो उसे मुरलीसे फोड़ना ।

ऐसा था, बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥७॥

गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहाँ,

औ उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले वाँ ।

मैं तो तेरे दहीकी उड़ाता था मक्खियाँ,

खाता नही मैं उसको निकाले था चीटियाँ ।

ऐसा था बासुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥८॥

गुस्सेमें कोई हाथ पकड़ती जो आनकर,

तो उसको वह स्वरूप दिखाते थे मुर्लीधर ।

जो आपी लाके धरती वो माखन कटोरीभर,

गुस्सा वो उसका आनमें जाता वहाँ उतर ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥९॥

उनको तो देख ग्वालिनें जो जान पाती थीं,

घरमें इसी बहानेसे उनको बुलाती थीं ।

जाहिरमें उनके हाथसे वे गुल मचाती थीं,

परदे सबी वो कृष्णकी बलिहारी जाती थी ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१०॥

कहती थी दिलमें, दूध जो अब हम छिपायेंगे,

श्रीकृष्ण इसी बहाने हमें मुँह दिखायँगे ।

और जो हमारे घरमें ये माखन न पायँगे,

तो उनको क्या गरज है वो काहेको आयँगे ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥११॥

सब मिल जसोदा पास यह कहती थी आके बीर,

अब तो तुम्हारा कान्हा हुआ है बड़ा शरीर ।

देता है हमको गालियाँ, औ फाड़ता है चीर,

छोड़े दही न दूध, न माखन मही न खीर ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१२॥

माता जसोदा उनकी बहुत करती मिंतियाँ,

औ कान्हको डरातीं उठा मनकी साँटियाँ ।

तब कान्हजी जसोदासे करते यही बयाँ,

तुम सच न मानो मैया ये सारी हैं झूठियाँ ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१३॥

माता, कभी ये मुझको पकड़कर ले जाती है,

औ गाने अपने साथ मुझे भी गवाती है ।

सब नाचती है आप मुझे भी नचाती है,

आपी तुम्हारे पास ये फरियादी आती है ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१४॥

मैया, कभी ये मेरी छगुलिया छिपाती है,

जाता हूँ राहमें तो मुझे छेड़े जाती है ।

आपी मुझे रुठाती है आपी मनाती है,

मारो इन्हे ये मुझको बहुत-सा सताती है ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१५॥

इक रोज मुँहमें कान्हने माखन छिपा लिया,

पूछा जसोदाने तो वहाँ मुँह बना दिया ।

मुँह खोल तीन लोकका आलम दिखा दिया,

इक आनमें दिखा दिया और फिर भुला दिया ॥

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१६॥

ये कान्हजी तो नंद-जसोदाके घरके माह,

मोहन नवलकिशोरकी थी सबके दिलमें चाह ।

उनको जो देखता था, सो करता था वाह वाह,

ऐसा तो बालपन न किसीका हुआ है आह ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१७॥

राधारमनके यारो अजब जाये गौर थे,

लड़कोंमें वो कहाँ हैं जो कुछ उनमें तौर थे ।

आपी वो प्रभु नाथ थे आपी वो दौर थे,

उनको तो बालपनहीमें तेवर कुछ और थे ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१८॥

होता है यों तो बालपन हर तिफ्लका भला,

पर उनके बालपनमें तो कुच औरी भेद था ।

इस भेदीकी भला जो किसीको खबर है क्या,

क्या जाने अपनी खेलने आये थे क्या कला ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥१९॥

सब मिलके यारो, कृष्णमुरारीकी बोलो जै,

गोबिंद-कुंज-छैल-बिहारीकी बोलो जै ।

दधिचोर गोपीनाथ, बिहारीकी बोलो जै,

तुम भी 'नजीर' कृष्णमुरारीकी बोलो जै ।

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

ऐसा था बाँसुरीके बजैयाका बालपन,

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैयाका बालपन ॥२०॥

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Last Updated : December 25, 2007

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