हिंदी सूची|भारतीय शास्त्रे|तंत्र शास्त्र|कालीतंत्र|
पुरश्चरण विधि

कालीतंत्र - पुरश्चरण विधि

तंत्रशास्त्रातील अतिउच्च तंत्र म्हणून काली तंत्राला अतिशय महत्व आहे.


पुरश्चरण विधि

देव्युवाच
कथयस्व महाभाग पुरश्चरणमुत्तमम् ।
कस्मिन् काले च कर्त्तव्यं कलौ सिद्धिदमद्‌भुतम् ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे महाभाग ! अब आप मुझे पुरश्चरण का सदुपदेश करें । यह भी बताएं कि कलिकाल में अपूर्व सिद्धि देनेवाले पुरश्चरण का अनुष्ठान कब करना चाहिए ।

ईश्वरोवाच
सामान्यतः प्रवक्ष्यामि पुरश्चर्याविधिं श्रृणु ।
नाशुभो विद्यते कालो नाशुभो विद्यते क्वचित् ॥
न विशेषो दिवारात्रौ न संध्यायां महानिशि ।
कालाकालं महेशानी भ्रांतिमात्रं न संशयः ॥

भावार्थः शिव बोले, हे पार्वती ! अब मैं तुम्हें पुरश्चरण की सामान्य विधि बताता हूं । श्रद्धापूर्वक श्रवण करो । इसके अनुष्ठान के लिए समय, स्थान आदि अशुभ नहीं होते । अहर्निश का भी विचार नहीं किया जाता । महारात्रि-संध्या आदि का भी महत्त्व नहीं है । अनुष्ठान के समय-असमय का सोच-विचार करना तो पूर्णतया भ्रांति ही है ।

प्रलये महति प्राप्ते सर्वं गच्छति ब्रह्मणि ।
तत्कालं च महाभीमे को गच्छति शुभाशुभम् ॥
कलिकाले महामाये भवंत्यल्पायुषो जनाः ।
अनिर्दिष्टायुषः सर्वे कालचिंता कथं प्रिये ॥

भावार्थः हे प्रिये ! प्रलयकाल में सभी ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं । तब उस काल में शुभाशुभ के आकलन का औचित्य क्या है? और फिर कलियुग में तो वैसे ही मनुष्यों की आयु सीमा का कोई निश्चय नहीं है । ऐसे में काल का विचार करना क्या उचित है?

यत्कालं ब्रह्मचिंतायां  तत्कालं सफलं प्रिये ।
पुरश्चर्याविधौ देवी कालचिंता न चाचरेत् ॥
नात्र शुद्धाद्यपेक्षास्ति न निषिद्धयादि भूषणम् ।
दिक्‌कालनियमो नात्र स्थित्यादिनियमो न हि ॥
न जपेत् कालनियमो नार्चादिष्वपि सुंदरी ।
स्वेच्छाचारोऽत्र नियमो महामंत्रस्य साधने ॥

भावार्थः हे प्रिये ! जिस काल में ब्रह्म का चिंतन किया जाए वही शुभ या उचित है । पुरश्चरण के लिए काल-चिंतन नहीं करना चाहिए । इसके लिए शुद्धि आदि की भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि निषिद्ध कुछ भी नहीं है और न ही दिशा, काल, नियम, स्थान आदि का कोई बंधन है । जाप व पूजा कार्य के लिए समय व नियम आदि का भी कोई प्रतिबंध नहीं है । निष्कर्षतः इस महामंत्र की साधना का आधारा स्वेच्छाचार ही है । स्वेच्छाचार ही नियम है ।

नाधर्मो विद्यते सुभ्रु प्रचरेत् दुष्टमानसः ।
जंबूद्वीपे च वर्षे च कलौ भारतसंज्ञके ॥
षण्मासादपि गिरिजे जपात् सिद्धिर्न संशयः ।
मंत्रोक्तं सर्वतंत्रेषु तदद्य कथयामि ते ॥
सुभगे श्रृणु चार्वंगी कल्याणी कमलेक्षणे ।
कलौ च भारतवर्षे ये न सिद्धिः प्रजायते ॥

भावार्थः हे सुनेत्री ! जंबूद्वीप के भारतवर्ष में अधर्म है ही नहीं । यह तो केवल दुष्टजनों के मन की भ्रांति मात्र है अथवा दुष्ट मन ही भ्रमित होता है । यह सत्य है कि छह माह जाप करने से ही सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है । सभी तंत्रों में जो मंत्र कहा गया है, मैं तुम्हें वही बता रहा हूं । हे सुभगे ! कमलनयनी ! कल्याणी ! कलियुग में भारतवर्ष में किस प्रकार सिद्धि मिल सकती है वह सुनो ।

तत् सर्वं कथयाम्यद्य सावधानावधारय ।
कलिकाले वरारोहे जपमात्रं प्रशस्यते ॥
न तिथिर्न व्रतः होमं स्नानं संध्या प्रशस्यते ।
पुरश्चर्यां विना देवी कलौ मंत्रं न साधयेत् ॥

भावार्थः हे पार्वती ! मैं तुमसे उन सभी तत्त्वों को कहता हूं । सावधान होकर सुनो । कलियुग में केवल जाप ही प्रशस्त कहा गया है । इस काल में तिथि, व्रत, होम, स्नान, संध्यादि कर्म का कोई बंधन नहीं है । कलियुग में पुरश्चरण के बिना कोई भी मंत्र सिद्ध नहीं होता है ।

सत्यत्रेतायुगं देवि द्वापरं सुखसाधनम् ।
कलिकाले दुराधर्षं सर्वदुःखमयं सदा ॥
सारं हि सर्व तंत्राणां महाकालीषु कथ्यते ।
प्रातः कृत्यादिकं कृत्वा ततः स्नानं समाचरेत् ॥
कृत्वा संध्या तर्पणं च संक्षेपेण वरानने ।
पूजां चैव वरारोहे यस्य यत् पटलक्रमात् ॥

भावार्थः हे देवी ! सत्ययुग, त्रेता व द्वापर युग में साधना करना सरल है । लेकिन कलियुग में कष्टदायी व असाध्य है । महाकाली साधना में सभी तंत्रों का तत्त्व समाविष्ट है । अतः साधक को प्रातः नित्य कर्मादिकों से निवृत्त होकर स्नानादि करने के बाद संध्या-तर्पण कर चतुर्थ संवाद में उपदेशित रीति के अनुसार महाकाली की पूजा करनी चाहिए ।

पूपाद्वारे च विन्यस्य बलिं दद्यात् यथाक्रमम् ।
प्राणायाम त्रयं चैव माषभक्तबलिं तथा ॥

भावार्थः पूजन द्वार पर क्रम से बलि देकर तीन बार प्राणायाम करने के बाद माष (उडद की दाल) की खिचडी महाकाली को अर्पित करनी चाहिए ।

संकल्पोपास्य देवेशी बलिदानस्य साधकः ।
आदौ गणपतेर्बीजं गमित्येकाक्षरं विदुः ।
भूमौ विलिख्य गुप्तेन बलिं पिंडोपमं ततः ॥
ॐ गं गणपतये स्वाहा इति मंत्रेण साधकः ।
बलिमित्थं च सर्वत्र बीजोपरि प्रदापयेत् ॥

भावार्थः हे पार्वती ! साधक को चाहिए कि वह बलिदान के लिए संकल्प कर पहले गणपति के बीज मंत्र गं को गुप्त रूप से भूमि पर अंकित करे । फिर उडद की दाल की खिचडी का पिंड बनाए और ॐ गं गणपतये स्वाहा मंत्र बोलकर उस अंकित बीजमंत्र पर पिंड की बलि दे ।

ॐ भैरवाय ततः स्वाहा भैरवाय बलिस्ततः ।
ॐ क्षं क्षेत्रपालाय स्वाहा क्षेत्रपाल बलिं ततः ॥
ॐ यां योगिनिभ्यो नमः स्वाहा च योगिनी बलिम् ।
संपूज्य विधिना दद्यात् पूर्ववत् क्रमतो बलिम् ।
कथोपकथनं देवि त्यजेदत्र सुरालये ॥

भावार्थः इसके बाद ॐ भैरवाय स्वाहा कहकर भैरव को, ॐ क्षं क्षेत्रपालाय स्वाहा कहकर क्षेत्रपाल को, ॐ यां योगिनिभ्यो नमः स्वाहा कहकर योगिनी को बलि देनी चाहिए । इस तरह विधिवत पूजन के बाद ही बलि देने का विधान है । हे देवी ! सुरालय में वार्तालाप नहीं करना चाहिए ।

पूर्वे गणपतेर्भद्रे उत्तरे भैरवाय च ।
पश्चिमे क्षेत्रपालाय योगिन्यै दक्षिणे ददेत् ॥
इंद्रादिभ्यो बलिं दद्यात् आत्मकल्याणहेतवे ।
तदा सिद्धिमवाप्नोति चान्यथा हास्य केवलम् ॥

भावार्थः हे भद्रें ! गणपति की निमित्त पूर्व दिशा में, भैरव के निमित्त उत्तर दिशा में, क्षेत्रपाल के निमित्त पश्चिम दिशा में और योगिनी के निमित्त दक्षिण दिशा में बलि देनी चाहिए । इसके अलावा अपने कल्याण के लिए इंद्रादि देवताओं को भी बलि देनी चाहिए । इससे सिद्धि की प्राप्ति होती है । ऐसा न करने पर सभी साधन व्यर्थ रहने की संभावना रहती है ।

पलैकं माषकल्पं च पलकेमं च तंडुलम् ।
अर्धतोलं घृतं चैव दक्षिमर्धार्द्धतोलकम् ॥
शर्करैकतोलकेन बलिं दद्यात् सुसिद्धये ।
एतेषां सहयोगेन बलिर्भवति शांभवी ॥

भावार्थः हे शांभवी ! एक पल उडद की दाल, एक पल अक्षत, आधा तोला घृत, चौथाई तोला दही को मिलाकर बलि देनी चाहिए । यदि श्रेष्ठ सिद्धि की कामना है तो उक्त द्रव्यों में एक तोला शर्करा मिलाकर द्रव्य की बलि देनी चाहिए ।

पूजास्थाने तथा भद्रे कूर्मबीजं लिखेत्ततः ।
चंद्रविंदुमयं बीजं कूर्मबीजं इतीरितम् ॥
स्थापयेदासनं तत्र पूजयेत् पटलक्रमात् ।
भूतशुद्धं ततः कृत्वा प्राणायामै ततः परम् ॥
अंगन्यासं करन्यासं मातृकान्यासमेव च ।
यः कूर्यान्मातृकान्यासं स शिवो नात्र संशयः ॥
ततस्तु भस्मतिलकं रुद्राक्षं धारयेत्ततः ।
रुद्राक्षस्य च माहात्म्यं भस्मनं च श्रृणु प्रिये ॥

भावार्थः हे भद्रें ! बलि क्रियोपरांत पूजास्थल पर कूर्मबीज (ॐ) अंकित कर वहां आसन लगाकर चतुर्थ संवाद में दी गई विधि के अनुसार पूजा करनी चाहिए । पहले भूतशुद्धि फिर प्राणायाम क्रिया करनी चाहिए । अनंतर अंगन्यास, करन्यास, मातृकान्यास करने से साधक शिव के समान हो जाता है । इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है । न्यास के बाद भस्म का तिलक व रुद्राक्ष धारण करना चाहिए । हे देवी ! अब तुम रुद्राक्ष व भस्म का माहात्म्य सुनो ।

आग्नेयमुच्यते भस्म दुग्धगोमय संभवम् ।
शोधयेन्मूलमंत्रेण अष्टोत्तरशतं जपेन् ॥
शिरोदेशे ललाटे च स्कन्धयोर्ध प्रदेशके ।
बाहवोः पार्श्वद्वये देवि कंठदेशे हृदि प्रिये ।
श्रुतियुग्मे पृष्ठदेशे नाभौ तुंडे महेश्वरी ॥
कर्पूराब्दाहुपर्यन्तं कक्षे ग्रीवासु पार्वती ।
सर्वांगे लेपयेत देवी किमन्यत कथयामि ते ॥

भावार्थः गोदुग्ध व गोमय (गोबर) को मिलाकर जलाने से बननेवाली आग्नेय भस्म को १०८ बार मूल मंत्र जपकर शुद्ध कर लेना चाहिए । फिर उस भस्म को शीश, ललाट, स्कंध (कंधे), भ्रू प्रदेश, भुजाओं के पीछे की ओर दोनों तरफ, कंठ, हृदय, कर्णों, पृष्ठभागा, नाभि, मणिबंध (कलाई) से भुजाओं तक लगाना चाहिए । हे पार्वती ! भस्म को सारे शरीर में लगाना चाहिए । इसके बारे में और क्या कहूं ।

मध्यमानामिकांगुष्ठेन तिलकं ततः ।
तिलकं तिस्त्ररेखा स्यात् रेखानां नवधा मतः ।
पृथिव्यग्निस्तथा शक्तिः क्रियाशक्तिर्महेश्वरः ॥
देवः प्रथमरेखायां भक्त्या ते प्रकीर्तितः ।
नभस्वांश्चैव सुभगे द्वितीया चैव देवता ॥
परमात्मा शिवो देव देवस्तृतीयायाश्च देवता ।
एतान्नित्यं नमस्कृत्य त्रिपुंड्रं धारयेत् यदि ॥
महेश्वर व्रतमिदं कृत्त्वा सिद्धिश्वरो भवेत् ।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वनस्थो वा यतिस्तथा ॥

भावार्थः हे देवी ! भस्म से तीन रेखाओं का तिलक (त्रिपुंड्र) करना चाहिए । नौ संख्या की रेखाएं तंत्र में स्वीकार की गई हैं । ये रेखाएं पृथ्वी, अग्नि व शक्ति की प्रतीक मानी गई हैं । हे देवी ! प्रथम रेखा के देवता महादेव, द्वितीय रेखा के देवता नभस्वान, तृतीय रेखा के देवता परमात्मा शिव हैं । इनको नमस्कार करने के बाद ही त्रिपुंड्र धारण करना चाहिए । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या योगी में से जो कोई भी इस महेश्वर व्रत को करता है, उसे सिद्धि की प्राप्ति होती है ।

महापातक संघातैर्मुच्यते सर्वपातकात् ।
तथान्यक्षत्रविट्‌शूद्रा स्त्रीहत्यादिषु पातकैः ॥
वीर ब्राह्मण हत्याभ्यां मुच्यते सुभगेश्वरी ।
अमंत्रेणापि यः कुर्यात् ज्ञात्वा च महिमोन्नतिम् ॥
त्रिपुंड्र भाल तिलको मुच्यते सर्वपातकैः ।
परद्रव्यापहरणं परदाराभिमर्षणम् ॥
परनिंदा परक्षेत्रे हरणं परपीडनम् ।
असत्य वाक्य पैशून्यं पारुष्यं देवविक्रयम् ॥
कूटसाक्ष्यं व्रतत्यागं कृत्वा नीचसेवनम् ।
गो मृगाणां हिरण्यस्य तिल कंबूलं वाससाम् ॥
अन्न धान्य कुशादीनां नीचेभ्योऽपि परिग्रहम् ।
दासीवेश्यासु कृष्णासु वृषलीसु नटीसु चा ॥
रजस्वलासु कन्यासु विधवासु च संगमे ।
मांसचर्मरसादीनां लवणस्य च विक्रयम् ॥

भावार्थः इस प्रकार के अनुष्ठान द्वारा दोषों से मुक्ति मिलती है । यहां तक कि क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व स्त्री हत्या का दोष भी दूर होता है । हे सुंदरी ! भस्म धारण के महत्त्व को जानकर जो कोई बिना मंत्रोच्चार के ही भस्म धारण करता है वह ब्रह्महत्या दोष से मुक्त हो जाता है । जिसके ललाट पर त्रिपुंड्र बना है वह दोषमुक्त ही समझा जाना चाहिए । ऐसा मनुश्य चोरी, परस्त्रीगमन, परनिंदा, भूहरण, परपीडा, मिथ्या व कटु वचन, देव विक्रय, कूटमाक्षय, व्रत, त्याग, नीच की सेवा, वस्त्र-अन्न का नीच से दान लेना, वेश्य, दासी, नारी, रजस्वला, कन्या, विधवा से समागम, मांस, चर्म, रस, लवण विक्रय आदि दोषों से मुक्त होता है ।

एवं रूपाण्यसंख्यानि पापानि विविधानि च ।
सद्य एव विनश्यंति त्रिपुंड्रस्य च धारणात् ॥
शिवंद्रव्यपहरणात् शिवनिंदां च कुत्रचिंत् ।
निंदायाः शिवभक्तानां पायश्चित्तैर्न शुद्धयति ॥
त्रिपुड्रं शिरसा धृत्वा तत्क्षणादेव शुद्धयति ।
देवद्रव्यापहरणे ब्रह्मस्वहरणेन च ॥

भावार्थः हे देवी ! त्रिपुंड्र धारण करने से असंक्य पापों का क्षय हो जाता है । शिव के द्रव्य का हरण व शिवनिंदा करने या शिवभक्त की निंदा करने से उत्पन्न दोष प्रायश्चित करने से दूर होता है । इसी तरह देवद्रव्य का हरण करने से जो दोष लगता है वह भी त्रिपुंड्र धारण से दूर हो जाता है ।

कुलान्यग्नय एवात्र विनश्यंति सदाशिवे ।
महादेवि महाभागे ब्राह्मणातिक्रमेण च ।
कुलरक्षा भवत्यस्मात् त्रिपुंड्रस्य च सेवनात् ॥
रुद्राक्षै यस्य देहेषु ललाटेषु त्रिपुंड्रकम् ।
यदि स्त्यात् स च चंडालः सर्ववर्णोत्तमोत्तमः ॥
यानि तीर्थानि लोकेऽस्मिन् गंगाद्या सरितश्च याः ।
स्नातो भवति सर्वत्र यल्ललाटे त्रिपुंड्रकम् ॥

भावार्थः हे सदाशिवे ! हे महादेवी ! हे महाभागे ! ब्राह्मण का अपमान करने से इसी जन्म में विनाश संभव होता है । ऐसी स्थिति में त्रिपुंड्र धारण का विशेष महत्त्व है । हे देवी ! जिसके शरीर पर रुद्राक्ष और ललाट पर त्रिपुंड्र हो यदि वह चांडाल है तब भी श्रेष्ठ है । जो मनुष्य ललाट पर त्रिपुंड्र धारण करता है, उसे तीर्थों का फल स्वतः ही मिल जाता है ।

सप्तकोटिमहामंत्रा उपमंत्रास्तथैव च ।
श्री विष्णोः कोटि मंत्रश्च कोटि मंत्रः शिवस्य च ।
ते सर्वे तेन जप्ता च यो विभर्ति त्रिपुंड्रकम् ॥
सहस्रं पूर्व्व जातानां सहस्रं च जनिष्यताम् ।
स्ववंशजातान् मर्त्यानां उद्धरेत् यस्त्रिपुंड्रकृत् ।
षडैश्वर्य गुणोपेत्तः प्राप्य दिव्यवपुस्ततः ।
दिव्यं विमानमारुह्‌य दिव्यस्त्रीशतसेवितः ।
विद्याधराणां सिद्धानां गंधर्वाणां महौजसाम् ।
इंद्रादिलोकपालानां लोकेषु च यथाक्रमम् ॥
भुक्त्त्वा भोगान् सुविपुलं प्रदेशानां पुरेषु च ।
ब्रह्मणः पदमासाद्य तत्र कल्पायुतं वसेत् ॥
विष्णुलोके च रमते आब्रह्मणः शतायुषम् ।
शिवलोके ततः प्राप्य रमते कालमक्षयम् ॥

भावार्थः ललाट पर त्रिपुंड्र धारण करने से विष्णु के महामंत्र व शिव के मंत्र का करोड्रों बार जाप करने का फल मिलता है । हे देवी ! जो मनुष्य त्रिपुंड्र धारण करता है उसकी पिछली व अगली पीढी के हजारों वंशजों का उद्धार होता है । इसके अतिरिक्त उसे सभी प्रकार का ऐश्वर्य मिलता है, वह दिव्य विमान पर रोहण करता है तथा देवांगनाएं उसकी सेवा करती हैं । ऐसा मनुष्य विद्याधर, सिद्धि. गंधर्व, इंद्रादि लोकों का सुख भोगकर १० हजार कल्पों तक (अयुत कल्प तक) ब्रह्मा बनता है । फिर विष्णुलोक में १०० ब्रह्माओं के काल तक निवास कर अक्षय काल तक शिवलोक में निवास करता है ।

शिवसायुज्यमाप्नोति न स भूयोऽपि जायते ।
शैवे विष्णो च सौरे च गाणपत्येषु पार्वती ॥
शक्तिरूपा च या गौः स्यात् तस्या गोमयसंभवम् ।
भस्म तेषु महेशानि विशिष्ठं प्रकीर्तितम ॥
शैवोऽपि च वरारोहे सागुण्यं वरवर्णिनी ।
शक्तौ प्रशस्तमोक्षं हि भस्म यौवन जीवने ॥
अन्येषां गोकरीषेण भस्म शक्यादिकेष्वपि ।
सामान्यमेतत् सुश्रोणि विशेषं श्रृणु मत्प्रिये ॥

भावार्थः हे पार्वती ! किसी भी संप्रदाय का मनुष्य जो त्रिपुंड्र धारण करता है वह शिव सायुज्य पाता है तथा फिर से सांसारिक प्रपंचों में नहीं पडता । हे देवी ! गाय को शक्तिरूपा माना गया है । अतः गोमय (गोबर) से बनी भस्म शक्ति प्रदायिनी है । ऐसा तंत्रशास्त्रों में कहा गया है । हे प्रिये ! शैव मत के अनुयायी सागुण्य प्राप्त करते हैं । शक्ति के उपासकों के लिए भस्म यौवन व जीवनदायिनी है । या अन्यों के लिए भी कल्याणकारिणी है । हे सुंदरी ! भस्म के ये सामान्य गुण कहे गए हैं । अब विशिष्ट गुणों का श्रवण करो ।

करीषभस्मादनघे होमं भस्म महाफलम् ।
होमं भस्मात् कोटिगुणं विष्णुयोगं महेश्वरी ॥
शिव होमं तद्विगुणं तस्मात्तु शृणु सुंदरी ।
स्वीयेष्ट देवता होम मनंतं प्रियवादिनी ॥
तन्माहात्म्यमंह वक्तुं वक्त्रकोटिशतैरपि ।
न समर्थो योगमार्गे मिमन्यत् कथयामि ते ॥

भावार्थः हे अनघे ! करीष (सूखे गोबर) की तुलना में होम की भस्म अधिक फलदायी कही गई है । इसी तरह होम भस्म की अपेक्षा विष्णु योग की भस्म करोडों गुणा फल देनेवाली है । इससे दुगुना फल देनेवाली शिवयोग भस्म है । इष्टदेव के निमित्त होम करने से बनी भस्म अनंत फलदायी मानी गई है । इसका महत्त्व सैकडों-करोडों मुखों से भी नहीं बखाना जा सकता । हे देवी ! योग मार्ग के संबंध में अधिक क्या कहूं ।

होमः कलियुगे देवि जंबूद्विपस्य वर्षके ।
भारताख्ये महाकाली दशांशं क्रमतः शिवे ॥
नास्तिकास्ते महामोहे केवलं होममाचरेत् ।
लक्षस्वाप्ययुतस्वापि सहस्रम्बा वरानने ॥
अष्टाधिकशतम्वापि काम्यहोमं प्रकल्पयेत् ।
नित्यहोमं च कर्त्तव्यं शक्त्या च परमेश्वरी ॥
प्रजपेन्नित्य पूजायामष्टोत्तर सहस्रकम् ।
अष्टोत्तरशतं वापि अष्टं पंचाशतं चरेत् ॥
अष्टत्रिंशत् संख्यकंबा अष्टाविंशतिमेव च ।
अष्टादशा द्वादशं च दशाष्टो च विधानतः ॥
होमं चैव महेशानि एतत् संख्याविधानतः ।
एवं सर्वत्र देवेशि नित्यकर्म महोत्सवः ॥
इत्थं प्रकारं यत् भस्म अंगे संलिप्य साधकः ।
मालां चैव महेशानि नरास्थ्यद्‌भुत पूजितम् ॥

भावार्थः हे देवी ! कलियुग में जंबूदीप के भारतवर्ष में दशांशं हवन फलदायी कहा गया है । जो नास्तिक हैं उन्हें होम करना चाहिए । उस होम को लाख, १० हजार या १००० बार भी किया जा सकता है । हे देवी ! कामनापूर्ति के लिए १०८ बार भी होम किया जा सकता है । होम सदैव शक्त्यानुसार ही करना चाहिए । नित्यपूजा में १००८ बार होम-जाप करना चाहिए । इतना जाप करना यदि संभव न हो तो १०८ अथवा ५८ बार या फिर ३८,२८ बार ही जाप करना चाहिए । इतना करना भी संभव न हो तो १८,१२,१० या ८ बार ही जाप करना चाहिए । होम के अनुसार ही जाप की संख्या निर्धारित करनी चाहिए । हे देवेशी ! सदैव नित्य कर्म उत्सव हवलादि करना चाहिए । इस प्रकार जो भस्म बनती है उसको अंग में लेपकर रुद्राक्ष माला धारण कर मानव अस्थियों की माला पहननी चाहिए ।

गले दद्याद्वरारोहे शक्तश्चेत् दिव्यनासिके ।
रुद्राक्ष माल्यं संधार्यं ततः श्रृणु मम प्रिये ॥
एवं कृत्वो तया सार्द्ध पितृभूमौ स्थितं मया ।
सुभगे श्रृणु सुश्रोणि रुद्राक्षं परमं पदम् ॥

भावार्थः हे दिव्य नासिकावाली ! मानव अस्थि धारण करने के बाद ही रुद्राक्ष की माला धारण करनी चाहिए । क्योकिं ऐसी माला धारण करके है मैं तुम्हारे साथ श्मशान में वास करता हूं । हे देवी ! साधक का मुख्य़ लक्ष्म रुद्राक्ष ही है ।

सर्वपापक्षयकरं रुद्राक्षं ब्रह्मणीश्वरी ।
अभुक्तो वापि भुक्तो वा नीचा नीचतरोऽपि वा ॥
रुद्राक्षं धारयेत् यस्तु मुच्यते सर्वपातकात् ।
रुद्राक्षधारणं पुण्यं कैवल्यं सदृशं भवेत् ॥
महाव्रतमिदं पुण्यं त्रिकोटितीर्थ संयुतम् ।
सहस्रं धारयेत् यस्तु रुद्राक्षाणां शुचिस्मिते ॥
तं नवंति सुराः सर्वे यथा रुद्रस्तथैव सः ।
अभावे तु सहस्रस्य बाहवोः षोडश षोडशः ॥

भावार्थः हे ब्रह्मणेश्वरी ! रुद्राक्ष सभी दोषों का क्षय करनेवाला है । किसी भी अवस्था में नीच मनुष्य भी रुद्राक्ष धारण करने से दोषमुक्त हो जाता है । यह महत् पुण्य कर्म कहा गया है । रुद्राक्ष धारण करना मोक्ष के समान माना गया है । इसको धारण करने से तीन करोड तीर्थों के भ्रमण का फल मिलता है । हे शुचिस्मिते ! जो मनुष्य १००० रुद्राक्ष धारण करता है, वह देवगणों द्वारा पूजित होता है । उसमें व रुद्र में अभेद भाव रहता है । एक सहस्र रुद्राक्ष धारण न कर सके तो भुजाओं में १६-१६ रुद्राक्ष ही धारण करने चाहिए ।

एकं शिखायां कवचयोर्द्वादश द्वादश क्रमात् ।
द्वात्रिंशत् कंठदेशे तु चत्वारिंशत् शिरे तथा ॥
उभयो कर्णयोः षट् षट् हृदि अष्टोत्तर शतम् ।
यो धारयति रुद्राक्षान् रुद्रवत् स च पूजितः ॥
मुक्ता-प्रवाल-स्फटिकैः सूर्येन्दु-माणि कांचनैः ।
समेतान् धारयेत यस्तु रुद्राक्षान् शिव एव सः ॥
केवलानामपि रुद्राक्षान् यो विभर्त्ति वरानने ।
तं न स्पृशंति पापनि तिमिराणीव भास्करः ॥

भावार्थः एक रुद्राक्ष चोटी में, १२-१२ रुद्राक्ष कवच में, ३२ रुद्राक्ष कंठ में व ४४ रुद्राक्ष मस्तक पर धारण करने चाहिए । छह-छ्ह रुद्राक्ष कानों में, १०८ रुद्राक्ष ह्र्दय पर धारण करनेवाला साधक संसार में रुद्र के समान पूजा जाता है । मुक्ता, प्रवाल, स्फटिक, सूर्यकांतमणि, चंद्रकांतमणि या स्वर्ण के साथ रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य शिव समान हो जाता है । हे सुमुखी ! जो साधक केवल रुद्राक्ष धारण करता है । उसे पाप उसी प्रकार नहीं छू पाता जैसे तिमिर कभी सूर्य को नहीं छू सकता ।

रुद्राक्षमालया जप्तो मंत्रोऽनन्त फलप्रदः ।
यस्यांगे नास्ति रुद्राक्षं एकोऽपि वरवर्णिनी ।
तस्य जन्म निरर्थं स्यात् त्रिपुंड् रहितं यथा ॥
रुद्राक्षं मस्तके बद्धा शिर-स्नानं करोति यः ।
गंगास्नान-फलं तस्य जायते नात्र संशयः ॥
रुद्राक्षं पूजयेत् यस्तु विना तोयाभिषेचनैः ।
यत् फलं शिव पूजायां तदेवाप्नोति निश्चितम् ॥

भावार्थः हे वरवर्णिनी ! रुद्राक्ष की माला पर जाप करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है । यदि कोई एक भी रुद्राक्ष धारण नहीं करता है तो उसका जीवन वैसे ही व्यर्थ है जैसे त्रिपुंड्र रहित मनुष्य का होता है । जो मनुष्यं मस्तक पर रुद्राक्ष बांधकर शीश भाग से स्नान करता है उसे गंगा स्नान का फल मिलता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है । जो मनुष्य जल अभिषेक से रुद्राक्ष का पूजन करता है, उसे शिव-पूजा करने का फल मिलता है, यह भी सत्य है ।

एकवक्त्रैः पंचवक्त्रैः त्रयोदश मुखैस्तथा ।
चतुर्द्दश मुखैर्ज्जप्त्वा सर्वसिद्धिः प्रजायते ॥
किं बहूक्त्या वरारोहे कृत्वा गतिकमद्‌भुतम् ।
रुद्राक्षं यत्नतो धृत्वा शिव एव स साधकः ॥

भावार्थः हे देवी ! एकमुखी, पांचमुखी, तेरहमुखी या चौदहमुखी रुद्राक्ष से जाप करने पर सभी प्रकार की सिद्धियां हस्तगत होती हैं । हे पार्वती ! अधिक क्या कहूं ? रुद्राक्ष धारण करनेवाला शिव के सदृश हो जाता है ।

भस्मना तिलकं कृत्वा पश्चात् रुद्राक्ष धारणम् ।
प्राणायामं ततः कृत्वा संकल्प्योवास्य साधकः ॥
मूलमंत्रसिद्धिकामः कुर्यांच्च वर्णपूजनम् ।
षट्‌त्रिंशत् वर्ण मालार्च्चा विस्तारोन्नति शालिनी ॥

भावार्थः भस्म का त्रिपुंड्र व रुद्राक्ष धारण कर साधक को प्राणायाम व संकल्पपूर्वक उपासना करनी चाहिए । साधक को चाहिए कि वह मूलमंत्र की सिद्धि के लिए वर्णमाला की भी पूजा करे । हे विस्तारोन्नतिशालिनी !३६ वर्णमालाओं की पूजा शास्त्र सम्मत कही गई है ।

विलिप्य चंदनं शुद्धं सर्ववर्णात्मके घटे ।
सर्वावयवसंयुक्तान् विलिख्य मातृकाक्षरान् ॥

भावार्थः सर्ववर्णात्मक घट में चंदन का लेप कर सारे अंग में मातृकाक्षर लिखना चाहिए ।

टिप्पणीः यहां घट का आशय पंचतत्त्वों से निर्मित मानव देह से भी है । तंत्र रीति के अनुसार इस देह में सर्ववर्णयुक्त मातृका के अक्षरों की कल्पना करनी चाहिए ।

गुरु संपूज्य विधिवत् घटस्थापनमाचरेत् ।
पंचाशन्मातृकावर्णान् पूजयेत् विभवक्रमात् ॥

भावार्थः साधक को चाहिए कि वह विधिवत् गुरुपूजा के बाद घट (कलश) की स्थापना करे । फिर अनुलोम क्रमानुसार ५० मातृकाओं की पूजा करे ।

सत्व स्वरूपिणी ध्यानम्
शुक्लविद्युत् प्रतीकाशां द्विभुजां लोललोचनाम् ।
कृष्णांबरपरिधानां शुक्ल वस्त्रोत्तरीयिणीम् ॥
नाना आभरणं भूषाड्‌यां सिंदूर तिलकोज्वलाम् ।
कटाक्षिविशिखोद्दीप्त अंजनांजित लोचनाम् ॥
मंत्रसिद्धि प्रदां नित्यां ध्यायेत् सत्वस्वरूपिणीम् ।
रक्त विद्युत् प्रतीकांशा द्विभुजां लोललोचनाम् ॥

भावार्थः सत्वस्वरूपिणी देवी का ध्यान पंचोपचार पूजा के बाद इस प्रकार करना चाहिए कि वह देवी दिद्युत सदृश प्रकाश से युक्त, सुंदर नेत्रोंवाली, दो भुजाओंवाली हैं तथा देवी ने काले वस्त्र पहन रखे हैं । काले वस्त्रों पर श्वेत वर्ण की उत्तरीय है । देवी विविध आभूषणों से शोभायमान हैं । ललाट पर सिंदूरी तिलक है । तीखे नयन बाणवत् हैं जिनमें अजंन सुशोभित है । मंत्र सिद्धिदात्री, रक्त विद्युत के समान प्रभावाली, दो भुजाधारिणी, सुंदर नेत्रोंवाली हैं ।

रजः स्वरूपिणी ध्यानम्
शुक्लंबरपरीधानां कृष्णवस्त्रोत्तरीयिणीम् ।
नाना आभरण भूषाड्‌यां सिंदूर तिलकोज्वलाम् ॥
कटाक्ष विशिखोदीप्त अंजनांजित लोचनाम् ।
मंत्र सिद्धि प्रदां नित्यां ध्यायेत् रजः स्वरूपिणीम् ॥

भावार्थः साधक को रजः स्वरूपिणी देवी का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए कि देवी ने श्वेत वस्त्र धारण कर रखे हैं तथा काले रंग का उत्तरीय उन पर सुशोभित है । अनेक आभूषणों से शोभायमान देवी के ललाट पर सिंदूर शोभा पा रहा है । तीखे बाणवत् नयनों में अंजन लगा है । यह मंत्र सिद्धि देनेवाली हैं ।

तमः स्वरूपिणी ध्यानम्
भ्रमत् भ्रमर संकाशां द्विभुजां लोललोचनाम् ।
रक्त वस्त्र परिधानां कृष्ण वस्त्रोत्तरीयिणीम् ॥
नाना आभरण भूषाड्‌यां सिंदूर तिलकोज्वलाम् ।
कटाक्ष विशिखोद्दीप्त भ्रू लता परिसेविताम् ।
मंत्र सिद्धि प्रदां नित्यां ध्यायेत्तमः स्वरूपिणीम् ॥

भावार्थः साधक को तमः स्वरूपिणी देवी का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए कि देवी का वर्ण (रंग) भ्रमरवत् काला है, उनकी दो भुजाएं हैं तथा नेत्र सुंदर हैं । देवी ने लाल रंग के वस्त्र परिधान कर रखे हैं । जिन पर काले वस्त्र का उत्तरीय शोभा पा रहा है । वह आभूषणों से सुसज्जित हैं, ललाट पर सिंदूर का तिलक लगा है । उनके नयन तीखे हैं, वह वृक्षों की शाखा व तलाओं का ही उपयोग करती हैं । मंत्रसिद्धि देनेवाली हैं ।

ध्यात्वा पाद्यादिकं दत्वा त्रिगुणां पूजयेत् क्रमात् ।

भावार्थः उपरोक्य वर्णमालाओं की यथाक्रम अर्घ्य, पाद्य आदि से पूजा करनी चाहिए ।

ॐ अंगार रूपिण्यै नमः पाद्यैः प्रपूजयेत् ।
आदि ध्यानेन सुभगे यजेत् सत्वमयीं पराम् ॥
ॐ कंकार रुपिण्यै नमः पाद्यादिभिर्यजेत् ।
क्रमात् सप्त दशार्णं हि द्वितीयं ध्यानमाचरन् ॥

भावार्थः ॐ अंगाररूपिण्यै नमः मंत्रोच्चारण कर पाद्यादि से पूजन कर सत्वमयी प्रथम वर्णमाला का ध्यान करना चाहिए । ॐ कंकार रूपिण्यै नमः मंत्रोच्चारण कर पाद्यादि से पूजन कर यथाक्रम १७ वर्णमयी द्वितीय रजःमयी वर्णमाला का ध्यान करना चाहिए ।

ॐ दंकार रूपिण्यै नमः पाद्यादिभिर्यजेत् ।
क्रमात् सप्त दशार्णं हि तृतीयं ध्यानमाचरम् ॥

भावार्थः ॐ ऊंकार रूपिण्यै नमः मंत्रोच्चारण कर पाद्यादि से पूजन कर १७ वर्णयुक्ता तृतीय वर्णमाला तामसी का पूजन कर ध्यान करना चाहिए ।

एवं क्रमेण पंचाशत् वर्णं हि परिपूजयेत् ।
इति ते कथितं भद्रे पंचाशद्वर्णपूजनम् ॥

भावार्थः इसी क्रम से ५० वर्णों क पूजन करना चाहिए । हे भद्रे ! इस तरह मैंने तुम्हें ५० वर्णों की पूजा विधि का उपदेश किया है ।

वर्णानां पूजनात् भद्रे देव पूजा प्रजायते ।
अणिमाद्यष्ट सिद्धिनां पूजा स्यात् वर्ण पूजनात् ॥

भावार्थः हे भद्रे ! वर्णमाला पूजा ही देवपूजा कही गई है । इस पूजा के द्वारा अणिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियों की भी पूजा संपूर्ण हो जाती है ।

सप्त कोटि महाविद्या उपविद्या तथैव च ।
श्री विष्णोः कोटि मंत्रश्च कोटि मंत्रः शिवस्य च ॥
पूजनात् पूजितं सर्वं वर्णानां सिद्धि दायकम् ।
प्रथमं प्रणवं दत्त्वा सहस्रं कुंडली मुखे ॥
मूलविद्यां ततो भद्रे सहस्र युगलं जपेत् ।
ततस्तु सुभगे मातर्ज्जयेच्च दीपनौ पराम् ॥

भावार्थः सात करोड महाविद्य, उपविद्या, श्री विष्णु व शिव के करोड मंत्र आदि की पूजा भी वर्णपूजा द्वारा ही पूरी हो जाती है । सबसे पहले कुंडली मुख में १००० प्रणव का उच्चारण-जाप करना चाहिए । अर्थात प्रणव का एक सहस्र मानसिक जाप कर मूलाधारास्थ कुंडली के मुख में आहुत कर देना चाहिए । इसके बाद २००० बार मूलमंत्र का जाप कर श्रेष्ठ दीपनी नामक मंत्र का जाप करना चाहिए ।

आदौ गायत्रीमुच्चार्य मूलमंत्रं ततः परम् ।
प्रणवं च ततो भीमे त्रयाणां सहयोगतः ॥
सदैवेनां महेशानि दीपनीं परिकीर्त्तितम् ।
एतामपि सहस्रं च प्रजपेत् कुंडली मुखे ॥

भावार्थः हे भीमे ! सर्वप्रथम गायत्री मंत्र का उच्चारण कर मूलमंत्र का उच्चारण करना चाहिए । फिर प्रणव का उच्चारण करना चाहिए । इसके अनंतर गायत्री, मूलमंत्र, प्रणव तीनों का जपा करना चाहिए । इस प्रकार तीनों मंत्रों का एकसाथ जाप जरना ही दीपनी जाप कहलाता है । इस प्रकार कुंडली के मुख में दीपनों मंत्र का ही जाप करना चाहिए ।

प्रणवादौ जपे द्विधां गायत्रीं दीपनीं पराम् ।
गायत्री श्रृणु वक्ष्यामि अं ङं ञं णं नं मं मे प्रिये ॥

भावार्थः हे प्रिये ! प्रणव के प्रारंभ में गायत्री मंत्र अर्थात दीपनी विद्या का ही जाप करना चाहिए । गायत्री मंत्र हैः अं ङं ञं णं नं मं ।

षडक्षर मिदं मंत्रं गायत्री समुदीरितम् ।
अस्याश्च फलमाप्नोति तदैव वर्णिनी ॥
स्मरणं कुंडली मध्ये मनसी उन्मनी सह ।
सहस्त्रारे कर्णिकायां चंद्रमंडल मध्यगाम् ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! उपरोक्त षडक्षर मंत्र ही गायत्री है । इसके जाप का प्रतिफल शीघ्र ही प्राप्त होता है । इस गायत्री का कुंडली में उन्मनी के साथ ध्यान करना चाहिए जो सहस्रार की कर्णिका में चंद्रमंडल के बीच में अवस्थित है ।

सर्वसंकल्प रहिता कला सप्तदशी भवेत् ।
उन्मनी नाम तस्य हि भव पाश निकृन्तनी ॥
उन्मन्या सहितो योगी न योगी उन्मनीं विना ।
बुद्धिमंकुश संयुक्तामुन्मनीं कुसुमान्विताम् ॥

भावार्थः हे महेशानी ! सभी प्रकार के संकल्पों से रहित १७ कला ही उन्मनी कहलाती है । यही सांसारिक बंधनों को कटनेवाली है । जो उन्मनी में अवस्थित है वह योगी है । इस अवस्था से रहित को योगी नहीं कहा जाता । बुद्धिरूप अंकुश से अंकुशित उन्मनी कुसुमों से (कमल पुष्पों से) ढंकी हूई है ।

उन्मनीं च मनोवर्णं स्मरणात् सिद्धि दायिनीम् ।
स्मरते कुंडली योगादमृतं रक्त रोचिषम् ।
उन्मनी कुसुमं तंतु ज्ञेयं परमदुर्लभम् ॥

भावार्थः हे पर्वतपुत्री ! सिद्धि देनेवाली उन्मनी और मन रूप वर्ण का ध्यान करते हुए रक्त कांतिवत् अमृत का कुंडली योग से ध्यान करना चाहिए । उन्मनी कुसुमान्वित होकर दुर्लभ होती है ।

हंसं नित्यमनंत मध्यमं गुणं स्वाधारतो निर्गता ।
शक्तिः कुंडलिनी समस्त जननी हस्ते गृहीत्वा च तम् ।
वांती स्वाश्रममर्क कोटि रूचिरा नामामृतोल्लासिनी ॥
देवीं तां गमनागमैः स्थिर मतिर्ध्यायेत् जगन्मोहिनीम् ।
इति ते कथितं ध्यानं मृत्युंजयमनामयम् ॥

भावार्थः हे प्रिये ! कुंडलिनी करोडों सुर्यों के समान प्रकाशवाली है । वह सदैव नामामृत से प्रमुदित होती रहती है । कुंडलिनी मूलाधार से निकल कर मध्यम गुण अर्थात श्वास या हंस का वमन करती है । मध्य नाडी सुषुम्ना के मार्ग से अनवरत हं और सः शब्द श्वास के सहारे आते-जाते रहते हैं । इसी हंसः को जीवात्मा कहते हैं । सृष्टि को मोह लेनेवाली कुंडलिनी का दिन-रात स्मरण करना चाहिए । निरोगी रहने का मृत्युंजय योग यही है ।

विना मनोन्मनी मंत्रं विना ध्यानं जपं वृथा ।
ततः संकल्प ध्यात्वैव मूलमंत्रस्य सिद्धये ॥
गायत्रीमयुतं जप्त्वः तदर्द्धं प्रणवं जपेत् ।
दीपनं प्रणवस्यार्द्धं जपेत् पंच दिनावधि ॥

भावार्थः उन्मनी मंत्र व ध्यान विधि के बिना जाप निष्फल रहता है । इसलिए मूल मंत्र की सिद्धि के लिए संकल्पपूर्वक १० हजार बार गायत्री का जाप करना चाहिए । इतना जाप करने के बाद इसका आधा प्रणव का जाप करना चाहिए और प्रणव से आधा जाप पांच दिन तक दीपन विद्या का करना चाहिए ।

शूद्राणां प्रणवं देवि चतुर्दश स्वर प्रिये ।
नाद विंदु समायुक्तं स्त्रीणां चैव वरानने ॥
मनौ स्वाहा च या देवी शूद्रोच्चार्या न संशयः ।
होमकार्ये महेशानि शूद्रः स्वाहां न चोच्चरेत् ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! शुद्र व स्त्री जाति को नादयुक्त १४ स्वरों का ही प्रणव के स्थान पर जाप करना चाहिए । १४ स्वर हैं-अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं एं ऐं ओं औं । शूद्रों को मंत्र में तो स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए लेकिन होमानुष्ठान में स्वाहा का उच्चारण नहीं करना चाहिए ।

मंत्रोप्यूहो नास्ति शूद्रे विपबीजं विना प्रिये ।
गणपत्यादौ यत् दत्तं बलिदानं दिने-दिने ॥
तेतैव बलिना भद्रे हविष्यं सम्मतं सदा ।
शेष इष्टं प्रपूज्याथ हविष्याशी स्त्रिया सह ॥

भावार्थः हे देवी ! शुद्र के लिए प्रणव के अतिरिक्त कोई भी मंत्र जपनीय नहीं है । गणेश को नित्यप्रति बलिदान भी देना चाहिए । उस बलिदान के अन्न से ही तांत्रिकों को हविष्य बनाना चाहिए । तत्पश्चात इष्ट की पूजा कर साधक पत्नी को साथ बैठाकर हविष्य का भक्षण करे । लेकिन ध्यान रहे कि पत्नी इस हविष्य का भक्षण न करे ।

जापकस्य च यन्मंत्रमेकवर्णं ततः प्रिये ।
तस्य पत्नी शक्तिरूपा प्रत्यहं प्रजपेत् यदि ॥
तदा फलमवाप्नोति साधकः शक्ति संगतः ।
शक्तिहीने भवेद् दुखं कोटि पुरश्चरणेन् किम् ॥

भावार्थः हे प्रिये ! जापकर्ता जिस एक वर्ण के मंत्र का जाप करता है, उसकी पत्नी को भी उसी मंत्र का जाप करना चाहिए । यदि साधक या जापकर्ता की पत्नी स्वयं ही एकवर्णी मंत्र का जाप करती है तो उसका फल साधक को भी मिलता है । शक्ति (पत्नी) के बिना कष्टप्राप्ति होती है, जो करोडों पुश्चरणों से भी दूर नहीं होती ।

साधकस्य हविष्याशी साधिका तद्विवर्जिता ।
यथेच्छाभोजनं तस्यास्तांबूल पूरितानना ॥

भावार्थः हे देवी ! साधक को तो हविष्याशी होना चाहिए । लोकिन साधिका को इच्छानुसार भोजन कर तांबूल सेवन करना चाहिए ।

नाना आभरण वेशाडया धूपामोदनमोदिता ।
शिवहीना तु या नारी दूरे तां परिवर्जयेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! साधिका को अनेक आभूषण परिधान कर धूप आदि सुगंधमय वातावरन का सेवन करना चाहिए । केवल नारी का सान्निध्य इस साधना में वर्जित है ।

देव्युवाच
गायत्री जापकाले तु साधिका किं जापेत् प्रभो ।

भावार्थः देवी बोलीं, हे देव ! गायत्री के जापकाल में साधिका को किस मंत्र का जाप करना चाहिए ।

ईश्वरोवाच
गायत्रीमजपा विद्यां प्रजापेत् यदि साधिका ।
पूर्वोक्तेन विधानेन ध्यात्वा कृत्वा च पूजनम् ॥
मानसं परमेशानि जापेत्तद्‌गतमानसा ।
ततः षष्टदिनं प्राप्य प्रातः स्नानं समाचरेत् ॥
कुंकुमागुरु पंकेन कस्तूरीचंदनेन च ।
कूर्मबीजं लिखेत् भद्रे अथवा श्वेत चंदनैः ॥

भावार्थः शिव बोले, हे देवी ! यदि साधिका अजपा गायत्री का जाप करती है तो उसे पूर्वविधि के अनुसार पूजा व ध्यान करना चाहिए । साधिका को इष्टदेव में ध्यान एकाग्र कर मंत्र का मानसिक जाप करना चाहिए । तदोपरांत छठे दिन स्नान करना चाहिए । फिर कुंकुम, अगर व चंदन से कूर्मबीज अंकित करना चाहिए ।

तत्रासनं समास्थाय विशेत् साधकसन्निधौ ।
एवं विधाय या साध्वी साधकोऽपि प्रसन्नधीः ॥
संकल्प्य विधिना भक्त्या मूलमंत्रस्य सिद्धये ।
लक्षं जापेत् पुरश्वर्या विधौ विधि विधानतः ॥
तद्विधानं वदामीशे श्रुत्वा त्वमवधारय ॥

भावार्थः तत्पश्चात साधिका साधक के समीप आसन बिछाकर बैठे । साधक को भी चाहिए कि वह प्रसन्न चित्त से उसे स्वीकार करे । फिर मूल मंत्र की सिद्धि के लिए संकल्पपूर्वक एक लाख बार मंत्र जाप करना चाहिए । हे देवी ! जाप विधान मैं तुम्हें बताता हूं । तुम उसका श्रव्ण व धारण करो ।

ॐ ॐ कं हूं भं सं देवि प्रातः स्नानोत्तरं परम्‌ ।
दशधा प्रजापेन्मंत्रं जिह्वा शोधन कारकम् ॥
ततश्च प्रजापेन्मंत्रं मौनी मध्यन्दिनावधि ।
तस्य वामे तस्य पत्नी तस्य एकाक्षरं जापेत् ॥

भावार्थः साधक प्रातः स्नान कर जिह्वा की शुद्धि करे । फिर उसे ऊं ऊं कं हूं भं सं मंत्र का दस बार जाप करना चाहिए । इसके बाद मध्याह्न तक मौन रहकर मंत्र का जाप करे । साधिका को भी साधक के वाम भाग में बैठकर एकाक्षर मंत्र का जाप करना चाहिए ।

साधकः शिवरूपश्च साधिका शिवरूपिणी ।
अन्योन्य चिंतनाच्चैव देवत्वं जायते ध्रुवम् ॥
अदावंते च प्रणवं दत्त्वा मंत्रं जापेत् सुधीः ।
दशधा वा सप्तदशं जप्त्वा मंत्रं जापेत्तुसः ॥

भावार्थः हे देवी ! साधक शिवरूप तथा साधिका शक्तिरूपा होती है । यदि साधक-साधिका एक-दूसरे का ध्यान करें तो निश्चित रूप से देवत्व की प्राप्ति होती है । साधक को मूलमंत्र के साथ आदि व अंत में प्रणव सहित जाप करना चाहिए । साधक को चाहिए कि वह पहले १० या १७ बार प्रणव जाप करने के बाद मूलमंत्र का जाप करे ।
एवं हि प्रत्यहं कुर्यात् यावल्लक्षं समाप्यते।
प्रातःकाले समारभ्य जपेन्मध्यन्दिनावधि ॥
द्वितीय प्रहरादूर्ध्वं नित्य पूजादिकं चरेत् ।
स्नानं कृत्वा ततो धामान् हविष्यं बुभुक्ते ततः ॥
तत्पत्नी शक्तिरूपा च पातिव्रत्य परायणा ।
तस्या चेच्छा भवेत् येषु बुभुजे पानभूषिता ॥
दशदंड गते रात्रौ शय्यायां प्रजपेन्मनूम् ।
तांबुल पूरितमुखो धूपामोदन मोदितः ॥

भावार्थः साधक को प्रातः से शुरू कर मध्याह्न तक जाप करना चाहिए अथवा जब तक एक लाख जाप पूरा न हो जाए तब तक जाप करना चाहिए ! फिर दूसरा प्रहर जब शुरू हो तब नित्य पूजा करनी चाहिए । श्रेष्ठ साधक स्नान के बाद ही हविष्यान्न का भक्षण करे । जबकि साधिका को स्वेच्छानुसार भोजन करना चाहिए । यह बात पूर्व में भी बताई गई है । रात्रि के दश दंड बीत जाने पर मुख में तांबूल रखकर धूप-गंध आदि से सुवासित वातावरण बनाकर शय्या पर बैठकर मंत्र जाप करना चाहिए ।

टिप्पणीः दश दंड का तात्पर्य ४ घंटे हुए क्योंकि एक दंड में २४ मिनट या ६० पल होते हैं । जबकि रात्रिकाल आमतौर पर आठ बजे से माना जाता है अतः यह क्रिया बारह बजे रात्रि में ही करनी चाहिए ।

वामेः श्रीशक्तिरूपा च जपेच्च साधकाक्षरम् ।
दक्षिणे साधकः सिद्धो दिवामाने जपेन्मनूम् ॥
आद्यंत गोपनं कृत्वा प्रत्यहं प्रजपेत् यदि ।
ततः सिद्धिमवाप्नोति प्रकाशाद्धानिरेव च ॥

भावार्थः शक्तिस्वरूपा साधिका साधक के वाम भाग में बैठकर एकाग्र मन से मंत्र जाप करे तथा स्वयं साधक सक्षिण भाग में प्रारंभ से अंत तक गुप्त रीति से मंत्र जपे तो निश्चित ही सिद्धि की प्राप्ति होती है । इस साधना में गोपनीयता परम आवश्यक है ।

मातृका पुटिकां कृत्वा चंद्रबिंदु समन्वितम् ।
प्रत्यहं प्रजपेन्मंत्रमनुलोम विलोमतः ॥
जपादौ सुभगे प्रौढ प्रत्यहं प्रजपेन्मतूम् ।
तेन हे सुभगे मातः पुरश्चरणमीरितम् ॥
समाप्ते पुरश्चरणे गुरुदेवं प्रपूजयेत् ।
तदा सिद्धौ भवेन्मंत्रो गुरुदेवस्य पूजनात् ॥

भावार्थः मातृका में चंद्रबिंदु का संपुट देकर नित्य लोम-विलोम रीति से मंत्र जाप करना चाहिए । हे सुंदरी ! इस तरह नित्य जाप करने को ही पुरश्चरण कहा जाता है । पुरश्चरण के बाद गुरु की पूजा करनी चाहिए । ऐसा करने से कलियुग में भी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।

जंबूद्वीपस्य वर्षे च कलिकाले च भारते ।
दशांशं वर्जयेत भद्रे भास्ति होमः कदाचन ॥
दशांशं क्रमतो देवि पंचागं विधिना कलौ ।
नाचरेत् कुत्रचिन्मंत्री पुरश्चर्याविधिं शुभे ॥
भ्रमात् यदि महेशानि कारयेत् साधकोत्तमः ।
सिद्धिहानिर्महानिष्ठं जायते भारतेऽनघे ॥

भावार्थः हे देवी ! कलियुग में दशांश क्रम से कभी भी अनुष्ठान नहीं किया जाता । लोकिन विधिवत पंचांगयुक्त पुरश्चरण अवश्य करना चाहिए । पंचांग पुरश्चरण में जाप का द्शांश होम, होम का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश अभिषेक और अभिषेक का दशांश ब्राह्मण भोजन कराया जाता है । यदि साधक भ्रमवश भारतवर्ष में दशांशयुक्त पुरश्चरण करने की किसी को सीख देता है तो उसका महान अनिष्ट होता है । दशांशयुक्त पुरश्चरण भारतवर्ष से बाहर किया जा सकता है, भारतवर्ष में नहीं ।

दशांशं जायते पूर्णं गुरुदेवस्य पूजनात् ।
अतएव महेशानि भक्त्या गुरुपदं यजेत् ॥
दक्षिणां गुरवे दद्यात् सुवर्णं वाससान्वितम् ।
धानं तिलं तथा दद्यात् धेनुं वापि पयस्विनीम् ॥
अन्यथा विफलं सर्वं कोटिपुरश्चरणेन किम् ।
कुमारी भोजनं येन त्रैलोक्यं तेन भोजितम् ॥
पूजनात् दर्शनात् तस्या रमणात ! स्पर्शनात् प्रिये ।
सर्वं संपूर्णमायाति साधको भक्तिमानसः ॥

भावार्थः ग्रुरु पूजा से दशांश पुरश्चरण संपन्न हो जाता है । अतः श्रद्धाभाव से गुरुपूजा अवश्य करनी चाहिए । पूजा के बाद गुरु को वस्त्र सहित स्वर्ण, धान (तिल) व दूध देनेवाली गाय का दान करना चाहिए । ऐसा न करने से सभी कृत्य निष्फल हो जाते हैं । फिर करोडों पुरश्चरण करने पर भी फलप्राप्ति नहीं होती । हे देवी ! साधना में कुमारी भोजन का भी महत्त्व है । जो साधक कुमारी भोजन कराता है उसे तीनों लोकों में फलरूप में भोजन मिलता है । कुमारी दर्शन भक्तिवत करने से साधक को सभी सिद्धियां हस्तगत होती हैं ।

पुरश्चरण संपन्नो वीर साधनमाचरेत् ।
यस्यानुष्ठान मात्रेण मंदभाग्योपि सिध्यति ॥

भावार्थः हे देवी! पुरश्चरण रीति से यदि मंदबुद्धि साधक भी साधना करता है तो वह सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

पुत्रदाराधनस्नेह लोभमोह विवर्जितः ।
मंत्रं वा साधयिष्यामि देहं वा पातयाम्यहम् ॥
एवं प्रतिज्ञामासाद्य गुरुमाराध्य यत्नतः ।
बलिदानादि सर्वं मानसैः परिपूज्य च ॥
शरत्‌काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी ।
तस्मिन् पक्षे विशेषेण पुरश्चरणमाचरेत् ॥
देव्या बोधं समारभ्य यावत् स्यात् नवमी तिथिः ।
प्रत्यहं प्रजपेन्मंत्रं सहस्रं भक्ति भावतः ॥
होमपूजादिकं चैव यथाशक्त्या विधिं चरेत् ॥
सप्तम्यादौ विशेषेण पूजयेदिष्ट देवताम् ।
अष्टम्यादि नवम्यंतमुपवासपरो भवेत् ॥
अष्टमी नममी रात्रौ पूजां कुर्जात् महोत्सवैः ।
इत्थं जपादिकं कुर्यात् साधकः स्थिरमानसः ॥

भावार्थः स्त्री, पुत्र, धन, स्नेह, लोभ, मोह सादि का त्याग कर साधक को प्रण करना चाहिए कि या तो वह सिद्धि प्राप्त करेगा अन्यथा शरीर त्याग देशा । ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करके गुरु की साराधना, बलि आदि से सर्वतोभावेन मानस पूजा करनी चाहिए तथा उसी काल में विशेष रूप से पुरश्चरण भी करना चाहिए । देवी के बोधन से शुरू करके नवमी तक श्रद्धापूर्वक नित्य १००० बार इष्टदेव के मंत्र का जाप करना चाहिए । जाप के बाद सामर्थ्य के असुसार होम करते हुए सप्तमी आदि तिथियों में इष्टदेव की विशेष पूजा करनी चाहिए । अष्टमी से नवमी तक उपवास कर इन्हीं तिथियों में रात्रि को हर्षोल्लास से पूजा करनी चाहिए । फिर एकाग्र मन से जपादि करना चाहिए ।

शक्त्या सह वरारोहे कुमारी पूजनं चरेत् ।
दशम्यां पारणं कुर्यान्मत्स्या मांसादिभिः प्रिये ॥
एवं पुरस्क्रिया कृत्वा साधकः शिवतां व्रजेत् ।
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ॥
शरत्‌काले महादेव्या बोधने च महोत्सवे ।
प्रतिपत्तिथिमारभ्य नवम्यंतं मम प्रिये ॥
पूर्वोक्त विधिना मंत्री कुर्यात् पुरक्रियां धिया ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ॥
शरत्काले चतुर्थ्यादि नवम्यंतं सहस्रकम् ।
जपित्वा प्रत्यहं भद्रे सप्तम्यादौ प्रपूजयेत् ॥
तथा सर्वोपचारैस्तु वस्त्रालंकार भूषणैः ।
महिषैश्छागलैर्मेषैश्चतुर्वर्गं लभेन्नरः ॥

भावार्थः हे पार्वती ! साधक को चाहिए कि वह सामर्थ्यानुसार कुमारी पूजन कर दशमी तिथि को मत्स्य (मछली) के मांस का भक्षण करे । जो साधक इस रीति से पुरश्चरण करता है वह शिव स्वरूप हो जाता है । एक अन्य पुरश्चरण यह है कि साधक शरतकाल में शारदीय पूजा महोत्सव (नवरात्र) में महादेवी की प्रतिपदा से नवमी तक पूर्व रीति से पूजा करे अथवा शरत्‌कालीन चतुर्थी से नवमी तक नित्य १००० मंत्र जपे । हे देवी ! सप्तमी, अष्टमी, नवमी को तो देवी की पूजा अवश्य ही करनी चाहिए । पूजा के बाद देवी को वस्त्र व अलंकारों से भूषित कर महिष (भैंसा), छाग (बकरा), मेष (मेढा) आदि से संतुष्ट करे तो साधक को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

अष्टमी संधि बेलायां तेनैव विधिना पशुम् ।
छित्वा तस्योपरि स्थित्वा मध्यनक्तं जपेत् सुधिः ॥
विधिर्ध्यानपरो भूत्वा वांछितां सिद्धिमाप्नुयात् ।
नवम्यां नियतं जप्त्वा पूजयित्वा यथाविधि ॥

भावार्थः हे देवी ! अष्टमी तिथि को संध्याकाल में जो साधक पशु का वध करके मध्य रात्रि में उस पर आरूढ होकर मंत्र जाप करता है तथा नवमी तिथि को विधिवत पूजा कर इष्ट का अनवरत ध्यान करता है वह निश्चित ही अभीष्ट पाता है ।

गुरवे दक्षिणां दद्यात् दशम्यां पारयेत्ततः ।
एवं कृत्वा पुरश्चर्यां किं न साधयति साधकः ॥
अष्टमी संधि बेलायामष्टोत्तर लता गृहे ॥
प्रविश्य मंत्री विधिवत्तासामभ्यर्च्य यत्नतः ।
पूर्वोक्त कल्पमासाद्य पूजादिकमथाचरन् ॥
केवलं कामदेवो‍ऽसौ जपेदष्टोत्तरं शतम् ।
महासिद्धौ भवेत् सद्यो लता दर्शन पूजनात् ॥

भावार्थः गुरु को दक्षिणा से संतुष्ट कर दशमी तिथि को जो साधक भोजन पारण करता है वह वांछित फल पाता है । एक अन्य पुश्चरण विधि यह है कि अष्टमी तिथि की संध्या में साधक १०८ लताओं के गृह में जाकर लतागण (शक्ति) की पूर्वविधि से पूजा करे और साथ ही इष्टदेव के मंत्र का १०८ बार जाप करे तो वह कामदेव के समान हो जाता है । अथवा लतागण (शक्ति) के पूजन-दर्शन से साधक को महासिद्धि प्राप्त हो जाती है ।

लता गृहं श्रृणु प्रौढे कामकौतुक लालसे ।
अष्टौ संख्या अतिक्रम्य नव संख्यादि सांख्यिका ॥
यौवनादि गुणैर्युक्ताः साधिकाः काम गर्विता ।
स्त्रियो यत्र गृहे संति तद्‌गृहं हि लता गृहम् ॥

भावार्थः हे प्रौढे ! लतागृह किसे कहते हैं ? वह सुनो । आठ से अधिक नौ संख्या तक यौवन आदि गुणों से युक्त कामगर्विता साधिका ही लता कहलाती है और जहां यह साधिका रहती है वह लतागृह कहलाता है ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
पूर्वोक्तानि महेशानि हेमंतादि गतौ चरेत् ॥
साधकः पूर्णतां प्राप्त सर्व भोगेश्वरो भवेत् ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ॥
चतुर्दशीं समारभ्य यावदन्या चतुर्दशी ।
तावज्जप्ते महेशानि मंत्री वांछितमाप्नुयात् ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
कृष्णाष्टम्यां समारभ्य यावत् कृष्णाष्टमी भवेत् ॥
सहस्र संख्या जप्ते तु पुरश्चरणमिष्यते ।
यत् कृत्वा परमेशानि सिद्धिः स्यान्नात्र संशयः ॥

भावार्थः हे महेशानी ! अब एक और पुरश्चरण विधि बताता हूं । हेमंत ऋतु में पूर्व की भांति ही अनुष्ठान करने से सभी प्रकार के भोगों की प्राप्ति होति है । एक और पुरश्चरण यह है कि चतुर्दशी को जाप शुरू करके आनेवाली चतुर्दशी तक मंत्र जाप करने से भी मनोनुकूल फल मिलता है । कृष्णपक्ष की अष्टमी से अगले कृष्णपक्ष की अष्टमी तक अर्थात एक माह तक नित्य १००० मंत्र जपने से भी सभी प्रकार मी सिद्धियां प्राप्त होती हैं ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
कृष्णां चतुर्दशीं प्राप्य नवम्यंतं महोत्सवे ॥
अष्टमी नवमी रात्रौ पूजां कुर्याद्विशेषतः ।
दशम्यां पारणं कुर्यान्मत्स्य मांसादिभिः प्रिये ।
षट् सहस्रं जपेन्नित्यं भक्तिभाव परायणः ।

भावार्थः एक अन्य पुरश्चरण विधि यह है कि देवी पूजा काल में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से नवमी तिथि तक इष्टदेव का पूजन करना चाहिए । विशेष रूप से अष्टमी व नवमी तिथि की रात्रि में विशेष पूजा करनी चाहिए । फिर दशमी तिथि को मत्स्य (मछली) का मांस भक्षण करना चाहिए । इन दिनों (तिथियों) में नित्य श्रद्धा से ६००० मंत्र का जाप करना चाहिए ।

अथैवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवभ्यां वीरवंदिते ॥
सूर्योदयं समारभ्य यावत् सूर्योदयो भवेत् ।
तावज्जप्ते निरातंकः सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥
अथैवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ॥
अष्टभ्याश्च चतुर्दश्यां पक्षयोरूभयोरपि ।
अस्तमारभ्य सूर्यस्य यावत् सुर्यास्तमं भवेत् ।
तावज्जप्तो निरातंकः सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥

भावार्थ - कुछ अन्य पुरश्चरण इस प्रकार हैं-अष्टमी, नवमी व चतुर्दशी तिथियों को सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक मंत्र का जाप करने से सभी प्रकार की सिद्धियां हस्तगत होती हैं । इसी प्रकार शुक्ल व कृष्णपक्ष की अष्टमी व चतुर्दशी तिथियों को सूर्यास्त से अगले दिन सूर्यास्त तक मंत्र जाप करने से भी सभी सिद्धियां मिलती हैं ।

अथवा निर्ज्जनस्थस्य अस्थिशय्यासनेन च ।
उदयांतं दिवा जप्त्वा सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥
तेनासनेन वा देवी अंतमारभ्य भास्वतः ।
जपित्वा चास्त पर्तंतं साधकः सिद्धिमाप्नुयात् ॥
जपान्ते पूजयित्वा च गुरवे दक्षिणां वदेत् ।
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ॥
सूर्योदयं समारभ्य घटिका च दश क्रमात् ।
ऋतवः स्युर्वसंताद्या अहोरात्रं दिने-दिने ॥
वसंतो ग्रीष्मो वर्षा च शरद्वेमन्त शिशिराः ।
वसंतश्चैव पूर्वान्हे ग्रीष्मो मध्यनंदिनं तथा ॥
अपरान्हे प्रावृषः स्युः प्रदोषे शरदाः स्मृताः ।
अर्धरात्रौ तु हेमंतः शेषे च शिशिरः स्मृतः ॥
सूर्योदयं समारभ्य वसंतांतं समाहितः ।
तावज्जप्ते महेशानि पुरश्चर्या हि सिद्धयति ॥
ततः पूजादिकं कृत्वा शक्तियुक्तश्च साधकः ।
गुरवे दक्षिणां दत्वा सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥

भावार्थः सूने स्थान (जहां एकांत हो) पर अस्थियों का आसन बनाकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक जाप करने से भी सिद्धियां हस्तगत होती हैं । अथवा अस्थि-आसन पर पहले दिन सूर्यास्त से दूसरे दिन सूर्यास्त तक मंत्र का अनवरत जाप करने से भी साधक को सिद्धि प्राप्त होती है । साधक को चाहिए कि जाप के बाद वह गुरु को दक्षिणा देकर संतुष्ट करे । एक अन्य पुरश्चरण विधि यह है कि सूर्योदय से दस घटी (४ घंटे) तक वसंत ऋतु होती है । इसी क्रम से पूर्वान्ह में वसंत, मध्याह्न में ग्रीष्म, अपराह्न में वर्षा, प्रदोष में शरद् अर्द्धरात्रि में हेमंत व शेष रात्रि में शिशिर ऋतु माननी चाहिए । इस तरह सूर्योदय से वसंत समाप्त होने तक साधक जाप करे तो पुरश्चरण सफल रहता है । इसके बाद सामर्थ्यानुसार पूजा कर गुरु को दक्षिणा से संतुष्ट करने पर सभी सिद्धियां हस्तगत होती हैं ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
ग्रीष्मादिषु महेशानि पंचस्वर्त्तषु साधकः ।
पृथग् जप्त्वा वरारोहे पुरश्चर्या हि सिध्यति ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! कोई साधक यदि ग्रीष्म आदि पांच ऋतुओं में अलग-अलग जाप करता है तो पुरश्चरण सफल रहता है ।

पूर्वोक्त विधिना सर्वं कर्त्तव्यं वीर वंदिते ।
ऋतौ जप्त्वा समस्ते तु शक्तितः पूजयेत् पराम् ॥
एवमांचार्य कृत्यं वै धनानामीश्वरो भवेत् ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ।
कुमारी पूजनादेव पुरश्चर्यां विधि स्मृतः ॥

भावार्थः हे वीरवंदिनी ! पूर्व विधि के अनुसार सारे कर्म करने चाहिए । सभी ऋतुओं में (हर दिन में प्रत्येक चार घंटे के बाद ऋतु परिवर्तन होता है) श्रद्धानुसार देवी की पूजा करनी चाहिए । जो साधक इस तरह अनुष्ठान संपन्न करता है वह धनपति होता है अथवा मात्र कुमारी पूजा भी पुरश्चरण का प्रतिफल मिलता है ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
गुरुमानीय संस्थाप्य देववत् पूजयेद्विभुम् ।
वस्त्रालंकार भूषाद्यैः स्वयं संतोषयेद् गुरुम् ॥
तत्सुतं तत्सुतं वापि तत्पत्निं च विशेषतः ।
पूजयित्वा मनुं जप्त्वा सर्वं सिद्धिश्वरो भवेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! पुरश्चरण की एक अन्य विधि यह है कि गुरु को सम्मुख आसन देकर देवतांओं की भांति उसकी पूजा कर वस्त्र, आभूषण, अलंकारादि से संतुष्ट करना चाहिए । अथवा गुरु पुत्र या पौत्र अथवा विशेषकर गुरुपत्नी की पूजा करनी चाहिए । पूजनोपरांत मंत्र जपने से अवश्य ही सिद्धि सुलभ होती है ।

गुरु संतोष मात्रेण दुष्ट मंत्रोऽपि सिद्धयति ।
मासि-मासि च मंत्रस्य संस्कारान् दशधा चरेत् ॥
एवं क्रम विधानेन कृत्वा नित्यं हि साधकः ।
षण्मासाभ्यंतरे वापि एक वर्षांतरेऽपि वा ॥
साधनैःअ सुभगे भद्रे यदि सिद्धिर्न जायते ।
उपायास्तत्र कर्त्तव्याः सत्ययेतन्मतं श्रृणु ॥

भावार्थः हे देवी ! गुरु की संतुष्टि से अनेक दुष्ट या क्रूर मंत्र भी सिद्ध हो जाते हैं । प्रत्येक मास में मंत्र का दशधा (यथा जीवन, जनन, बोधन, ताडन, विमलीकरण, अभिषेक, आप्यायन, तर्पण, गुप्ति व दीपन) संस्कार भी करना चाहिए । इस रीति से साधना करने से छह मास या एक वर्ष में सिद्धि मिल जाती है, हे प्राणप्रिये ! अब उस उपाय को सुनो ।

ख्यातिर्वाहन भूषादि लाभः सुचिर जीविता ।
नृपाणां तत् कुलानां च वात्सल्यं लोक वश्यता ॥
महर्द्यैंश्वर्य नित्यं च पुत्र-पौत्रादि संपदः ।
अधमा सिद्धयो भद्रे षण्मासाभ्यंतरे यदि ॥
एक वर्षांतरे वापि संति शंकर वंदिते ।
साधकाश्च तदा सिद्धा नात्र कार्या विचारणा ॥
अत्रोपायान् प्रवक्ष्यामि यदि सिद्धि विलम्बनम् ।
भ्रमणं बोधनं वश्यं पीडनश्च तथा प्रिये ॥
पोषणं तोषणं चैव दहनं च ततः परम् ।
उपायः संति सप्तैते कृत्वा त्रेता युगेषु च ॥

भावार्थः  प्रसिद्धि, वाहन, भूषण, लाभ, चिरायु, राजा, राजा की कृपा से लाभ, सभी लोकों का वशीकरण, महान ऐश्वर्य की उपलब्धि, पुत्र-पौत्रादि, संपत्ति आदि के लाभ को अधम सिद्धियां कहते हैं । ये छह मास या एक वर्ष में प्राप्त हो जाती है । यदि इस काल में ही ये सिद्धियां प्राप्त हो जाएं तभी साधक की सार्थकता है । इसके अतिरिक्त यदि सिद्धि प्राप्ति मेम विलंब होता है तब त्रेता युग के लिए भ्रामण, बोधन, वश्य, पीडन, पोषण, तोषण, दहनादि उपाय बताए गए हैं ।

द्वापरे च तथा भद्र उपायं सप्तमं स्मृतम् ।
न प्रशस्तं कलौ भद्रे सप्त शंकर भाषितम् ॥
डाकिन्यादि युतं कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनुम् ॥
डाकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
राकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
राकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
लाकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
लाकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
काकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
काकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
शाकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
हाकिनी पुटिंत कृत्वा जपेल्लक्षं समाहितः ।
तदा सिद्धौ भवेन्मंत्रो नात कार्या विचारणा ॥
हाकिनी पुटित कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
पुटितं सत्वरूपिण्या लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
पुटिंत सत्वरूपिण्या यदि सिद्धिर्न जायते ।
ककारादि क्षकारांता मातृका वर्ण रूपिणी ॥
तथा संपुटितं कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ।
छिन्न-विद्यादयो मंत्रातंत्रे तंत्रे निरूपिताः ॥

भावार्थः हे देवी ! यही उपाय द्वापर में भी किए जाने चाहिए । लेकिन कलियुग में इन उपायों का औचित्य नहीं है । ऐसा मेरा (शिव) का मत है । तब डाकिनी आदि का एक लाख बार जाप करना चाहिए । यदि तब भी सिद्धिन मिले तो राकिनी का एक लाख बार जाप करना चाहिए । राकिनी से पुटित मंत्र से भी सिद्धि न मिले तो लाकिनी, काकिनी, शाकिनी आदि का लाख-लाख बार जाप करना चाहिए । शाकिनी के मंत्र का जाप एक लाख बार जपे या फिर डाकिनी का मंत्र एक लाख बार जपे तो सिद्धि अवश्य मिलती है । यदि इतने पर भी सिद्धि न मिले तब सत्वरूपिणी देवी के मंत्र का एक लाख बार जाप करना चाहिए । यदि इससे भी सिद्धि न मिले तो क से क्ष तक वर्णरूपिणी मातृका के मंत्र का एक लाख बार जाप करना चाहिए । छिन्न विद्या आदि मंत्रों को सभी तंतों ने एक स्वर से स्वीकार किया है ।

एते ते सिद्धि मायांति मातृकावर्ण भावतः ।
निश्चितं मंत्रसिद्धि स्यानात्र कार्या विचारणा ॥
वर्णमयी पुटीकृत्य यदि सिद्धिर्न जायते ॥
ततो गुरुं पुटीकृत्य लक्षं च संजपेन्मनूम् ।
गुरुदेव प्रसादेन अतुलां सिद्धिमान्प्नुयात् ॥

भावार्थः हे देवी ! मातृका से युक्त मंत्रों से विविध सिद्धियां मिलती हैं तथा मंत्र की सिद्धि भी होती है । वर्णरूपिणी मातृका युक्त जाप से भी यदि सिद्धि प्राप्त न हो तो गुरुबीज से युक्त मंत्र का एक लाख बार जाप करना चाहिए । ऐसा करने से ग्रुरुकृपा से अतुलनीय सिद्धियां प्राप्त होती हैं ।

N/A

References : N/A
Last Updated : December 28, 2013

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP