संक्रान्तिव्रत - संक्रान्ति बहुसम्मत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


संक्रान्ति बहुसम्मत

सूर्य जिस राशिपर स्थित हो, उसे छोड़कर जब दूसरी राशिमें प्रवेश करे, उस समयका नाम संक्रान्ति है । ऐसी बारह संक्रान्तियोंमें मकरादि छः और कर्कादि छः राशियोंके भोगकालमें क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन - ये दो अयन होते हैं । इनके अतिरिक्त मेष और तुलाकी संक्रान्तिकी ' विषुवत् ', वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भकी ' विष्णुपदी ' और मिथुन, कन्या, धनु एवं मीनकी ' षडशीत्यानन ' संज्ञा होती है । अयन या संक्रान्तिके समय व्रत - दान या जपादि करनेके विषयमें ' हेमाद्रि ' १ के मतसे संक्रमण होनेके समयसे पहले और पीछेकी १५ - १५ घड़ियाँ, ' बृहस्पति ' २ के मतसे दक्षिणायनके पहले और उतरायणके पीछेकी २० - २० घड़ियाँ और ' देवल ' ३ के मतसे पहले और पीछेकी ३० - ३० घड़ियाँ पुण्यकालकी होते हैं । इनमें ' वसिष्ठ ' के मतसे ४ ' विषुव ' के मध्यकी, विष्णुपदी और दक्षिणायनके पहलेकी तथा षडशीतिमुख और उतरायणके पीछेकी उपर्युक्त घड़ियाँ पुण्यकालकी होती हैं । वैसे सामान्य ५ मतसे सबी संक्रान्तियोंकी १६ -१६ घड़ियाँ अधिक फलदायक हैं । यह विशेषता है कि दिनमें संक्रान्ति ६ हो तो पूरा दिन, अर्धरात्रिसे पहले हो तो उस दिनका उतरार्ध, अर्धरात्रिसे पीछे हो तो आनेवाले दिनका पूर्वार्ध, ठीक अर्धरात्रिमें ७ हो तो पहले और पीछेके तीन - तीन प्रहर और उस समय अयनका भी परिवर्तन हो तो तीन - तीन दिन पुण्यकालके होते हैं । उस समय दान देनेमें भी यह विशेषता है कि अयन अथवा १ संक्रमण - समयका दान उनके आदिमें और दोनों ग्रहण तथा षडशीतिमुखके निमित्तका दान अन्तमें देना चाहिये ।

१. रवेः संक्रमणं राशौ संक्रान्तिरिति कथ्यते । ( नागरखण्ड )

२. मकरकर्कटसंक्रान्तिक्रमेणोत्तरायणं दक्षिणायनं स्यात् । ( मुक्तकसंग्रह )

३. अयने द्वे विषुवती चतस्त्रः षडशीतयः ।

चतस्त्रो विष्णुपद्यश्च संक्रान्त्यो द्वादश स्मृताः ॥ ( वसिष्ठ )

४. अधः पञ्चदश ऊर्ध्व च पञ्चदशेति । ( हेमाद्रि )

५. दक्षिणायने विंशतिः पूर्वा मकरे विंशतिः परा । ( बृहस्पति )

६. संक्रान्तिसमयः सूक्ष्मो दुर्ज्ञेयः पिशितेक्षणैः ।

तद्योगाच्चाप्यधश्चोर्ध्वं त्रिंशन्नाड्यः पवित्रिताः ॥ ( देवल )

७. मध्ये तु विषुवे पुण्यं प्राग्विष्णौ दक्षिणायने ।

षडशीतिमुखेऽतीते अतीते चोत्तरायणे ॥ ( वसिष्ठ )

८. अर्वाक् षोडश विज्ञेया नाड्यः पश्चाश्च षोडश ।

कालः पुण्योऽर्कसंक्रान्तेः ...........॥ ( शातातप )

९. अह्नि संक्रमणे पुण्यमहः सर्वं प्रकीर्तितम् ।

रात्रौ संक्रमणे पुण्यं दिनार्धं स्त्रानदानयोः ॥

अर्धरात्रादधस्तस्मिन् मध्याह्नस्योपरि क्रिया ।

ऊर्ध्वं संक्रमणे चोर्ध्वमुदयात्प्रहरद्वयम् ॥ ( वसिष्ठ )

१०. पूर्णे चैवार्धरात्रे तु यदा संक्रमते रविः ।

तदा दिनत्रयं पुण्यं मुक्त्वा मकरकर्कटौ ॥ ( ज्योतिर्वसिष्ठ )

११. अयनादौ सदा देयं द्रव्यमिष्टं गृहेषु यत् ।

षडशीतिमुखे चैवं विमोक्षे चन्द्रसूर्ययोः ॥ ( संक्रान्तिकृत्य )

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Last Updated : January 02, 2002

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