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महाकाली मंत्र वर्णन

कालीतंत्र - महाकाली मंत्र वर्णन

तंत्रशास्त्रातील अतिउच्च तंत्र म्हणून काली तंत्राला अतिशय महत्व आहे.


महाकाली मंत्र वर्णन

देव्युवाच
कथयस्व विरूपाक्ष महाकाली मनुं प्रभे ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे विरूपाक्ष (विकृत नेत्रोंवाले) अब आप मेरे निमित्त महाकाली मंत्र का बखान करें ।

ईश्वरोवाच
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि महाकालीमनुं प्रिये ।
यस्य विज्ञानमात्रेन सर्वसिद्धिश्वरो भवेत् ॥
श्रिया विष्णुं समः कान्त्या षड्‌मुखेन समः सुखी ।
शौचेन शुचिना तुल्यो बलेन पवनोपमः ॥
वागीश्वरसमो वाची धनेन धनपः स्वयम् ।
सार्वज्ञे शंभुना तुल्यो दाने दधीचिना समः ॥
आज्ञया देवराजोऽसौ ब्राह्मण्येन प्रजापतिः ।
भृगोरिव तपस्वी च चंद्रवत् प्रीतिवर्द्धनः ॥
तेजसाग्निसमो भक्त्या नारदः शिवकृष्णयोः ।
रूपेण मदनः साक्षात् प्रतापे भानुसन्निभः ॥
शास्त्रचर्चास्वांगिरसो जामदग्न्याः प्रतिज्ञया ।
सिद्धानां भैरवः साक्षात् गंगे च मलनाशकः ॥

भावार्थः महादेव बोले, हे देवी ! अब मैं तुम्हें महाकाली मंत्र बता रहा हूं । इसको जान लेने मात्र से ही साधक को सभी सिद्धियां हस्तगत हो जाती हैं । वह श्री (वैभव) में विष्णु सम, कांति में कार्तिकेय सम, सुखी, पावनता में अग्नि सम, बल में वायु सम हो जाता है । वह वाणी में ब्रह्मा सम, धन में कुबेर सम, सर्वज्ञता में शिव सम,  दान में दधीची सम हो जाता है । आज्ञा पालन कराने में वह देवराज, ब्राह्मणों में ब्रह्मा, तपस्वियों में भृगु सम, चंद्र सम, प्रीतिवर्द्धक, अग्नि सम तेजस्वी, शिव-कृष्ण के प्रति नारद सम भक्तिवाला, रूप में कामदेव सम, प्रताप में सूर्य सम हो जाता है । शास्त्र चर्चा में आंगीरस, प्रतिज्ञा में जमदग्नि सम, सिद्धि में भैरव सम व मलनाशकता में गंगा सम हो जाता है ।

अथवा बहुनोक्तेन किंवा तेन वरानने ।
न तस्य दुरितं किंचित महाकाली स्मेरद्विया ।
शब्दब्रह्ममयीं स्वाहां भोगमौक्षै कदायिकाम् ।
भोगेन मोक्षमाप्नोति श्रुत्वा गुरुमुखात् परम् ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! अधिक कहने से क्या लाभ? जो साधक महाकाली का ध्यान करता है, वह पापरहित हो जाता है । महाकाली शब्दब्रह्मरूपा, स्वाहा रूपिणी, भुक्ति-मुक्तिप्रदात्री हैं । महाकाली की आराधना पद्धति को गुरु से श्रवण करने के बाद भुक्त में ही मुक्ति मिल जाती है ।

तां विद्यां श्रृणु वक्ष्यामि यथा भैरवतां व्रजेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! अब मैं वह विद्या बताता हूं जिसके द्वारा मैंने भैरव रूप पाया है ।

क्रोधीशं क्षतजारूढं धूम्रभैरवलक्षितम् ।
नादविंदुसमायुक्तं मंत्रं स्वर्गेऽपि दुर्लभम् ॥
एकाक्षरीसमा नास्ति विद्या त्रिभुवने प्रिये ।
महाकाली गुह्‌यविद्या कलिकाले च सिद्धिदा ॥

भावार्थः क्रोधीश (क), क्षतजारूढ (र), धूम्रभैरवी (ई) को मिलाकर नाद बिंदु (ॐ) से संयुक्त करने पर क्रीं बीजमंत्र बनता है जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है । हे प्रिये ! इस एकाक्षरी विद्या जैसी कोई भी विद्या तीनों लोकों में नहीं है । कलिकाल में गुप्त विद्या स्वरूपा महाकाली ही सिद्धिदात्री कही गई हैं । अब मैं तुम्हें महाकाली के बारे में बताता हूं ।

अथान्यत् सम्प्रवक्ष्यामि दक्षिणां कालिकां पराम् ।
वाग्भवं बीजमुच्चार्य कामराजं ततः परम् ।
मायाबीजं ततो भद्रे त्र्यक्षरं मंत्रमीरितम् ॥
कामराजं ततो कूर्च्चं मायाबीजमतः परम् ।
अपरं त्र्यक्षरं प्रोक्तं पूर्वोक्तं फलदं प्रिये ॥
हालाहलं समुच्चार्य मायाद्रयमतः परम् ।
एतत्तु त्र्यक्षरं देवी सर्वकामफलप्रदम् ॥

भावार्थः सर्वप्रथम वाग्भव बीज (ऐं), कामबीज (क्लीं) और अंत में माया बीज (ह्नीं) का उच्चारण करने से त्र्यक्षर मंत्र ऐं क्लीं ह्नीं बनता है । इसी तरह काम बीज (क्लीं), कूर्म बीज (हुं) और माया बीज (ह्नीं) का उच्चारण करने से त्र्यक्षर मंत्र क्लीं हुं ह्नीं बनता है । हे देवी ! हलाहल (ॐ) का उच्चारण करने के बाद दो बार मायाबीज (ह्नीं ह्नीं) का उच्चारण करने से त्र्यक्षर ॐ ह्नीं ह्नीं मंत्र बनता है जो सभी कामनाओं का पूरक है ।

एतेषां चैव मंत्राणां फलमंयत् श्रृणु प्रिये ।
कालनियमो नास्ति नारिमित्रादिदूषणम् ॥
कायक्लेशकरं नैव प्रयासो नास्य साधने ।
दिवा वा यदि वा रात्रौ जापः सर्वत्र शोभनः ॥
भोगमोक्षविरोधोऽत्र साधने नास्ति निश्चितम् ।
भोगेन लभते मोक्षं नोऽपि विद्ययानया ॥

भावार्थः हे प्रिये ! अब इन मंत्रों के अन्य फल बताता हूं । ध्यानपूर्वक श्रवण करो । इन मंत्रों के उच्चारण-जाप आदि के लिए समय सीमा का कोई बंधन नहीं है । इसी तरह शत्रु-मित्र आदि का भी विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । और न ही विशेष श्रम या प्रयास की आवश्यकता होती है । इन मंत्रों को किसी भी समय जपा जा सकता है । मंत्र का जाप करने से भुक्ति-मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है । निष्कर्षतः ये विद्याएं भुक्ति में ही मुक्ति प्रदान कर देती हैं ।

अस्या जपात्तथा ध्यानात् लभेन्मुक्तिं चतुर्विधाम् ।
नानया सदृशीविद्या नानया सदृशो जापः ॥
नानया सदृशं ध्यानं नानया सदृशं तपः ।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यपूर्वं वदाम्यहम् ॥
अनया सदृशी विद्या नास्ति सिद्धिः सुगोचरे ।
अथ संक्षेपतो वक्ष्ये पूजाविधिमनुत्तमम् ॥

भावार्थः उपरोक्त मंत्रों के जाप-ध्यान से चार मुक्तियां (सायुज्य, सारूप्य, सालोक्य व सार्ष्टि) की प्राप्ति होती है । इनके जैसी अन्य कोई क्रिया या जपादि नहीं है और न ही ध्यान या तप है । यह मैंने तुमसे सत्य-सत्य कहा है । इन विद्याओं के सदृश विद्या या सिद्धि तीनों लोकों में सुलभ नहीम है । हे देवी ! अब मैं तुम्हें सार रूप में पूजा पद्धति बता रहा हूं ।

विस्तारे कस्य वा शक्तिः को वा जनाति तत्त्वतः ।
पूजा च त्रिविधा प्रोक्ता नित्य नैमित्ति काम्यते ॥
तत्रैव नित्यपूजां च वक्ष्ये तां च निशामय ।
भैरवास्य ऋषि प्रोक्तः उष्णिक् छंद उदाहृतम् ॥
देवता मुनिभिः प्रोक्ता महाकाली पुरातनी ।
विनियोगस्तु विद्यायाः पुरूषार्थ चतुष्टयै ॥

भावार्थः विस्तृत रूप से पूजा कौन कर सकता है ? और कौन इसका तात्त्विक ज्ञान रखता है । हे देवी ! पूजा तीन प्रकार से की जाती है-नित्य, नैमेत्तिक व काम्य । अब पहले नित्य पूजा विधि सुनो । इसके ऋषि भैरव हैं, उष्णिक छंद है, देवता महाकाली है । इस विद्या (पूजा) का विनियोग (ध्येय) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति है ।

पंचशुद्धि विहीनेन यत् कृतं न च तत् कृतम् ।
पंचशुद्धि विना पूजा अभिचाराय कल्प्यते ॥
आत्मशुद्धिः स्थान शुद्धिर्द्रव्यस्य शोधनस्तथा ।
मंत्र शुद्धिर्देवशुद्धिः पंचशुद्धिरितीरिता ॥

भावार्थः हे महेशानी ! पंचशुद्धि के बिना पूजा करना या न करना बराबर है । इसके बिना की जानेवाली पूजा मात्र अभिचार ही है । पंचशुद्धि क्या है? अब वह सुनो । आत्मशुद्धि, स्नान शुद्धि,  द्र्व्यशुद्धि, मंत्रशुद्धि व देवशुद्धि ही पंचशुद्धि कहलाती है ।

भुप्रदेशे समे शुद्धिः पुष्पप्रकरसगकुले ।
आसनं कल्पयेदादौ कोमलं कंबलंतु वा ॥
वामे गुरून् पुनर्नत्वा दक्षिणे गणपतिं विभुम् ।
भूतशुद्धिं तथा कुर्यात् पूजायोग्यो यथा भवेत् ॥

भावार्थः सर्वप्रथम समतल भूमि की शुद्धि करके उपकरणों (द्रव्यों) की शुद्धि करनी चाहिए । यह शुद्धि पुष्पों द्वारा ही की जाती है । शुद्धि के बाद आसन बिछाना चाहिए । इतनी क्रिया करने के बाद वाम भाग (बाईं ओर) गुरु के निमित्त नमस्कार करना चाहिए । दक्षिण (दाईं ओर) गणेश को नमस्कार कर भूतंशुद्धि करनी चाहिए ताकि पूजा में अनुकूलता आए)

प्राणायामादि विधिवत् ऋष्यादिन्यासमाचरेत् ।
आदौ शुद्धिभैरवाय ऋषये नम इत्यथ ॥
उष्णिक् छंदसे नमसा मुखे छंदो विनिर्दिशेत् ।
मम प्रिये महाकाली देवतायै नमो हृदि ॥

भावार्थः अब विधिपूर्वक प्राणायाम करके ऋषिन्यास आदि जो भी न्यास हैं वह करने चाहिए । आदि में (पूर्व में) शुद्धि के ऋषि भैरव को नमस्कार कर उष्णिक छंद को नमस्कार करना चाहिए । नमस्कार करते समय कहना चाहिए कि ‘ हे उष्णिक छंद !  आपको नमस्कार है ।’ ‘हे प्राणप्रिये ! इसके पश्चात ही ह्रदय में महाकाली को नमस्कार करना चाहिए ।

ह्नीं बीजाय नमः पूर्वे हुं शक्तये नमोऽप्यथ ।
कवित्वार्थे विनियोग इति विन्यस्य वांच्छया ॥
केवलां मातृकां न्यस्य बीजन्यासं समाचरेत् ।
ॐ क्रां अंगुष्ठयोर्नस्य ॐ क्रीं तर्जन्योर्नमः ॥
ॐ क्रूं मध्यमयोर्नस्य ॐ क्रैं अनामिकाद्वयोः ।
ॐ क्रौं कनिष्ठिकायुगले ॐ क्रः करतले तथा ॥
पुनर्हृदयादिष्वेतै ज्योतियुक्तैः षडंगकम् ।
षट्‌दीर्घं भावं स्वबीजैः प्रणवाद्यैस्तु विन्यसेत् ॥

भावार्थः पूर्व दिशा में ह्नीं बीज को नमस्कार करने के लिए ह्नीं बीजाय नमः का उच्चारण करना चाहिए । इसके बाद शक्ति को नमस्कार करने के लिए हुं शक्तयै नमः का उच्चारण करना चाहिए । कवित्व की कामना के निमित्त न्यास करना चाहिए । फिर मातृका न्यास कर बीज न्यास करना चाहिए । ॐ क्रां इस मंत्र से अंगूठों का न्यास किया जाता है । इसी तरह ॐ क्रीं मंत्र से तर्जनी उंगलियों का न्यास ॐ क्रूं मंत्र से मध्यमाओं का ॐ क्रैं मंत्र से अनामिकाओं का, ऊं क्रौं से कनिष्ठिका उंगलियों का तथा ॐ क्रः करतले फट् से करतलों का न्यास किया जाता है । इसके बाद हृदयादि अंगन्यास प्रणवादि स्वबीज द्वारा ही इस विधि से करना चाहिए । यथाः ॐ हृदयाय नमः, ॐ शिरसे स्वाहा, ॐ शिखायै वषट्, ॐ कवचाय हुं, ॐ नेत्र त्रयाय वौषट्, ॐ करतलकर पृष्ठाभ्यां फट् । यहां स्वबीज का तात्पर्य गुरु प्रदत्त बीजमंत्र से है । जिसके पूर्वभाग में प्रणव हो ।

वर्णन्यासं तथा कुर्यात् येन देवीमयो भवेत् ।

भावार्थः हे देवी ! अब साधक को वर्णन्यास इस रीति से करना चाहिए, जिसमें वह स्वयं देवीस्वरूप हो जाए । यथाः

अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लु लृ च ह्रदये न्यसेत् ॥
ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ वै दक्षिणे भुजे ।
ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ वै वामके भुजे ॥
ण त थ द ध न प फ ब भ दक्ष जंघके न्यसेत् ।
म य र ल व श ष स ह ल क्ष वाम जंघके ॥
पंचधा सप्तधा वापि मूलविद्यां समुच्चरन् ।
शिव आदि च पादान्तं न्यसेद्‌व्यापकमुत्तमम् ॥
नित्य न्यास इति प्रोक्तं सर्व एव सुखावहः ।
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि भैरवाकारदायकम् ॥

भावार्थः अं आं इं ईं ऊं ऊं ॠं ॠं लॄं लृं नमः । (हृदय का न्यास करे)
एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं नमः (दाईं बांह का न्यास करे)
ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं नमः ( बाईं बांह का न्यास करे)
तं थं दं धं नं पं फं बं भं नमः (दाईं जंघा का न्यास करे)
मं चं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं नमः । (बाईं) जंघा का न्यास करे)

इस तरह मूल बीजमंत्र का उच्चारण कर पांच या सात बार न्यास करना चाहिए । शीश से पैर तक श्रेष्ठ विधि से पूर्वन्यास करना चाहिए । इस प्रकार से नित्या न्यास करना चाहिए जो साधकों के लिए सुखद कहा गया है । हे देवी ! अब ध्यान विधि बताता हूं जिससे भैरव रूप की प्राप्ति होती है ।

हिमालयगिरेर्मध्ये नगरे भैरवस्य च ।
दिव्यस्थाने महापीठे मणिमंडपराजिते ॥
नारदाद्यर्मुनिश्रेष्ठैः संसोवित पदांबुजाम् ।
तत्र ध्यायेन्महाकालीमाद्यां भैरववंदिताम् ॥

भावार्थः हिमालय पर्वत के मध्य (श्रृंग पर्वत) या भैरव की नगरी (काशी) आदि दिव्य स्थलों में मणिमंडप से सज्जित महापीठ में जहां नारद आदि मुनियों द्वारा सेवित जिनके चरण कमल हैं तथा जो भैरव स्तुत्य हैं उन महाकाली का ध्यान करना चाहिए ।

नोलेंदीवरवर्णिनीं युग्मपीन तुंगस्तनीम् ।
सुप्तश्रीहरिपीठराजितवतीं भीमां त्रिनेत्रां शिवाम् ॥
मुद्रा खड्‌गकरां वराभययुतां चित्रांबरोद्दीपनीं ।
वंदे चंचल चंद्रकांतमणिभिर्मालां दधानां पराम् ॥

भावार्थः हे देवी ! अब महाकाली के ध्यान स्वरूप को बताता हूं । उन महाकाली का वर्ण इंदीवर (नीले कमल पुष्प) के समान है, स्तन उन्नत हैं । वह महाकाली विष्णु की शय्या शेषनाग की भांति सुशोभित हैं, जो भयंकर होने पर भी शिवस्वरूपा व तीन नेत्रोंवाली हैं । वह मुद्रा, खड्‌ग धारण किए हैं तथा वर व अभय प्रदान करनेवाली हैं । महाकाली चित्रांबर से सुशोभित हैं । उनके गले मं चंद्रकांत आणि की माला सुशोभित है । उन महाकाली की हम वंदना करते हैं ।

ध्यानांतरं प्रवक्ष्यामि श्रृणु गौरी गिरेः स्मृते ।
तत्र पीठे महादेवीं कालीं दानव सेविताम् ॥
मेघांगी विगतांबरा शवशिवारूढां त्रिनेत्रां पराम् ।
कर्णालंबित वाणयुग्मलसितां मुंडावलीमंडिताम् ॥
वामाघोर्ध्व करांबुजे नरः शिरः खडगं च सव्येतरे ।
दानाभीति विमुक्त केशनिचया ध्येया सदा कालिका ॥

भावार्थः हे हिमनंदिनी ! महाकाली के ध्यान की एक और विधि बताता हूं । वह महाकाली सदैव असुरों द्वारा सेवित हैं । असुरों द्वारा सेवित महाकाली का स्वरूप इस प्रकार हैः महाकाली का अंग मेघ के सदृश है । दिशाएं ही उनके वस्त्र हैं, वह शव पर आसीन व त्रिनेत्री हैं । उनके कान लंबे हैं जो बाणों की भांति शोभा पाते हैं । वह मुंडों की माला धारण किए हैं । उनके बाएं हाथों में ऊपर व नीचे की ओर एक-एक मुंड सुशोभित है । दाएं हाथ में खड्‌ग है । उनकी केशराशि खुली है । महाकाली के इस स्वरूप का भी ध्यान करना चाहिए ।

अपरं च प्रवक्ष्यामि ध्यानं परमदुर्लभम् ।
कालीं करालवदनां घोरदंष्ट्रा त्रिलोचनाम् ।
स्मरेच्छवकरश्रेणी कृतकांचीं दिगंबराम् ॥
वीरासनसमासीनां महाकालोपरिस्थताम् ।
श्रुतिमूलसमाकीर्ण सृक्कणीं घोरनादिनीम् ॥
मुंडमालागलद्रक्त चर्वितां पीवर स्तनीम् ।
मदिरामोदितास्फालकंपिताखिल मेदिनीम् ॥
वामे खड्‌गं छिन्नमुंडं धारिणीं दक्षिणे करे ।
वरामययुतां घोर वदनां लोलजिह्विकाम् ॥
शकुंतपक्ष संयुक्तं वाणकर्ण विभूषिताम् ।
शिवाभिर्घोररावाभिः सेवितां प्रलयोदिताम् ॥
चंडहास चंडनाद चंडाख्यानैश्च भैरवैः ।
गृहीत्वा नरकंकाले जयशब्द परायणैः ॥
सेविताखिलसिद्धौधैर्मुनिभिः सेवितां पराम् ।
एषामन्यतमं ध्यानं कृत्वा च साधकोत्तमः ॥

भावार्थः हे देव ! महाकालीके एक और स्वरूप का वर्णन करता हूं । यह स्वरूप सृष्टि में यदा-कदा ही देखने को मिलता है । सुनो ! महाकाली विचित्र मुखवाली, त्रिनेत्री, विकराल दाढों वाली हैं तथा जो शवों के हाथों की माला धारण किए हैं । उन वस्त्रविहीना काली का ध्यान करना चाहिए । वह महाकाली महाकाल (रुद्र या शिव) के ऊपर वीरासन मुद्रा में आरूढ हैं, जिनके होंठों के किनारे कानों तक विस्तृत हैं, जो सदैव प्रचंड नाद करती रहती हैं । जिनके गले में पडीं मुंडमाल से रक्त प्रवाहित हो रहा है, जिनके पीवर (स्तन) स्थूल हैं । वह देवी मद्यपान कर पृथ्वी को कंपायमान कर रही हैं । जिनके बाएं हाथों में खड्‌ग व दाएं हाथों में कटे हुए मुंड हैं । जो वर व अभय प्रदान करती हैं । जिनका मुख विकट है, जिह्वा लपलपा रही है । ऐसी काली का ध्यान करना चाहिए । जिनके कान शकुतंपक्ष युक्त बाण द्वारा सुशोभित हैं । जो प्रलय काल के समान नाद कर रही हैं तथा शिवाओं द्वारा सेवित हैं । उन महाकाली के पास प्रचंड हास्य, नाद व कलरव करते भैरवगण नरकंकाल धारण किए रहते हैं । जो सिद्धों व मुनियों द्वारा सेवित हैं । ऐसी महाकाली का ध्यान करना चाहिए ।

मानसैरूपचारैश्च सोऽहमानमर्चयेत् ॥
ततो देवीं समभ्यर्च्यं अर्घ्यंद्वयं निवेद्‌येत् ॥

भावर्थः हे देवी ! महाकाली के उपरोक्त रूप का ध्यान करते समय मानसिक रूप से सोऽहं मंत्र का जाप करना चाहिए । इसके बाद महाकाली की पूजा समाप्त कर अर्घ्य प्रदान करना चाहिए ।

दशपंचाश पद्मेषु पीठपूजां समाचरेत्,
तत्राबाह्य महादेवी नियमेन समाहितः ।
ततो ध्यायेन्महादेवीं कालिकां कुलभूषणम् ॥

भावार्थः अब मणिपूर में महाकाली की पूजा कर पीठ पूजा करनी चाहिए । यहां साधक को कौलिकों की भूषण स्वरूपा महाकालिका देवी का ध्यान करना चाहिए ।

महाकालं यजेत् यत्नात् पीठशक्तिं ततो यजेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! सर्वप्रथम महाकाल की पूजा करनी चाहिए । तदोपरांत पीठस्थ शक्ति की विधिवत पूजा करनी चाहिए ।

कालीं कपालिनीं कुल्लां कुरुकुल्लां विरोधिनीम् ।
विप्रचितां तथा चैव बहिः षट्‌कोणके पुनः ॥
उग्रामुग्रप्रभां दीप्तां तत्र त्रिकोणके पुनः ।
नीलां घनां बलाकां च तथा पर त्रिकोणके ॥

भावार्थः पीठस्थ शक्ति का स्वरूप इस प्रकार हैः यथा वह कालीं कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला व विरोधिनी है । नाना प्रकृष्ट चित्तवाली काली की बहिर्पूजा के बाद पुनः स्वाधिष्ठान में पूजा करनी चाहिए । स्वाधिष्ठान में पूजनोपरांत मूलाधार में उग्रमूर्ति काली की पूजा करनी चाहिए । अंत में त्रिकोण में नील मेघवत् बलाका देवी की पूजा करनी चाहिए ।

मात्रां मुद्रां नित्यां चैव तथैवांतस्त्रिकोणके ।
शर्वा श्यामा असिकरा मुंडमाला विभूषणा ॥
तर्ज्जनीं वामहस्तेन धारयंती शुचिस्मिता ।
ब्रह्माद्यास्तथा बाह्ये यजेत् पूर्वदलक्रमात् ॥

भावार्थः अंतः त्रिकोण में मुद्रा प्रदर्शित कर देवी का ध्यान करना चाहिए । ध्यान स्वरूप इस प्रकार हैः वह देवी शर्वा, श्यामा हैं, हाथ में खड्‌ग धारण किए हैं । गले में मुंडमाला है । जो मंदहास्य से युक्त हैं । बाएं हाथ में तर्जनी है । इसके बाद ब्राह्मी आदि देवियों की भी पूर्ववत क्रमानुसार बाह्य पूजा करनी चाहिए ।

ब्राह्नी नारायणी चैव तथैव च महेश्वरी ।
चामुंडापि च कौमारी तथा चैवापराजिता ॥
वाराही च तथा पूज्या नारसिंही तथैव च ।
सर्वासामपि दातव्या बलिः पूजा तथैव च ॥
अनुलेपनम् गंधं धूपदीपौ च पानकम् ।
त्रिस्त्रिः पूजा च कर्त्तव्या सर्वासामपि साधकैः ॥

भावार्थः हे पार्वती ! बाह्मी, नारायणी, माहेश्वरी की पूजा के साथ ही चामुंडा, कौमारी, अपराजिता, वाराही, नारसिंही की भी पूजा करनी चाहिए । पूजा के बाद देवयों के निमित्त बलि पूजा कर अनुलेपन, गंध, धूप, दीप, तांबूल निवेदन करना चाहिए । पूर्व में कही गई सभी देवियों की क्रमशः तीन-तीन बार पूजा करनी चाहिए ।

पुनर्गंधादिभिः पूजा जप्त्वा शेषं समर्पयेत् ।
समयं चार्चयेत् देव्या योगिनी-योगिभिः सह ॥
मधु मांस तथा मत्स्यं यत् किंचित् कुलसाधनम् ।
शक्त्यै दत्वा ततः पश्चात् गुरुवे विनिवेदयेत् ॥
तदनुज्ञां मूर्ध्नि कृत्वा शेषं चात्मनि योजयेत् ।
मधु मांसं विना यस्तु कुल पूजां समाचरेत् ।
जन्मांतर सहस्रस्य सुकृतिस्तस्य नश्यति ॥

भावार्थः  गंधादि पूजन के बाद यथासामर्थ्य जप करना चाहिए । ध्यान रहे कि योगिनी-योगी की पूजा साथ ही करें । कुल साधन (मद्य, मांस, मत्स्य) द्वारा कुलाम्नाय मत में बताए उपचारों से पूजा कर पहले शक्ति को ये द्रव्य अर्पित कर फिर गुरु को द्रव्य अर्पित करना चाहिए । इसके पश्चात गुरु का आदेश मानते हुए नैवंद्य (प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए । हे देवी ! जो साधक मधु-मांसादि के बिना कुलपूजन करता है उसके हजार जन्मों के शुभ कर्म क्षीण हो जाते हैं ।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन मकार पंचकैर्यजेत् ।
मधुना न विनामंत्रं न मंत्रेन विना मधुः ।
परस्पर विरोधेन कथं सिध्यंति साधकाः ॥

भावार्थः हे पार्वती ! इस तरह पंच मकार से पूजा करनी चाहिए । क्योंकि मद्य के बिना मंत्र तथा मंत्र के बिना मद्य वियुक्तावस्था के प्रतीक हैं । इनकी वियुक्ति से मंत्र सिद्धि संभव नहीं है ।

कुंड कुंभ कपालादि पदार्थानां निषेधनम् ।
सौरे तंत्रे विरुद्धं च शैवे शाक्ते महाफलम् ॥

भावार्थः सौरतंत्र में कुंड, कुंभ व कपाल आदि पदार्थों के सेवन का निषेध किया गया है । लेकिन शैव और शाक्त मत में इनको विशेष फलदायी कहा गया है ।

ब्रह्मांडखंड संभूतमशेष रत्न संभवम् ।
श्वेत पीतं सुगंधिं च निर्मलं भूरि तेजसम् ॥
अथवा कुभमध्येऽस्मिन् स्रवंतं परमामृतम् ।
अंतर्लयो बहिर्मध्ये त्रिकोणोदर वर्त्तिनी ॥
तद्वाह्‌यं स्फाटिकोदार मणिचंद्रं च मंडलम् ।
तेनामृतेन तद्वाह्‌ये चिंतयेत् परमामृतम् ॥

भावार्थः शरीर के ऊर्ध्व देश (सहस्रार) से निरंतर परम अमृत बहता रहता है । इस सहस्त्रार में स्थित त्रिकोण से बहते अमृत का ध्यान करने से अंतर्वृत्ति हो जाती है । (शरीर को ब्रह्मांड खंड से उत्पन्न अनंत रत्न, श्वेत, पीत, सुगंध निर्मल व प्रभूत तेज संपन्न कुंभ कहा गया है ।) स्फटिक सदृश स्वच्छ मणियुक्त पात्र में जो बाहरी अमृत है उसके द्वारा परम अमृत का मनन करना चाहिए ।

आरंभस्तरुणः प्रौढस्तदंते तु न्यासः पुनः ।
ऐभिरुल्लासवान् योगी स्वयं शिवमयो यतः ॥
सर्वशेषे च देवेशि सामान्यार्घ्यं पदेऽर्पयेत् ।
विशेषार्घ्यं शिरे द्त्वा देव्याः प्रियतमो भवेत् ॥
सांगक्रिया पदे द्त्वा सामान्यार्घ्यं शिवे भवेत् ।
इत्युक्त्वा स परामयी शक्तितोषण कारकः ॥
भोगेन लभते मोक्षं बहुना जल्पितेन किम् ।
नियमः पुरुषे ज्ञेयो न योषित्सु कदाचन ॥
यद्वा तद्वा येन केन सर्वदा सर्वतोऽपि च ।
योषितां ध्यान योगेन शुद्धशेषं न संशयः ॥
बालाम्बा यौवनोन्मत्तां वृद्धां वा युवतीं तथा ।
कुत्सितांबा महादुष्टां नमस्कृत्य विसर्जयेत् ॥
तासां प्रहारो निंदां च कौटिल्यमप्रियं तथा ।
सर्वथा न च कर्त्तव्यं अन्यथा सिद्धिरोधकृत् ॥

भावार्थः चिंतन या मनन के प्रारंभ में तारुण्यावस्था फिर प्रौढावस्था प्राप्त होती है । इसके बाद न्यास करना चाहिए । इस प्रकार के अनुष्ठान से आनंद की प्राप्ति होती है और साधक शिव समान हो जाता है । हे देवेश्वरी ! समस्त क्रियाओं के अंत में देवी के चरणों में अर्घ्य देना चाहिए । शीश भाग पर अर्घ्य देने से साधक देवी को प्रिय होता है । इस प्रकार हे देवेश्वरी ! क्रियोपरांत देवी के चरणों में सभी कर्म अर्पित करने के बाद शीश भाग पर अर्घ्य अवश्य देना चाहिए । उन पराशक्ति (पार्वती) को प्रमुदित रखनेवाले शिव ने उपदेश करते हुए कहा कि हे देवी ! इस मार्ग द्वारा भुक्ति से मुक्ति मिलती है । अधिक कहने से क्या लाभ है । इस मार्ग के सभी नियमोपनियम पुरुष वर्ग के लिए ही हैं । स्त्री वर्ग के लिए नियमों का कोई बंधन नहीं है । स्त्री जाति किसी भी रीति से मात्र ध्यान करने पर भी विशुद्ध मानी जाती है । यह सत्य है । हे देवी ! बालिका, युवती, वुद्धा, कुत्सिता, महादुष्टा आदि सभी तरह की स्त्रियों को नमस्कारपूर्वक विदा करना चाहिए । स्त्रियों पर प्रहार करने या उनसे दुराचरण करने से सिद्धि के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न होता है ।

इति ते कथितं शेषमाचरेत् लक्षणं प्रिये ।
नित्यपूजाक्रमं भक्त्या ज्ञात्वा सिद्धिमवाप्नुयात् ॥

भावार्थः हे प्राणवल्लभे ! उपरोक्त रीति से साधना करने व नित्यपूजा-अनुष्ठान से सिद्धि हस्तगत होती है ।

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Last Updated : December 28, 2013

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