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संतो कहा गृहस्थ कहा त्याग...

भजन - संतो कहा गृहस्थ कहा त्याग...

हरिभक्त कवियोंकी भक्तिपूर्ण रचनाओंसे जगत्‌को सुख-शांती एवं आनंदकी प्राप्ति होती है।


संतो कहा गृहस्थ कहा त्यागी ।

जेहि देखूँ तेहि बाहर-भीतर, घट-घट माया लागी ॥

माटीकी भीत, पवनका थंभा, गुन औगुनसे छाया;

पाँच तत्त आकार मिलाकर, सहजैं गिरह बनाया ॥

मन भयो पिता, मनसा भई माई, दुख-दुख दोनों भाई;

आसा-तृस्ना बहनें मिलकर, गृहकी सौंज बनाई ॥

मोह भयो पुरुष, कुबुद्धि भई घरनी, पाँचों लड़का जाया;

प्रकृति अनंत कुटुम्बी मिलकर कलहल बहुत मचाया ॥

लड़कोंके सँग लड़की जाई, ताका नाम अधीरी;

बनमें बैठी घर-घर डोलै, स्वारथ-संग खपी री ॥

पाप-पुण्य दोउ पाद-पड़ोसी, अनँत बासना नाती;

राग-द्वेषका बंधन लागा, गिरह बना उतपाती ॥

कोइ गृह माँड़ि गिरहमें बैठा, बैरागि बन बासा;

जन 'दरिया' इक राम भजन बिन घट-घटमें घर बासा ॥

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Last Updated : December 25, 2007

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