सुखमनी साहिब - अष्टपदी २

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान २६४ )

श्लोक

दीन दरद दुख भंजना, घटि घटि नाथ अनाथ ॥
सरणि तुमारी आइओ , नानक के प्रभ साथ ॥१॥

पद १ ले

जह मात पिता सुत मीत न भाई ।
मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥
जह महा भइआन दूत जम दलै ।
तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥
जह मुसकल होवै अति भारी ।
हरी को नामु खिन माहि उधारी ॥
अनिक पुनहचरन करत नही तरै ।
हरि कोनामु कोटि पाप परहरै ॥
गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ।
नानक पावहु सूख घनेरे ॥१॥

पद २ रे

सगल स्त्रिसटि को राजा दुखीआ ।
हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥
लाख करोरी बंधु न परै ।
हरि का नामु जपत निसतरै ॥
अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ।
हरि का नामु जपत आघावै ॥
हरि का नामु जपत आघावे ॥
जिह मारगि इहु जात इके ला ।
तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥
ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ।
नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥२॥

पद ३ रे

छूटत नही कोटि लख बाही ।
नामु जपत तह पारि पराही ॥
अनिक बिघन जह आइ संघारै ।
हरि का नामु ततकाल उधारै ॥
अनिक जोनि जनमै मरि जाम ।
नामु जपत पावै बिस्त्राम ॥
हउ मैला मलु कबहु न धोवै ।
हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥
ऐसा नामु जपु मन रंगि ।
नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥

पद ४ थे

जिह मारग के गने जाहि न कोसा ।
हरि का नामु ऊहा संगि तोसा ॥
जिह पैडै महा अंध गुबारा ।
हरि का नामु संगि उजीआरा ॥
जहा पंथि तेरा को न सिञानू ।
हरि का नामु तह नालि पछानू ॥
जह महा भइआन तपति बहु घाम ।
तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥
जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ।
तह नानक हरि हरि अंम्रितु बरखै ॥४।

पद ५ वे

भगत जना की बस्तनि नामु ।
संत जना कै मनि बिस्त्रामु ॥
हरि का नामु दास की ओट ।
हरि कै नामि उधरे जन कोटी ॥
हरि जसु करत संत दिनु राति ।
हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥
हरि जन कै हरि नामु विधानु ।
पारब्रहमि जन कीनो दान ।
मन तन रंगि रते रंग एकै ।
नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥५॥

पद ६ वे

हरि का नामु जन कउ मुकति जुगति ।
हरि कै नामि जन कउ त्रिपति भुगति ॥
हरि का नामु जन का रुप रंगु ।
हरि नामु जपत कब परै न भंगु ॥
हरि का नामु जन की वडिआई ।
हरि कै नामि जन सोभा पाई ॥
हरि का नामु जन कउ भोग जोग ।
हरि नामु जपत्त कछु नाहि बिओगु ॥
जनु राता हरि नाम की सेवा ।
नानक पूजै हरि हरि देवा ॥६॥

पद ७ वे

हरि हरि जन कै मालु खजीना ।
हरि धनु जन कउ आपि प्रभि दीना ॥
हरि हरि जन कै ओट सताणी ।
हरि प्रतापि जन अवर न जाणी ॥
ओति पोति जन हरि रस राते ।
सुंन समाधि नाम रस माते ॥
आठ पहर जनु हरि हरि जपै ।
हरि का भगतु प्रगट नही छपै ॥
हरि की भगति मुकति बहु करे ।
नानक जग संगि केते तरे ॥७॥

पद ८ वे

पारजातु इहु हरि को नाम ।
कामधेन हरि हरि गुण गाम ॥
सभ ते ऊतम हरि की कथा ।
नामु सुनत दरद दुख लथा ॥
नाम की महिमा संत रिद वसै ।
संत प्रतापि दुरतु सभु नसै ॥
संत का संगु वडभागी पाईऐ ।
संत की सेवा नामु धिआईऐ ॥
नाम तुलि कछु अवरु न होइ ।
नानक गुरुमुखि नामु पावै जनु कोइ ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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