द्वितीय पाद - राजा जनकको उपदेश

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


सूतजी कहते हैं -

ब्राह्मणो ! सनन्दनजीका मोक्षधर्मसम्बन्धी वचन सुनकर तत्त्वज्ञ नारदजीने पुन ; अध्यात्मविषयक उत्तम बात पूछी ।

नारदजी बोले -

महाभाग ! मैंने आपके बताये हुए अध्यात्म और ध्यानविषयक मोक्ष - शास्त्रको सुना , यह सब बार - बार सुननेपर भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ( अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़्ती जा रही है ) । सर्वज्ञ मुने ! जीव अविद्याके बन्धनसे जिस प्रकार मुक्त होता है , वह उपाय बताइये । साधु पुरुषोंने जिसका आश्रय ले रखा है , उस मोक्ष - धर्मका पुन : वर्णन कीजिये ।

सनन्दनजीने कहा -

नारद ! इस विषयमें विद्वान् ‌ पुरुष इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं । जिससे यह ज्ञात होता है कि मिथिलानरेश जनकने किस प्रकार मोक्ष प्राप्त किया था । यह उस समयकी बात है , जब मिथिलामें जनकवंशी राजा जनदेवका राज्य था । जनदेव सदा ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाले धर्मोंका ही चिन्तन किया करते थे । उनके दरबारमें एक सौ आचार्य बराबर रहा करते थे , जो उन्हें भिन्न - भिन्न आश्रमोंके धर्मोंका उपदेश देते रह्ते थे । ’ इस शरीरको त्याग देनेके पश्चात् ‌‍ जीवकी सत्ता रहती है या नहीं ? अथवा देह - त्यागके बाद उसका पुनर्जन्म होता है या नहीं ?’ इस विषयमें उन आचार्योंका जो सुनिश्चित सिद्धान्त था , वे लोग आत्मतत्त्वके विषयमें जैसा विचार उपस्थित करते थे , उससे शास्त्रानुयायी राजा जनदेवको विशेष संतोष नहीं होता था । एक बार कपिलाके पुत्र महामुनि पञ्चशिख सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमा करते हुए मिथिलामें आ पहूँचे । वे सम्पूर्ण संन्यास - धर्मोंके ज्ञाता और तत्त्वज्ञानके निर्णयमें एक सुनिश्चित सिद्धन्तके पोषक थे । उनके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था । वे निर्द्वन्द्व होकर विचरा करते थे । उन्हें ऋषियोंमें अद्वितीय बताया जाता है । कामना तो उन्हें छू भी नहीं गयी थी । वे मनुष्योंके हृदयमें अपने उपदेशद्वारा अत्यन्त दुर्लभ सनातन सुखकी प्रतिष्ठा करना चाह्ते थे । सांख्यके विद्वान ‌‍ तो उन्हें साक्षात् ‌‍ प्रजापति महर्षि कपिलकाही स्वरूप समझते हैं । उन्हें देखकर ऐसा जान पड़्ता था , मानो सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक भगवान् ‌‍ कपिल स्वयं पञ्चशिखके रूपमें आकर लोगोंको आश्चर्यमें डाल रहे हैं । उन्हें आसुरि मुनिका प्रथम शिष्य और चिरञ्जीवी बताया जाता है । एक समय उन्होंने महर्षि कपिलके मतका अनुसरण करनेवाले मनियोंकी विशाल मण्डलीमें जाकर सबमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित परमार्थस्वरूप अव्यक्त ब्रह्मके विषयमें निवेदन किया था और क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञका अन्तर स्पष्टरूपसे जान लिया था । यही नहीं , जो एकमात्र अक्षर एवं अविनाशी ब्रह्म नाना रूपोंमें दिखायी देता है , उसका ज्ञान भी आसुरिने उस मुनिमण्डलीमें प्राप्त किया था , उन्हींके शिष्य पञ्चशिख थे , जो देव - कोटिके पुरुष होते हुए भी मानवीके दूधसे पले थे । कपिला नामकी एक ब्राह्मणी थी , जो पति - पुत्र आदि कुटुम्बके साथ रह्ती थी ; उसीके पुत्रभावको प्राप्त होकर वे उसके स्तनोंका दूध पीते थे । अत : कपिलाका दूध पीनेके कारण उनकी कापिलेय संज्ञा हुई । उन्होंने नैष्ठिक ( ब्रह्ममें निष्ठा रखनेवाली ) बुद्धि प्राति की थी । कापिलेयकि उत्पत्तिके सम्बन्धमें यह बात मुझे भगवान् ‌‍ ब्रह्माजीने बतायी थी । उनके कपिलापुत्र कहलाने और सर्वज्ञ होनेका यही उत्तम वृत्तान्त है । धर्मज्ञ पञ्चशिखने उत्तम ज्ञान प्राप्त किया था । वे राजा जनकको सौ आचार्योंपर समानभावसे अनुरक्त जानकर उनके दरबार्में गये । वहाँ जाकर उन्होंने अपने युक्तियुक्त वचनोंसे उन सब आचार्योंको मोहित कर दिया । उस समय महाराज जनक कपिलानन्दन पञ्चशिखका ज्ञान देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो गये और अपने सौ आचार्योंको छोड़्कर उन्हींके पीछे चलने लगे । तब मुनिवर पञ्चशिखने राजाको धर्मानुसार चरणोंमें पड़ा देख उन्हें योग्य अधिकारी मानकर परम मोक्षका उपदेश किया , जिसका सांख्य - शास्त्रमें वर्णन है । उन्होंने ’ जातिनिर्वेद ’ का वर्णन करके ’ कर्मनिर्वेद ’ का उपदेस किया । तत्पश्चात् ‌‍ ’ सर्वनिर्वेद ’ की बात बतायी । उन्होंने कहा - जिकसे लिये धर्मका आचरण किया जाता है , जो कर्मोंके फलका उदय होनेपर प्राप्त होता है , वह इहलोक या परलोकका भोग नश्वर है । उसपर आस्था करना उचिता नहीं । वह मोहरूप चञ्चल और अस्थिर है ।

कुछ नास्तिक ऐसा कहा करते हैं कि ’ देहरूपी आत्माका विनाश प्रत्यक्ष देखा जा रहा है , सम्पूर्ण लोक इसका साक्षी है ; फिर भी यदि कोई शान्त्र - प्रमाणकी ओट लेकर देहसे भिन्न आत्माकी सत्ताका प्रतिपादन करता है तो वह परास्त ही है ; क्योंकि उसका कथन लोकानुभवके विरुद्ध है । आत्माके स्वरूपका अभाव हो जाना ही उसकी मृत्यु है । जो लोग मोहवश आत्माको देहसे भिन्न मानते हैं , उनकी वह मान्यता ठीक नहीं है । यदि ऐसी वस्तुका भी अस्तित्व मान लिया जाय , जो लोकमें सम्भव नहीं है अर्थात् ‌‍ यदि शास्त्रके आधारपर यह स्वीकार किया जाय की शरीरसे भिन्न कोई अजर - अमर आत्मा है , जो स्वर्ग आदि लोकोंमें दिव्य सुख भोगता है , तब तो बंदीलोग , जो राजाको अजर - अमर कह्ते हैं , उनकी वह बात भी ठीक माननी पड़ेगी । सारांश यह है कि जैसे बंदीलोग आशीर्वादमें उपचारतः राजाको अजर - अमर कहते हैं , उसी प्रकार शास्त्रका वह वचन भी औपचारिक ही है । नीरोग शरीरको ही अजर - अमर और यहाँके प्रत्यक्ष सुख - भोगको ही स्वर्गीय सुख कहा गया है । यदि आत्मा है या नहीं - यह संशय उपस्थित होनेपर अनुमानसे उसके अस्तित्वका साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्ध होता , जो कहीं व्यभिचरित न होता हो ; फिर किस अनुमानका आश्रय लेकर लोक - व्यवहारका निश्चय किया जा सकता है । अनुमान और आगम - इन दोनों प्रमाणोंका मूल्य प्रत्यक्ष प्रमाण है । आगम या अनुमान यदि प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है , उसकी प्रामाणिकता स्वीकार नहीं की जा सकती ।जिस किसी भी अनुमानमें ईश्वर , अदृष्ट अथवा नित्य आत्माकी सिद्धिके लिये की हुई भावना भी व्यर्थ है ; अत : नास्तिकोंके मतमें शरीरसे भिन्न जीवका अस्तित्व नहीं है , यह बात स्थिर हुई । जैसे वटवृक्षके बीजमें पत्र , पुष्प , फल , मूल तथा त्वचा आदि अन्तर्हित होते हैं , जैसे गायके द्वारा खायी हुई घासमेंसे घी , दूधा आदि प्रकट हो जाते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध - द्वव्योंका पाक एवं अधिवासन करनेसे उसमें नशा पैदा करनेवाली शक्ति आ जाती है , उसी प्रकार वीर्यसे ही शरीर आदिके साथ चेतनता भी प्रकट होती है । ’

( इस नास्तिक मतका खण्डन इस प्रकार समझना चाहिये ) मरे हुए शरीरमें जो चेतनताका अतिक्रमण देखा जाता है , वही देहातिरिक्त आत्माके अस्तित्वमें प्रमाण है । यदि चेतनता देहका ही धर्म होता तो मृतक शरीरमें भी उसकी उपलब्धि होती । मृत्युके पश्चात् ‌‍ कुछ कालतक शरीर तो रहता है , पर उसमें चेतनता नहीं रह्ती । अत : चेतन आत्मा शरीरसे भिन्न है - यह सिद्ध होता है । नास्तिक भि रोग आदिकी निवृत्तिके लिये मन्त्रजप तथा तान्त्रिक - पद्धतिसे देवता आदिकी आराधना करते हैं । वह देवता क्या है ? यदि पाञ्चभौतिक है तो घट आदिकी भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थोंसे भिन्न है तो चेतनकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो गयी । अतः देहसे भिन्न आत्मा है - यह प्रत्यक्ष अनुभवसे सिद्ध हो जाता है ; और देह ही आत्मअ है , यह प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध जान पड़्ता है । यदि शरीरकी मृत्युके साथ आत्माकी भी मृत्यु मान ली जाय , तब तो उसके किये हुए कर्मोंका भी नाश मानना पड़ेगा ; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेवाला कोई नहींअ रह जायगा और देहकी उत्पत्तिमें अकृताभ्यागम ( बिना किये हुए कर्मका ही भोग प्राप्त हुआ ऐसा ) माननेका प्रसङ्र उपस्थित होगा । ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्त चेतन आत्माकी सत्ता अवश्य है । नास्तिकोंकी ओरसे जो हेतुभूत दृष्टान्त दिये गये हैं , वे मूर्त पदार्थ हैं । मूर्त जड - पदार्थसे मूर्त जड - पदार्थकी ही उत्पत्ति होती है - यही उनके द्वारा सिद्ध होता है । जैसे काष्ठसे अग्रिकी उत्पत्ति आदि । पञ्चभूतोंसे आत्माकी उतपत्तिकी भाँति यदि मूर्तसे अमूर्तकी उत्पत्ति मानी जाय तो पृथ्वी आदि मूर्त भूतोंसे अमूर्त आकाशकी भी उत्पत्ति स्वीकार करनी पड़ेगी , जो असम्भव है । अतः स्थूल भूतोंके संयोगसे अमूर्त चेतन आत्माकी उत्पत्ति सर्वथा असम्भव है ।

आत्माकी सत्ता न माननेपर लोकयात्राका निर्वाह नहीं होगा । दान , धर्मके फलकी प्राप्तिके लिये कोई आस्था नहीं रहेगी ; क्योंकि वैदिक शब्द तथा लौकिक व्यवहार सब आत्माको ही सुख देनेके लिये हैं । इस प्रकार मनमें अनेक प्रकारके तर्क उठते हैं और उन तर्कों तथा युक्तियोंसे आत्माकी सत्ता या असत्ताका निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता । इस प्रकार विचार करते हुए भिन्न - भिन्न मतोंकी ओर दौड़्नेवाले लोगोंकी बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्षकी भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है । इस प्रकार अर्थ और अनर्थसे सभी प्राणी दु : खी रह्ते हैं । केवल शास्त्र ही उन्हें खींचकर राहपर लाते हैं , ठीक उसी तरह , जैसे महावत हाथीपर अङ्कुश रखकर उन्हें काबूमें किये रह्ते हैं । बहुत - से शुष्क ह्रदयवाले लोग ऐसे विषयोंकी लिप्सा रखते हैं , जो अत्यन्त सुखदायक हों ; किंन्तु इस लिप्सामें उन्हें भारी - से - भारी दु ; खोंका ही सामना करना पड़्ता है और अन्तमें वे भोगोंको छोड़्कर मृत्यके ग्रास बन जाते हैं । जो एक दिन नष्ट होनेवाला है , जिसके जीवनका कुछ ठिकाना नहीं , ऐसे अनित्य शरीरको पाकर इन बन्धु - बान्धवों तथा स्त्री - पुत्रादिसे क्या लाभ है ? यह सोचकर जो मनुष्य इन सबको क्षणभरमें वैराग्य़ूर्वक त्यागकर चल देता है , उसे मृत्युके बाद फिर जन्म नहीं लेना पड़्ता । पृथ्वी , आकाश , जल , अग्रि और वायु - ये सदा शरीरकी रक्षा करते रह्ते हैं , इस बातको अच्छी तरह समझ लेनेपर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है ? जो एक दिन मृत्युके मुखमें पड़्नेवाला है , ऐसे शरीरसे सुख कहाँ ?

पञ्चशिखने फिर कहा -

राजन् ‌ ! अब मैं उस परम उत्तम सांख्यशात्रका वर्णन करता हूँ , जिसका नाम है - सम्यड्‌‍मन ( मनको संदेहरहित करनेवाला ), उसमें त्यागकी प्रधानता है । तुम ध्यान देकर सुनो । उसका उपदेश तुम्हारे मोक्षमें सहायक होगा । जो लोग मुक्तिके लिये प्रयत्नशील हों , उन सबको चाहिये कि सम्पूर्ण सकाम कर्मोंका और धन आदिका भी त्याग करें । जो त्याग किये बिना व्यर्थ ही विनीत

( शम - दमादि साधनोंमें तत्पर ) होनेका झूठा दावा करते हैं , उन्हें दु : ख देनेवाले अविद्यारूप क्लेश प्राप्त होते रह्ते हैं । शास्त्रोंमें द्र्व्यका त्याग करनेके लिये जज्ञ आदि कर्म , भोगका त्याग करनेके लिये व्रत , दैहिक सुखोंके त्यागके लिये तप और सब कुछ त्यागनेके लिये योगके अनुष्ठानकी आज्ञा दी गयी है । यही त्यागकी सीमा है । सर्वस्व - त्यागका यह एकमात्र मार्ग ही दु : खोंसे छुटकारा पानेके लिये उत्तम बताया गया है । इसका आश्रय न लेनेवालोंको दुर्गति भोगनी पड़ती है ।

छठे मनसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ बतायी हैं , जिनकी स्थिति बुद्धिमें है , इनका वर्णन करके पाँच कर्मेन्द्रियोंका निरूपण करता हूँ । दोनों हाथ काम करनेवाली इन्द्रिय हैं । दोनों पैर चलने - फिरनेका कार्य करनेवाली इन्द्रिय हैं । लिङ्र मैथुन - जनक सुख और संतानोत्पादन आदिके लिये है । गुदा नामक इन्द्रियका कार्य मलत्याग करना है । वाक् ‌‍- इन्द्रिय शब्दविशेषका उच्चारण करनेके लिये है । मनको इन पाँचोंसे संयुक्त माना गया है । इस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच कर्मेन्द्रिय और मन - ये सब मिलकर ग्यारह इन्द्रियाँ हैं । इन सबको मनरूप जानकर बुद्धिके द्वारा शीघ्र इनका त्याग कर देना चाहिये । श्रवणकालमें श्रोत्ररूपी इन्द्रिय , शब्दरूपी विषया और चित्तरूपी कर्ता - इन तीनका संयोग होता है । इसी प्रकार स्पर्श , रूप , रस तथा गन्धके अनुभवकालमें भी इन्द्रिय , विषय एवं मनका संयोग अपेक्षित है । इस तरह तीन - तीनके पाँच समुदाय हैं । ये सब गुण कहे गये हैं । इनसे शब्दादि विषयोंका ग्रहण होता है और इसीके लिये ये कर्ता , कर्म और करणरूपी त्रिविध भाव बारी - बारीसे उपस्थित होते हैं । इनमेंसे एक - एकसे सात्त्विक , राजस और तामस तीन - तीन भेद होते हैं । हर्ष , प्रीति , आनन्द , सुख और चित्तकी शान्ति - ये सब भाव बिना किसी कारणके हों या किसी कारणवश हों , सात्त्विक गुण माने गये हैं । असंतोष , संताप , शोक , लोभ तथा क्षमाका अभाव - ये किसी कारणसे हों या अकारण - रजोगुणके चिह्ल हैं । अविवेक , मोह , प्रमाद , स्वप्र और आलस्य - ये किसी तरह भी क्योंन हों , तमोगुणके ही नाना रूप हैं । जो इस मोक्ष - विद्याको जानकर सावधानीके साथ आत्मतत्त्वका अनुसंधान करता है , वह जलसे कमलके पत्तेकी भाँति कर्मके अनिष्ट फलोंसे कभी लिप्त नहीं होता । संतानोंके प्रति आसक्ति और भिन्न - भिन्न देवताओंके लिये सकाम यज्ञोंका अनुष्ठान - ये सब मनुष्यके लिये नाना प्रकारके दृढ़ बन्धन हैं । जब वह इन बन्धनोंसे छूटकर दु : ख - सुखकी चिन्ता छोड़ देता है , उस समय सर्वश्रेष्ठ गति ( मुक्ति ) प्राप्त कर लेता है । श्रुतिके महावाक्योंका विचार और शास्त्रमें बताये हुए मङ्र्लमय साधनोंका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य जरा तथा मृत्युके भयसे रहित होकर सुखसे रहता है । जब पुण्य और पापका क्षय तथा उनसे मिलनेवाले सुख - दु : खादि फलोंका नाश हो जाता है , उस समय सब वस्तुओंकी आसक्तिसे रहित पुरुष आकाशके समान निर्लेप एवं निर्गुण आत्माका साक्षात्कार कर लेता है । जो शरीरमें आसक्ति न रखकर उसके प्रति अपनेपनका अभिमान त्याग देता है , वह दु : खसे छूट जाता है । जैसे वृक्षके प्रति आसक्ति न रखनेवाला पक्षी जलमें गिरते हुए वृक्षको छोड़्कर उड़ जाता है , उसी प्रकार जो शरीरकी आसक्तिको छोड़ चुका है , वह मुक्त पुरुष सुख और दु : ख दोनोंका त्याग करके उत्तम गतिको प्राप्त होता है ।

आचार्य पञ्चशिखके बताये हुए इस अमृतमय ज्ञानको सुनकर राजा जनक उसे पूर्नरूपसे विचार करके एक निश्चित सिद्धिन्तपर पहुँच गये और शोकरहित हो बड़े सुखसे रहने लगे । फिर तो उनकी स्थिति ऐसी हो गयी कि एक बार मिथिलानगरीको आगसे जलती देखकर भूपालने स्वयं यह उद्‌‍गार प्रकट किया कि ’ इस नगरके जलनेसे मेरा कुछ भी नहीं जलता । ’ महामुनि नारदजी ! इस अध्यायमें मोक्षतत्त्वका निर्णय किया गया है । जो सदा इसका स्वाध्याय और चिन्तन करता रह्ता है , वह दु : ख - शोकसे रहित हो कभी किसी प्रकारके उपद्रवका अनुभव नहीं करता तथा जिस प्रकार राजा जनक पञ्चशिखके समागमसे इस ज्ञानको पाकर मुक्त हो गये थे , उसी प्रकार वह भी मोक्ष प्राप्त करता है ।

नृपश्रेष्ठ ! इसमें लकडियोंके समूहको अलगकार दो और फिर खोजो - तुम्हारी पालकी कहाँ है ? इसी प्रकार छातेकी शलाकाओं -( तिल्लियों -) को पृथक्‌ करके विचार करो , छात नामकी वस्तु कहाँ चली गयी ? यही न्याय तुम्हारे और मेरे ऊपर लागू होरा है ( अर्थात्‌ मेरे और तुम्हारे शरी भी पञ्चभूतसे अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं हैं ) । पुरुष , स्त्री , गाय , बकरी , घोडा , हाथी , पक्षी और वृक्ष आदि लौकिक नाम कर्मजनित विभिन्न शरीरोंके लिये ही रखे गये हैं - ऐसा जानना चाहिये । भूपाल ! आत्मा न देवता है , न मनुष्य है , न पशु है और न वृक्ष ही है । ये सब तो शरीरोंकी आकृतियोंके भेद हैं , जो भिन्न - भिन्न कर्मोंके अनुसार उत्पन्न हुए हैं , । राहन्‌ ! लोकमें जो राजा , राजाके सिपाही तथा और भी जो - जो ऐसी वस्तुएँ हैं , वे सब काल्पनिक हैं , सत्य नही हैं । नरेश ! जो वस्तु परिणाम आदिके कारण होनेवाली किसी नयी संज्ञाको कालान्तरमें भी नहीं प्राप्त होती , वही पारमार्थिक वस्तु है । विचार करो , वह क्या है ? तुम समस्त प्रजाके लिये राजा हो , अपने पिताके पुत्र हो , शत्रुके लिये शत्रु हो , पत्नीके लिये पति और पुत्रके लिये पिता हो । भूपाल ! बताओ , मैं तुम्हें क्या कहूँ ? महीपते ! तुम क्या हो ? यह सिर हो या ग्रीवा अथवा पेट या पैर आदिमेंसे कोई हो तथा ये सिर आदि भी तुम्हारे क्या है ? पृथ्वीपते ! तुम सम्पूर्ण अवयवोंसे पृथक्‌ स्थित होकर भलीभाँति विचार करो कि मैं कौन हूँ ? पृथ्वीपते ! तुम सम्पूर्ण अवयवोंसे पृथक्‌ स्थित होकर भलीभाँति विचार करो कि मैं कौन हूँ । नरेश ! आत्म - तत्त्व जब इस प्रकार स्थित है , जब सवसे पृथक्‌ करके ही उसका प्रतिपादन किया जा सकता है , तो मैं उसे ‘ अहं ’ इस नामसे कैसे बता सकता हूँ ?

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Last Updated : May 06, 2013

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