दत्तगीता - चतुर्थोध्यायः

गीता म्हणजे प्राचीन ऋषी मुनींनी रचलेली विश्व कल्याणकारी मार्गदर्शक तत्त्वे.
Gita has the essence of Hinduism, Hindu philosophy and a guide to peaceful life and ever lasting world peace.


श्रीगणेशाय नमः ॥
ॐकार इति खलु गगनसमो नपरापरसा रविसार इति ॥ अविशाल - विशालनिराकरणम् कथमक्षरबिंदुसमुच्चरणम् ॥१॥
इह ‘ तत्त्वमसि ’ प्रभृतिभिः श्रुतिभिः प्रतिपादितमात्मनि तत्त्वमसि ॥ त्वमुपाधिविवर्जितसर्वसमं किमु रोदसि मानस सर्वसमम् ॥२॥
अधऊर्ध्वविवर्जितसर्वसमं कंकुभादिविवर्जितसर्वसमम् ॥ यदि चैकनिरंतरसर्वसमं किमु रोदसि मानस सर्वसमम् ॥३॥
नहि कल्पितभाव - विभाव - रतिर्नहि राग - विराग - विचार - रतिः ॥ यदिसर्वविवर्जित सर्वसंम किम रोदसि मानस सर्वसमम् ॥४॥
नहिबोध - विवोधि - समाधिरिति नहि काल - विकालसमाधिरिति ॥ नहि देश - विदेशसमाधिरिति किमु रोदसि० ॥५॥
नहि कुंभनभो नहिकुंभमिति नहि जीव वपुर्नहि जीव इति ॥ नहिकारण - कार्यविचार इति किमु० ॥६॥
यति सर्वनिरंतरमोक्षपदं लघुदीर्घविचारविहीन इति ॥ नहि वर्तुळ - कोण बिचारगतिः किमु० ॥७॥
इह शून्य - विशून्यविहीन इति इह शुद्ध - विशुद्ध विहीन इति ॥ इह सर्व - विसर्व विहीन इति किमु रोदसि० ॥८॥
नहि भीतिविचित्रविचार इति न निरंतरसंधिमनस्यमिति ॥ अरिमित्रविवर्जितसर्वसमं किमु रोदसि० ॥९॥
नहि शेष विशेषणरूप इति न चराचरभेदविभेद इति ॥ इह मोक्षनिरंतरसर्वमिति किमु रोदसि० ॥१०॥
न गुणागुणपाशविबंध इति द्रुतजीवनजीवकरोमि कथम् ॥ इह शुद्ध निरंजनसर्वसमं किमु रोदसि० ॥११॥
इह भाव - विभावविहिनपरं इह कामविकामविहिन परम् ॥ इह बोधतमं खलु मोक्षसमं किमु रोदसि० ॥१२॥
इह तत्त्वनिरंतरसर्वसमं न हि संधिविसंधिसमागमनम् ॥ यदि सर्वविवर्जितमेव समं किमु रोदसि० ॥१३॥
इह रूप - विरूपविहीन इति ननु भिन्न - विभिन्नविहीन इति ॥ ननु सर्व - विसर्वविहीन इति किमु रोदसि० ॥१४॥
अनिकेतकुटीपरिचारसमं इह संगविसंगविहीनपरम ॥ इह बोध - विबोधविहींन इति किमुप रोदसि० ॥१५॥
अविकार - विकारमसत्यमिति अविलक्ष - विलक्षमसत्यमिति ॥ इह केवलमात्मनि सत्यमिति किमु रोदसि० ॥१६॥
इह सर्वगतः खलु जीव इति इह सर्वनिरंतरजीव इति ॥ इह केवलमात्मनि जीव इति किमु रोदसि० ॥१७॥
अविवेकविवेकविबोध इति अविकल्प - विकल्पविबोध इति ॥ यदि चैकनिरंतर बोध इति किमु रोदसि० ॥१८॥
यदि वर्णविवर्णविहीनसमं यदि भेद - विभेद विहीनसमम् ॥ यदि कारणकार्यविहीनसमं किमु रोदसि० ॥१९॥
इह सर्व हि केवलसर्वचिते इह केवल निर्मलसर्वचिते ॥ वियदादिविवर्जितसर्वचिते किमु रोदसि० ॥२०॥
इति निर्मलनिश्चलसर्वगतं इति सर्वनिरंतरसर्वगतम ॥ दिनरात्रिविवर्जितसर्वगतं किमु रोदसि० ॥२१॥
न च बंधसमाधिसमागमनं न हि योग - वियोग समागमनम ॥ न च तर्क - वितर्कसमागमनं किमु रोदसि० ॥२२॥
इह काल - विकालनिराकरणं अनुपीनकृशैकनिराकरणम् ॥ नहि केवलतत्त्वनिराकरणं किमु रोदसि० ॥२३॥
इह देह - विदेहविहीनपरम नहि जाग्रति - भ्रांति - तृतीयापरम ॥ अपिधान - पिधानविचारपरं किमु रोदसि० ॥२४॥
गगनोपमशुद्ध - विशुद्धसमं इह सर्वविवर्जितसर्वसमम ॥ गतसारविसारविकारसमं किमु रोदसि० ॥२५॥
इह धर्म - विधर्मविरागपरं इह वस्तुविवस्तुविहीनपरम् ॥ इह कामविकामविरागपरं किमु रोदसि० ॥२६॥
गुणदोषविवर्णितसर्वमसि सुख - दुःखविवर्जिततत्त्वमसि ॥ यदि रे गगनोपमतत्त्वमसि किमु रोदसि० ॥२७॥
बहुधा श्रुतयः प्रवदंति यतो वियदादिगतो यदि तोयसमम् ॥ यदिचेद्गगनोपमतत्त्वमसि किमु रोदसि० ॥२८॥
यदि रूपविवर्जितसर्वमिदं यदि चैकनिरंतरसर्वमिदम् ॥ यदि सर्वविवर्जितसर्वमिदं किमु रोदसि० ॥२९॥
इह सारसमुच्चयसर्वयति कथितो निजभावविबोधपति ॥ यदि यत्कारणनहि सत्यमिति किमु रोदसि० ॥३०॥
चिंदति विंदति विंदति नहि नहि यत्र छंदोलक्षणं नहि नहि तत्र ॥ समरसमज्ञो भावितपूतः प्रभवति तत्त्वं परमवधूतः ॥३१॥
इति श्रीदत्तगीतासूपनिषत्सारम तितार्थेषु निरंजनविद्यायां निर्वाणयोगे श्रीदत्तगोरक्षकसंवादे समवृद्धिदृष्टिस्वात्म - संवित्युपदेशोना चतुर्थोध्यायः ॥४॥

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Last Updated : March 16, 2017

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