सुन्दरकाण्ड

`गीतावली` गोस्वामी तुलसीदास की एक प्रमुख रचना है जिसके गीतों में राम-कथा कही गयी है । सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है ।


२१६--०१--- सुन्दरकाण्ड
२१६--०१--- अशोकवनमें हनूमान्
२१६--राग---केदारा
२१६--०१--- रजायसु रामको जब पायो ।
२१६--०१--- गाल मेलि मुद्रिका, मुदित मन पवनपूत सिर नायो ॥
२१६--०२--- भालुनाथ नल-नील साथ चले, बली बालिको जायो ।
२१६--०२--- फरकि सुअँग भए सगुन, कहत मानो मग मुद-मङ्गल छायो ॥
२१६--०३--- देखि बिवर, सुधि पाइ गीधसों सबनि अपनो बलु मायो ।
२१६--०३--- सुमिरि राम, तकि तरकि तोयनिधि, लङ्क लूक-सो आयो ॥
२१६--०४--- खोजत घर घर, जनु दरिद्र-मनु फिरत लागि धन धायो ।
२१६--०४--- तुलसी सिय बिलोकि पुलक्यो तनु, भूरिभाग भयो भायो ॥
२१७--०१--- देखी जानकी जब जाइ ।
२१७--०१--- परम धीर समीरसुतके प्रेम उर न समाइ ॥
२१७--०२--- कृस सरीर सुभाय सोभित, लगी उड़ि उड़ि धूलि ।
२१७--०२--- मनहु मनसिज मोहनी-मनि गयो भोरे भूलि ॥
२१७--०३--- रटति निसिबासर निरन्तर राम राजिवनैन ।
२१७--०३--- जात निकट न बिरहिनी-अरि अकनि ताते बैन ॥
२१७--०४--- नाथके गुनगाथ कहि कपि दई मुँदरी डारि ।
२१७--०४--- कथा सुनि उठि लई कर बर, रुचिर नाम निहारि ॥
२१७--०५--- हृदय हरष-बिषाद अति पति-मुद्रिका पहिचानि ।
२१७--०५--- दास तुलसी दसा सो कहि भाँति कहै बखानि ?॥
२१८--राग---सोरठ
२१८--०१--- बोलि, बलि, मूँदरी सानुज कुसल कोसलपालु ।
२१८--०१--- अमिय-बचन सुनाइ मेटहि बिरह-ज्वाला-जालु ॥
२१८--०२--- कहत हित अपमान मैं कियो, होत हिय सोइ सालु ।
२१८--०२--- रोष छमि सुधि करत कबहू ललित लछिमन लालु ॥
२१८--०३--- परसपर पति-देवरहि का होति चरचा चालु ।
२१८--०३--- देवि कहु केहि हेत बोले बिपुल बानर-भालु ॥
२१८--०४--- सीलनिधि समरथ सुसाहिब दीनबन्धु दयालु ।
२१८--०४--- दास तुलसी प्रभुहि काहु न कह्यो मेरो हालु ॥
२१९--०१--- सदल सलषन हैं कुसल कृपालु कोसल राउ!
२१९--०१--- सील-सदन सनेह-सागर सहज सरल सुभाउ ॥
२१९--०२--- नीन्द-भूख न देवरहि, परिहरेको पछिताउ ।
२१९--०२--- धीरधुर रघुबीरको नहि सपनेहू चित चाउ ॥
२१९--०३--- सोधु बिनु, अनुरोध रितुके, बोध बिहित उपाउ ।
२१९--०३--- करत हैं सोइ समय साधन, फलति बनत बनाउ ॥
२१९--०४--- पठए कपि दिसि दसहु, जे प्रभुकाज कुटिल न काउ ।
२१९--०४--- बोलि लियो हनुमान करि सनमान, जानि समाउ ॥
२१९--०५--- दई हौं सङ्केत कहि, कुसलात सियहि सुनाउ ।
२१९--०५--- देखि दुर्ग, बिसेषि जानकि, जानि रिपु-गति आउ ॥
२१९--०६--- कियो सीय-प्रबोध मुँदरी, दियो कपिहि लखाउ ।
२१९--०६--- पाइ अवसर, नाइ सिर तुलसीस-गुनगन गाउ ॥
२२०--०१--- सुवन समीरको धीरधुरीन, बीर-बड़ोइ ।
२२०--०१--- देखि गति सिय-मुद्रिकाकी बाल ज्यों दियो रोइ ॥
२२०--०२--- अकनि कटु बानी कुटिलकी क्रोध-बिन्ध्य बढ़ोइ ।
२२०--०२--- सकुचि सम भयो ईस-आयसु-कलसभव जिय जोइ ॥
२२०--०३--- बद्धि-बल, साहस-पराक्रम अछत राखे गोइ ।
२२०--०३--- सकल साज-समाज साधक समौ, कहै सब कोइ ॥
२२०--०४--- उतरि तरुतें नमत पद, सकुचात सोचत सोइ ।
२२०--०४--- चुके अवसर मनहु सुजनहि सुजन सनमुख होइ ॥
२२०--०५--- कहे बचन बिनीत प्रीति-प्रतीति-नीति निचोइ ।
२२०--०५--- सीय सुनि हनुमान जान्यौ भली भाँति भलोइ ॥
२२०--०६--- देबि! बिनु करतूति कहिबो जानिहैं लघु लोइ ।
२२०--०६--- कहौङ्गो मुखकी समरसरि कालि कारिख धोइ ॥
२२०--०७--- करत कछू न बनत, हरिहिय हरष-सोक समोइ ।
२२०--०७--- कहत मन तुलसीस लङ्का करहुँ सघन घमोइ ॥
२२१--०१--- हौं रघुबंसमनि को दूत ।
२२१--०१--- मातु मानु प्रतीति जानकि! जानि मारुतपूत ॥
२२१--०२--- मैं सुनी बातैं असैली, जे कही निसिचर नीच ।
२२१--०२--- क्यों न मारै गाल, बैठो काल-डाढ़नि बीच ॥
२२१--०३--- निदरि अरि, रघुबीर-बल लै जाउँ जौ हठि आज ।
२२१--०३--- डरौं आयसु-भङ्गतें, अरु बिगरिहै सुरकाज ॥
२२१--०४--- बाँधि बारिधि, साधि रिपु, दिन चारिमें दोउ बीर ।
२२१--०४--- मिलहिङ्गे कपि-भालु-दल सँग, जननि! उर धरु धीर ॥
२२१--०५--- चित्रकूट-कथा, कुसल कहि सीस नायो कीस ।
२२१--०५--- सुहृद-सेवक  नाथको लखि दई अचल असीस ॥
२२१--०६--- भये सीतल स्रवन-तन-मन सुने बचन-पियूष ।
२२१--०६--- दास तुलसी रही नयननि दरसहीकी भूख ॥
२२२--०१--- तात! तोहूसों कहत होति हिये गलानि ।
२२२--०१--- मनको प्रथम पन समुझि अछत तनु,
२२२--०१--- लखि नै गति भै मति मलानि ॥
२२२--०२--- पियको बचन परहर्यो जियके भरोसे ,
२२२--०२--- सङ्ग चली बन बड़ो लाभ जानि ।
२२२--०२--- पीतम-बिरह तौ सनेह सरबसु, सुत
२२२--०२--- औसरको चूकिबो सरिस न हानि ॥
२२२--०३--- आरज-सुवनके तो दया दुवनहुपर,
२२२--०३--- मोहि सोच, मोतें सब बिधि नसानि ।
२२२--०३--- आपनी भलाई भलो कियो नाथ सबहीको,
२२२--०३--- मेरे ही दिन सब बिसरी बानि ॥
२२२--०४--- नेम तौ पपीहाहीके, प्रेम प्यारो मीनहीके,
२२२--०४--- तुलसी कही है नीके हृदय आनि ।
२२२--०४--- इतनी कही सो कही सीय, ज्योंही त्योंही
२२२--०४--- रही, प्रीति परी सही, बिधिसों न बसानि ॥
२२३--०१--- मातु !काहेको कहति अति बचन दीन ?
२२३--०१--- तबकी तुही जानति, अबकी हौं ही कहत,
२२३--०१--- सबके जियकी जानत प्रभु प्रबीन ॥
२२३--०२--- ऐसे तो सोचहि न्याय निठुर-नायक-रत
२२३--०२--- सलभ, खग, कुरङ्ग, कमल, मीन ।
२२३--०२--- करुनानिधानको तो ज्यों ज्यों तनु छीन भयो,
२२३--०२--- त्यों त्यों मनु भयो तेरे प्रेम पीन ॥
२२३--०३--- सियको सनेह, रघुबरकी दसा सुमिरि
२२३--०३--- पवनपूत देखि भयो प्रीति-लीन ।
२२३--०३--- तुलसी जनको जननी प्रबोध कियो,
२२३--०३--- "समुझि तात! जग बिधि-अधीन ॥
२२४--राग---जैतश्री
२२४--०१--- कहु कपि! कब रघुनाथ कृपा करि, हरिहैं निज बियोग
२२४--०१--- सम्भव दुख।
२२४--०१--- राजिवनयन, मयन-अनेक-छबि, रबिकुल-कुमुद-सुखद,
२२४--०१--- मयङ्क-मुख ॥
२२४--०२--- बिरह-अनल-स्वासा-समीर निज तनु जरिबे कहँ रही न
२२४--०२--- कछु सक ।
२२४--०२--- अति बल जल बरषत दोउ लोचन, दिन अरु रैन रहत
२२४--०२--- एकहि तक ॥
२२४--०३--- सुदृढ़ ग्यान अवलम्बि, सुनहु सुत! राखति प्रान बिचारि
२२४--०३--- दहन मत ।
२२४--०३--- सगुन रुप, लीला-बिलास-सुख सुमिरति करति रहति
२२४--०३--- अंतरगत ॥
२२४--०४--- सुनु हनुमन्त! अनन्त-बन्धु करुनासुभाव सीतल कोमल अति ।
२२४--०४--- तुलसिदास यहि त्रास जानि जिय, बरु दुख सहौं, प्रगट
२२४--०४--- कहि न सकति ॥
२२५--०१--- कबहूँ, कपि! राघव आवहिङ्गे ?
२२५--०१--- मेरे नयनचकोर प्रीतिबस राकाससि मुख दिखरावहिङ्गे ॥
२२५--०२--- मधुप, मराल, मोर, चातक ह्वै लोचन बहु प्रकार धावहिङ्गे ।
२२५--०२--- अंग-अंग छबि भिन्न-भिन्न सुख निरखि-निरखि तहँ-तहँ छावहिङ्गे ॥
२२५--०३--- बिरह-अगिनि जरि रही लता ज्यों कृपादृष्टि-जल पलुहावहिङ्गे ।
२२५--०३--- निज बियोग-दुख जानि दयानिधि मधुर बचन कहि समुझावहिङ्गे ॥
२२५--०४--- लोकपाल, सुर, नाग, मनुज सब परे बन्दि कब मुकतावहिङ्गे ?
२२५--०४--- रावनबध रघुनाथ-बिमल-जस जारदादि मुनिजन गावहिङ्गे ॥
२२५--०५--- यह अभिलाष रैन-दिन मेरे, राज बिभीषन कब पावहिङ्गे ।
२२५--०५--- तुलसिदास प्रभु मोहजनित भ्रम, भेदबुद्धि कब बिसरावहिङ्गे ॥
२२६--०१--- हनूमान् और रावणकी भेण्ट
२२६--राग---कान्हरा
२२६--०१--- सत्य बचन सुनु मातु जानकी !
२२६--०१--- जनके दुख रघुनाथ दुखित अति, सहज प्रकृति करुनानिधानकी ॥
२२६--०२--- तुव बियोग-सम्भव दारुन दुख बिसरि गई महिमा सुबानकी ।
२२६--०२--- नतु कहु, कहँ रघुपति-सायक-रबि, तम-अनीक कहँ जातुधानकी ॥
२२६--०३--- कहँ हम पशु साखामृग चञ्चल, बात कहौं मैं बिद्यमानकी!
२२६--०३--- कहँ हरि-सिव-अज-पूज्य-ग्यान-घन, नहि बिसरति वह लगनि कानकी ॥
२२६--०४--- तुव दरसन-सन्देस सुनि हरिको बहुत भई अवलम्ब प्रानकी ।
२२६--०४--- तुलसिदास गुन सुमिरि रामके प्रेम-मगन नहि सुधि अपानकी ॥
२२७--०१--- रावन! जू पै राम रन रोषे ।
२२७--०१--- को सहि सकै सुरासुर समरथ, बिसिष काल-दसननितें चोषे ॥
२२७--०२--- तपबल, भुजबल, कै सनेह-बल सिव-बिरञ्चि नीकी बिधि तोषे ।
२२७--०२--- सो फल राजसमाज-सुवन-जन आपु न नास आपने पोषे ॥
२२७--०३--- तुला पिनाक, साहु नृप, त्रिभुवन भट-बटोरि सबके बल जोषे ।
२२७--०३--- परसुराम-से सूरसिरोमनि पलमें भए खेतके धोषे ॥
२२७--०४--- कालिकी बात बालिकी सुधि करि समुझि हिताहित खोलि झरोखे ।
२२७--०४--- कह्यो कुमन्त्रिनको न मानिये, बड़ी हानि, जिय जानि त्रिदोषे ॥
२२७--०५--- जासु प्रसाद जनमि जग पुरषनि सागर सृजे, खने अरु सोखे ।
२२७--०५--- तुलसिदास सो स्वामि न सूइयो, नयन बीस मन्दिर के-से मोखे ॥
२२८--राग---मारु
२२८--०१--- जो हौं प्रभु-आयसु लै चलतो ।
२२८--०१--- तौ यहि रिस तोहि सहित दसानन! जातुधान दल दलतो ॥
२२८--०२--- रावन सो रसराज सुभट-रस सहित लङ्क-खल खलतो ।
२२८--०२--- करि पुटपाक नाक-नायकहित घने घने घर घलतो ॥
२२८--०३--- बड़े ,समाज लाज-भाजन भयो, बड़ो काज बिनु छलतो ।
२२८--०३--- लङ्कनाथ! रघुनाथ-बैरु-तरु आजु फैलि फूलि फलतो ॥
२२८--०४--- काल-करम, दिगपाल, सकल जग-जाल जासु करतल तो ।
२२८--०४--- ता रिपुसों पर भूमि रारि रन जीवन-मरन सुफल तो ॥
२२८--०५--- देखी मैं दसकण्ठ! सभा सब, मोन्तें कोउ न सबल तो ।
२२८--०५--- तुलसी अरि उर आनि एक अब एती गलानि न गलतो ॥
२२९--०१--- सीताजीसे विदाई
२२९--०१--- तौलौं, मातु! आपु नीके रहिबो ।
२२९--०१--- जौलौं हौं ल्यावौं रघुबीरहि, दिन दस और दुसह दुख सहिबो ॥
२२९--०२--- सोखिकै, खेतकै, बाँधि सेतु करि उतरिबो उदधि, न बोहित चहिबो ।
२२९--०२--- प्रबल दनुज-दल दलि पल आधमें, जीवत दुरित दसानन गहिबो ॥
२२९--०३--- बैरिबृन्द-बिधवा-बनितनिको देखिबो बारि-बिलोचन बहिबो ।
२२९--०३--- सानुज सेनसमेत स्वामिपद निरखि परम मुद मङ्गल लहिबो ॥
२२९--०४--- लङ्क-दाह उर आनि मानिबो साँचु राम सेवकको कहिबो ।
२२९--०४--- तुलसी प्रभु सुर सुजस गाइहैं, मिटि जैहै सबको सोचु दव दहिबो ॥
२३०--०१--- कपिके चलत सियको मनु गहबरि आयो ।
२३०--०१--- पुलक सिथिल भयो सरीर, नीर नयनन्हि छायो ॥
२३०--०२--- कहन चह्यो सँदेस, नहि कह्यो, पियके जिय की जानि
२३०--०२--- हृदय दुसह दुख दुरायो ।
२३०--०२--- देखि दसा ब्याकुल हरीस, ग्रीषमके पथिक ज्यों धरनि तरनि-तायो ॥
२३०--०३--- मीचतें नीच लगी अमरता, छलको न बलको निरखि थल
२३०--०३--- परुष प्रेम पायो।
२३०--०३--- कै प्रबोध मातु-प्रीतिसों असीस दीन्हीं ह्वैहै तिहारोई मनभायो ॥
२३०--०४--- करुना-कोप-लाज-भय-भरो कियो गौन, मौन ही चरन कमल
२३०--०४--- सीस नायो ।
२३०--०४--- यह सनेह-सरबस समौ, तुलसी रसना रुखी, ताही तें परत गायो ॥
२३१--०१--- हनुमान्जीका भगवान् रामके पास पहुँचना
२३१--राग---बसन्त
२३१--०१--- रघुपति देखो आयो हनूमन्त । लङ्केस-नगर खेल्यो बसन्त ॥
२३१--०२--- श्रीराम-काजहित सुदिन सोधि । साथी प्रबोधि लाँघ्यो पयोधि ॥
२३१--०३--- सिय-पाँय पूजि, आसिषा पाइ । फल अमिय सरिस खायो अघाइ ॥
२३१--०४--- कानन दलि, होरी रचि बनाइ । हठि तेल-बसन बालधि बँधाइ ॥
२३१--०५--- लिए ढोल चले सँग लोग लागि । बरजोर दई चहुँ ओर आगि ॥
२३१--०६--- आखत आहुति किये जातुधान । लखि लपट भभरि भागे बिमान ॥
२३१--०७--- नभतल कौतुक, लङ्का बिलाप । परिनाम पचहिं पातकी पाप ॥
२३१--०८--- हनुमान-हाँक सुनि बरषि फूल । सुर बार बार बरनहिं लँगूर ॥
२३१--०९--- भरि भुवन सकल कल्यान-धूम । पुर जारि बारिनिधि बोरि लूम ॥
२३१--१०--- जानकी तोषि पोषेउ प्रताप । जय पवन-सुवन दलि दुअन-दाप ॥
२३१--११--- नाचहिं-कूदहिं कपि करि बिनोद । पीवत मधु मधुबन मगन मोद ॥
२३१--१२--- यों कहत लषन गहे पाँय आइ । मनि सहित मुदित भेण्ट्यो उठाइ ॥
२३१--१३--- लगे सजन सेन, भयो हिय हुलास । जय जय जस गावत तुलसिदास ॥
२३२--राग---जैतश्री
२३२--०१--- सुनहु राम बिश्रामधाम हरि! जनकसुता अति बिपति जैसे सहति ।
२३२--०१--- "हे सौमित्रि-बन्धु करुनानिधि!मन महँ रटति, प्रगट नहिं कहति ॥
२३२--०२--- निजपद-जलज बिलोकि सोकरत नयननि बारि रहत न एक छन ।
२३२--०२--- मनहु नील नीरजससि-सम्भव रबि-बियोग दोउ स्रवत सुधाकन ॥
२३२--०३--- बहु राच्छसी सहित तरुके तर तुम्हरे बिरह निज जनम बिगोवति ।
२३२--०३--- मनहु दुष्ट इंद्रिय सङ्कट महँ बुद्धि बिबेक उदय मगु जोवति ॥
२३२--०४--- सुनि कपि बचन बिचारि हृदय हरि अनपायनी सदा सो एक मन ।
२३२--०४--- तुलसिदास दुख-सुखातीत हरि सोच करत मानहु प्राकृत जन ॥
२३३--राग---केदारा
२३३--०१--- रघुकुलतिलक! बियोग तिहारे ।
२३३--०१--- मैं देखी जब जाइ जानकी, मनहु बिरह-मूरति मन मारे ॥
२३३--०२--- चित्र-से नयन अरु गढ़ेसे चरन-कर, मढ़े-से स्रवन, नहि सुनति पुकारे ।
२३३--०२--- रसना रटति नाम, कर सिर चिर रहै, नित निजपद-कमल निहारे ॥
२३३--०३--- दरसन-आस-लालसा मन महँ राखे प्रभु-ध्यान प्रान-रखवारे ।
२३३--०३--- तुलसिदास पूजति त्रिजटा नीके रावरे गुन-गन-सुमन सँवारे ॥
२३४--०१--- अतिहि अधिक दरसनकी आरति ।
२३४--०१--- राम-बियोग असोक-बिटपतर सीय निमेष कलपसम टारति ॥
२३४--०२--- बार-बार बर बारिजलोचन भरि भरि बरत बारि उर ढारति ।
२३४--०२--- मनहु बिरहके सद्य घाय हिये लखि तकि-तकि धरि धीरज तारति ॥
२३४--०३--- तुलसिदास जद्यपि निसिबासर छिन-छिन प्रभुमूरतिहि निहारति ।
२३४--०३--- मिटति न दुसह ताप तौ तनकी, यह बिचारि अंतर गति हारति ॥
२३५--०१--- तुम्हरे बिरह भई गति जौन ।
२३५--०१--- चित दै सुनहु, राम करुनानिधि! जानौं कछु, पै सकौं कहि हौं न ॥
२३५--०२--- लोचन-नीर कृपिनके धन ज्यों रहत निरन्तर लोचनन कोन ।
२३५--०२--- "हा धुनि-खगी लाज-पिञ्जरी महँ राखि हिये बड़े बधिक हठि मौन ॥
२३५--०३--- जेहि बाटिका बसति, तहँ खग-मृग तजि-तजि भजे पुरातन भौन ।
२३५--०३--- स्वास-समीर भेण्ट भै बोरेहु, तेहि मग पगु न धर्यो तिहुँ पौन ॥
२३५--०४--- तुलसिदास प्रभु! दसा सीयकी मुख करि कहत होति अति गौन ।
२३५--०४--- दीजै दरस, दूरि कीजै दुख, हौ तुम्ह आरत-आरति दौन ॥
२३६--०१--- कपिके सुनि कल कोमल बैन ।
२३६--०१--- प्रेमपुलकि सब गात सिथिल भए, भरे सलिल सरसीरुह-नैन ॥
२३६--०२--- सिय-बियोग-सागर नागर-मनु बूड़न लग्यो सहित चित-चैन ।
२३६--०२--- लही नाव पवनज-प्रसन्नता, बरबस तहाँ गह्यो गुन-मैन ॥
२३६--०३--- सकत न बूझि कुसल, बूझे बिन गिरा बिपुल ब्याकुल उर-ऐन ।
२३६--०३--- ज्यों कुलीन सुचि सुमति बियोगिनि सनमुख सहै बिरह-सर पैन ॥
२३६--०४--- धरि-धरि धीर बीर कोसलपति किए जतन, सके उत्तरु दै न ।
२३६--०४--- तुलसिदास प्रभु सखा अनुजसों सैनहिं कह्यौ चलहु सजन सैन ॥
२३७--०१--- वानरसेनाकी लङ्कायात्रा
२३७--राग---मारु
२३७--०१--- जब रघुबीर पयानो कीन्हों ।
२३७--०१--- छुभित सिन्धु, डगमगत महीधर, सजि सारँग कर लीन्हों ॥
२३७--०२--- सुनि कठोर टङ्कोर घोर अति चौङ्के बिधि-त्रिपुरारि ।
२३७--०२--- जटापटल ते चली सुरसरी सकत न सम्भु सँभारि ॥
२३७--०३--- भए बिकल दिगपाल सकल, भय भरे भुवन दस चारि ।
२३७--०३--- खरभर लङ्क, ससङ्क दसानन, गरभ स्रबहिं अरि-नारि ॥
२३७--०४--- कटकटात भट भालु, बिकट मरकट करि केहरि-नाद ।
२३७--०४--- कूदत करि रघुनाथ-सपथ उपरी-उपरा बदि बाद ॥
२३७--०५--- गिरि-तरुधर, नख मुख कराल, रद कालहु करत बिषाद ।
२३७--०५--- चले दस दिसि रिस भरि धरु "धरु कहि,"को बराक मनुजाद ?॥
२३७--०६--- पवन पङ्गु पावक-पतङ्ग-ससि दुरि गए, थके बिमान ।
२३७--०६--- जाचत सुर निमेष, सुरनायक नयन-भार अकुलान ॥
२३७--०७--- गए पूरि सर धूरि, भूरि भय अग थल जलधि समान ।
२३७--०७--- नभ-निसान, हनुमान-हाँक सुनि समुझत कोउ न अपान ॥
२३७--०८--- दिग्गज-कमठ-कोल-सहसानन धरत धरनि धरि धीर ।
२३७--०८--- बारहि बारि अमरषत, करषत, करकैं परीं सरीर ॥
२३७--०९--- चली चमू, चहु ओर सोर, कछु बनै न बरने भीर ।
२३७--०९--- किलकिलात, कसमसत, कोलाहल होत नीरनिधि-तीर ॥
२३७--१०--- जातुधानपति जानि कालबस मिले बिभीषन आइ ।
२३७--१०--- सरनागत-पालक कृपालु कियो तिलक लियो अपनाइ ॥
२३७--११--- कौतुकही बारिधि बँधाइ उतरे सुबेल-तट जाइ ।
२३७--११--- तुलसिदास गढ़ देखि फिरे कपि,प्रभु-आगमन सुनाइ ॥
२३८--०१--- रावणकी मन्त्रणा
२३८--राग---आसावरी
२३८--०१--- आए देखि दूत, सुनि सोच सठ-मनमैं ।
२३८--०१--- बाहर बजावै गाल, भालु कपि कालबस।
२३८--०१--- मोसे बीरसों चहत जीत्यो रारि रनमैं ॥
२३८--०२--- राम छाम, लरिका लषन, बालि-बालकहि,
२३८--०२--- घालिको गनत? रीछ जल ज्यों न घनमैं ।
२३८--०२--- काजको न कपिराज, कायर कपिसमाज,
२३८--०२--- मेरे अनुमान हनुमान हरिगनमैं ॥
२३८--०३--- समय सयानी मृदु बानी रानी कहै पिय !
२३८--०३--- पावक न होइ जातुधान बेनु-बनमैं ।
२३८--०३--- तुलसी जानकी दिए, स्वामीसों, सनेह किये
२३८--०३--- कुसल, नतरु सब ह्वैहैं छार छनमैं ॥
२३९--०१--- आपनी आपनी भाँति सब काहू कही है।
२३९--०१--- मन्दोदरी, महोदर, मालवान महामति,
२३९--०१--- राजनीति पहुँच जहाँलौं जाकी रही है ॥
२३९--०२--- महामद-अंध दसकन्ध न करत कान,
२३९--०२--- मीचु-बस नीच हठि कुगहनि गही है ।
२३९--०२--- हँसि कहै, सचिव सयाने मोसों यों कहत,
२३९--०२--- चहै मेरु उड़न, बड़ी बयारि बही है ॥
२३९--०३--- भालु, नर, बानर अहार निसिचरनिको,
२३९--०३--- सोऊ नृप-बालकनि माँगी धारि लही है ।
२३९--०३--- देखो मालकौतुक, फिपीलिकनि पङ्ख लागो,
२३९--०३--- भाग मेरे लोगनिके भई चित-चही है ॥
२३९--०४--- "तोसो न तिलोक आजु साहस, समाज-साजु,
२३९--०४--- महाराज-आयसु भो जोई, सोई सही है ।
२३९--०४--- तुलसी प्रनामकै बिभीषन बिनती करै,
२३९--०४--- "ख्याल बेधे ताल, कपि केलि लङ्का दही है ॥
२४०--०१--- दूसरो न देखतु साहिब सम रामै ।
२४०--०१--- बेदौउ पुरान, कबि-कोबिद बिरद-रत,
२४०--०१--- जाको जसि सुनत गावत गुन-ग्रामै ॥
२४०--०२--- माया-जीव, जग-जाल, सुभाउ, करम-काल,
२४०--०२--- सबको सासकु, सब मैं, सब जामैं ।
२४०--०२--- बिधि-से करनिहार, हरि-से पालनिहार,
२४०--०२--- हर-से हरनिहार जपैं जाके नामैं ॥
२४०--०३--- सोइ नरबेष जानि, जनकी बिनती मानि,
२४०--०३--- मतो नाथ सोई, जातें भलो परिनामैं ।
२४०--०३--- सुभट-सिरोमनि कुठारपानि सारिखेहू
२४०--०३--- लखी औ लखाई, इहाँ किए सुभ सामैं ॥
२४०--०४--- बचन-बिभूषन बिभिषन-बचन सुनि
२४०--०४--- लागे दुख दूषन-से दाहिनेउ बामैं ।
२४०--०४--- तुलसी हुमकि हिये हन्यो लात, "भले तात,
२४०--०४--- चल्यो सुरतरु ताकि तजि घोर घामैं ॥
२४१--०१--- विभीषण-शरणागति
२४१--०१--- जाय माय पायँ परि कथा सो सुनाई है ।
२४१--०१--- समाधान करति बिभीषनको बार बार,
२४१--०१--- "कहा भयो तात! लात मारे, बड़ो भाई है ॥
२४१--०२--- साहिब, पितु समान, जातुधानको तिलक,
२४१--०२--- ताके अपमान तेरी बड़िए बड़ाई है ।
२४१--०२--- गरत गलानि जानि, सनमानि सिख देति,
२४१--०२--- "रोष किये तोष, सहें समुझें भलाई है ॥
२४१--०३--- इहाँतें बिमुख भयें, रामकी सरन गए
२४१--०३--- भलो नेकु, लोक राखे निपट निकाई है ।
२४१--०३--- मातु-पग सीस नाइ, तुलसी असीस पाइ
२४१--०३--- चले भले सगुन, कहत "मन भाइ है ॥
२४२--०१--- "भाई को सो करौं, डरौं कठिन कुफेरै ।
२४२--०१--- सुकृत-सङ्कट पर्यो, जात गलानिन्ह गर्यो ,
२४२--०१--- कृपानिधिको मिलौं पै मिलिकै कुबेरै ॥
२४२--०२--- जाइ गह पाँय, धाइ धनद उठाइ भेट्यो,
२४२--०२--- समाचार पाइ पोच सोचत सुमेरै ।
२४२--०२--- तहँई मिले महेस, दियो हित उपदेस,
२४२--०२--- रामकी सरन जाहि "सुदिनु न हेरै ॥
२४२--०३--- जाको नाम कुम्भज कलेस-सिन्धु सोखिबेको,
२४२--०३--- मेरो कह्यो मानि, तात!बाँधे जिनि बेरै ।
२४२--०३--- तुलसी मुदित चले, पाये हैं सगुन भले,
२४२--०३--- रङ्क लूटिबेको मानो मनिगन-ढेरै ॥
२४३--राग---केदारा
२४३--०१--- सङ्कर-सिख आसिष पाइकै ।
२४३--०१--- चले मनहि मन कहत बिभीषन सीस महेसहि नाइकै ॥
२४३--०२--- गये सोच, भए सगुन, सुमङ्गल दस दिसि देत देखाइकै ।
२४३--०२--- सजल नयन, सानन्द हृदय, तनु प्रेम-पुलक अधिकाइकै ॥
२४३--०३--- अंतहु भाव भलो भाईको, कियो अनभलो मनाइकै ।
२४३--०३--- भै कूबरकी लात, बिधाता राखी बात बनाइकै ॥
२४३--०४--- नाहित क्यों कुबेर घर मिलि हर हितु कहते चित लाइकै ।
२४३--०४--- जो सुनि सरन राम ताके मैं निज बामता बिहाइकै ॥
२४३--०५--- अनायास अनुकूल सूलधर मग मुदमूल जनाइकै ।
२४३--०५--- कृपासिन्धु सनमानि, जानि जन दीन लियो अपनाइकै ॥
२४३--०६--- स्वारथ-परमारथ करतलगत, श्रमपथ गयो सिराइकै ।
२४३--०६--- सपने कै सौतुक, सुख-सस सुर सीञ्चत देत निराइकै ॥
२४३--०७--- गुरु गौरीस, साँइ सीतपति, हित हनुमानहि जाइकै ।
२४३--०७--- मिलिहौं, मोहि कहा कीबे अब, अभिमत, अवधि अघाइकै ॥
२४३--०८--- मरतो कहाँ जाइ, को जानै लटि लालची ललाइकै ।
२४३--०८--- तुलसिदास भजिहौं रघुबीरहि अभय-निसान बजाइकै ॥
२४४--०१--- पदपदुम गरीबनिवाजके ।
२४४--०१--- देखिहौं जाइ पाइ लोचन-फल हित सुर-साधु-समाजके ॥
२४४--०२--- गई बहोर, ओर निरबाहक, साजक बिगरे साजके ।
२४४--०२--- सबरी सुखद, गीध-गतिदायक, समन सोक कपिराजके ॥
२४४--०३--- नाहिन मोहि और कतहूँ कछु, जैसे काग जहाजके ।
२४४--०३--- आयो सरन सुखद पदपङ्कज चोन्थे रावन-बाजके ॥
२४४--०४--- आरतिहरन सरन, समरथ सब दिन अपनेकी लाजके ।
२४४--०४--- तुलसी "पाहि कहत नत-पालक मोहुसे निपट निकाजके ॥
२४५--०१--- महाराज रामपहँ जाउँगो ।
२४५--०१--- सुख-स्वारथ परिहरि करिहौं सोइ, ज्यौं साहिबहि सुहाँउगो ॥
२४५--०२--- सरनागत सुनि बेगि बोलि हैं, हौं निपटहि सकुचाउँगो ।
२४५--०२--- राम गरीबनिवाज निवाजिहैं जानिहैं, ठाकुर-ठाउँगो ॥
२४५--०३--- धरिहैं नाथ हाथ माथे, एहितें केहि लाभ अघाउँगो ।
२४५--०३--- सपनो-सो अपनो न कछू लखि, लघु लालच न लोभाउँगो ॥
२४५--०४--- कहिहौं, बलि, रोटिहा रावरो, बिनु मोलही बिकाउँगो ।
२४५--०४--- तुलसी पट ऊतरे ओढ़िहौं, उबरी जूठनि खाउँगो ॥
२४६--०१--- आइ सचिव बिभीषनके कही ।
२४६--०१--- कृपासिन्धु !दसकन्धबन्धु लघु चरन-सरन आयो सही ॥
२४६--०२--- बिषम बिषाद-बारिनिधि बूड़त थाह कपीस-कथा लही ।
२४६--०२--- गये दुख-दोष देखि पदपङ्कज, अब न साध एकौ रही ॥
२४६--०३--- सिथिल-सनेह सराहत नख-सिख नीक निकाई निरबही ।
२४६--०३--- तुलसी मुदित दूत भयो, मानहु अमिय-लाहु माँगत मही ॥
२४७--०१--- बिनती सुनि प्रभु प्रमुदित भए ।
२४७--०१--- रीछराज, कपिराज नील-नल बोलि बालिनन्दन लए ॥
२४७--०२--- बूझिये कहा? रजाइ पाइ नय-धरम सहित ऊतर दए ।
२४७--०२--- बली बन्धु ताको जेहि बिमोह-बस बैर-बीज बरबस बए ॥
२४७--०३--- बाँहपगार द्वार तेरे तैं सभय न कबहूँ फिरि गए ।
२४७--०३--- तुलसी असरन-सरन स्वामिके बिरद बिराजत नित नए ॥
२४८--०१--- हिय बिहसि कहत हनुमानसों ।
२४८--०१--- सुमति साधु सुचि सुहृद बिभीषन बूझि परत अनुमानसों ॥
२४८--०२--- "हौं बलि जाउँ और को जानै ?कही कपि कृपानिधानसों ।
२४८--०२--- छली न होइ स्वामि सनमुख, ज्यों तिमिर सातहय-जानसों ॥
२४८--०३--- खोटो खरो सभीत पालिये सो, सनेह सनमानसों ।
२४८--०३--- तुलसी प्रभु कीबो जो भलो, सोइ बूझि सरासन-बानसों ॥
२४९--०१--- साँचेहु बिभीषन आइहै ?
२४९--०१--- बूझत बिहँसि कृपालु, लखन सुनि कहत सकुचि सिर नाइ है ॥
२४९--०२--- ऐहै कहा, नाथ? आयो ह्याँ, क्यों कहि जाति बनाइ है ।
२४९--०२--- रावन-रिपुहि राखि, रघुबर बिनु, को त्रिभुवन पति पाइहै ॥
२४९--०३--- प्रभु प्रसन्न, सब सभा सराहति, दूत-बचन मन भाइहै ।
२४९--०३--- तुलसी, "बोलिये बेगि, लषनसों भै महाराज-रजाइ है ॥
२५०--०१--- चले लेन लषन-हनुमान हैं ।
२५०--०१--- मिले मुदित बूझि कुसल परसपर-सकुचत करि सनमान हैं ॥
२५०--०२--- भयो रजायसु पाउँ धारिए, बोलत कृपानिधान हैं ।
२५०--०२--- दूरितें दीनबन्धु देखे, जनु देत अभय-बरदान हैं ॥
२५०--०३--- सील सहस हिमभानु, तेज सतकोटि भानुहूके भानु हैं ।
२५०--०३--- भगतनिको हित कोटि मातु-पितु अरिन्हको कोटि कृसानु हैं ॥
२५०--०४--- जनगुन रज गिरि गनि, सकुचत निज गुन गिरि रज परमानु हैं ।
२५०--०४--- बाँह-पगारु, बोलको अबिचल बेद करत गुनगान हैं ॥
२५०--०५--- चारु चाप-तूनीर तामरस-करनि सुधारत बान हैं ।
२५०--०५--- चरचा चलति बिभीषनकी, सोइ सुनत सुचित दै कान हैं ॥
२५०--०६--- हरषत सुर, बरषत प्रसून सुभ सगुन कहत कल्यान हैं ।
२५०--०६--- तुलसी ते कृतकृत्य, जे सुमिरत समय सुहावनो ध्यान हैं ॥
२५१--०१--- रामहि करत प्रनाम निहारिकै ।
२५१--०१--- उठे उमँगि आनन्द-प्रेम-परिपूरन बिरद बिचारिकै ॥
२५१--०२--- भयो बिदेह बिभीषन उत, इत प्रभु अपनपौ बिसारिकै ।
२५१--०२--- भलीभाँति भावते भरत-ज्यों भेण्ट्यौ भुजा पसारिकै ॥
२५१--०३--- सादर सबहि मिलाइ समाजहि निपट निकट बैठारिकै ।
२५१--०३--- बूझत छेम-कुसल सप्रेम अपनाइ भरोसे भारिकै ॥
२५१--०४--- नाथ! कुसल-कल्यान-सुमङ्गल बिधि सुख सकल सुधारिकै ।
२५१--०४--- देत-लेत जे नाम रावरो, बिनय करत मुख चारिकै ॥
२५१--०५--- जो मूरति सपने न बिलोकत मुनि-महेस मन मारिकै ।
२५१--०५--- तुलसी तेहि हौं लियो अंक भरि, कहत कछू न सँवारिकै ॥
२५२--०१--- करुनाकरकी करुना भई ।
२५२--०१--- मिटी मीचु, लहि लङ्क सङ्क गै, काहूसो न खुनिस खई ॥
२५२--०२--- दसमुख तज्यो दूध-माखी-ज्यौं, आपु काढ़ि साढ़ी लई ।
२५२--०२--- भव-भूषन सोइ कियो बिभीषन मुद मङ्गल-महिमामई ॥
२५२--०३--- बिधि-हरि-हर, मुनि-सिद्ध सराहत, मुदित देव दुन्दुभी दई ।
२५२--०३--- बारहि बार सुमन बरषत, हिय हरषत कहि जै जै जई ॥
२५२--०४--- कौसिक-सिला-जनक-सङ्कट हरि भृगुपतिकी टारी टई ।
२५२--०४--- खग-मृग सबर-निसाचर, सबकी पूँजी बिनु बाढ़ी सई ॥
२५२--०५--- जुग-जुग कोटि-कोटि करतब, करनी न कछू बरनी नई ।
२५२--०५--- राम-भजन-महिमा हुलसी हिय, तुलसीहूकी बनि गई ॥
२५३--०१--- मञ्जुल मूरति मङ्गलमई ।
२५३--०१--- भयो बिसोक बिलोकि बिभीषन, नेह देह-सुधि-सींव गई ॥
२५३--०२--- उठि दाहिनी ओरतें सनमुख सुखद माँगि बैठक लई ।
२५३--०२--- नखसिख निरखि-निरखि सुख पावत भावत कछु, कछु और भई ॥
२५३--०३--- बार कोटि सिर काटि, साटि लटि, रावन सङ्करपै लई ।
२५३--०३--- सोइ लङ्का लखि अतिथि अनवसर राम तृनासन-ज्यों दई ॥
२५३--०४--- प्रीति-प्रतीति-रीति-सोभा-सिर, थाहत जहँ जहँ तहँ घई ।
२५३--०४--- बाहु-बली, बानैत बोलको, बीर बिस्वबिजई जई ॥
२५३--०५--- को दयालु दूसरो दुनी, जेहि जरनि दीन-हियकी हई ?
२५३--०५--- तुलसी काको नाम जपत जग जगती जामति बिनु बई ॥
२५४--०१--- सब भाँति बिभीषनकी बनी ।
२५४--०१--- कियो कृपालु अभय कालहुतें, गै संसृति-साँसति घनी ॥
२५४--०२--- सखा लषन-हनुमान, सम्भु गुर, धनी राम कोसलधनी ।
२५४--०२--- हिय ही और, और कीन्हीं बिधि, रामकृपा औरै ठनी ॥
२५४--०३--- कलुष-कलङ्क-कलेस-कोस भयो जो पद पाय रावन रनी ।
२५४--०३--- सोइ पद पाय बिभीषन भो भव-भूषन दलि दूषन-अनी ॥
२५४--०५--- रङ्क-निवाज रङ्क राजा किए, गए गरब गरि गरि गनी ।
२५४--०५--- राम-प्रनाम महामहिमा-खनि, सकल सुमङ्गलमनि-जनी ॥
२५४--०६--- होय भलो ऐसे ही अजहुँ गये राम-सरन परिहरि मनी ।
२५४--०६--- भुजा उठाइ, साखि सङ्कर करि, कसम खाइ तुलसी भनी ॥
२५५--०१--- कहो, क्यों न बिभीषनकी बनै ?
२५५--०१--- गयो छाड़ि छल सरन रामकी, जो फल चारि चार्यौं जनै ॥
२५५--०२--- मङ्गलमूल प्रनाम जासु जग, मूल अमङ्गलके खनै ।
२५५--०२--- तेहि रघुनाथ हाथ माथे दियो, को ताकी महिमा भनै ?॥
२५५--०३--- नाम-प्रताप पतितपावन किए, जे न अघाने अघ अनै ।
२५५--०३--- कोउ उलटो, कोउ सुधो जपि भए राजहंस बायस-तनै ॥
२५५--०४--- हुतो ललात कृसगात खात खरि, मोद पाइ कोदो-कनै ।
२५५--०४--- सो तुलसी चातक भयो जाचत राम स्यामसुन्दर घनै ॥
२५६--०१--- अति भाग बिभीषनके भले ।
२५६--०१--- एक प्रनाम प्रसन्न राम भए, दुरित-दोष-दारिद दले ॥
२५६--०२--- रावन-कुम्भकरन बर माँगत सिव-बिरञ्चि बाचा छले ।
२५६--०२--- राम-दरस पायो अबिचल पद, सुदिन सगुन नीके चले ॥
२५६--०३--- मिलनि बिलोकि स्वामि-सेवककी उकठे तरु फूले-फले ।
२५६--०३--- तुलसी सुनि सनमान बन्धुको दसकन्धर हँसि हिये जले ॥
२५७--०१--- गये राम सरन सबकौ भलो ।
२५७--०१--- गनी-गरीब, बड़ो-छोटो, बुध-मूढ़, हीनबल-अतिबलो ॥
२५७--०२--- पङ्गु-अंध, निरगुनी-निसम्बल, जो न लहै जाचे जलो ।
२५७--०२--- सो निबह्यो नीके, जो जनमि जग राम-राजमारग चलो ॥
२५७--०३--- नाम-प्रताप-दिवाकर कर खर गरत तुहिन ज्यों कलिमलो ।
२५७--०३--- सुतहित नाम लेत भवनिधि तरि गयो अजामिल-सो खलो ॥
२५७--०४--- प्रभुपद प्रेम प्रनाम-कामतरु सद्य बिभीषनको फलो ।
२५७--०४--- तुलसी सुमिरत नाम सबनिको मङ्गलमय नभ-जल थलो ॥
२५८--०१--- सुजस सुनि श्रवन हौं नाथ! आयो सरन ।
२५८--०१--- उपल-केवट-गीध-सबरी-संसृति-समन,
२५८--०१--- सोक-श्रम-सीव सुग्रीव आरतिहरन ॥
२५८--०२--- राम राजीव-लोचन बिमोचन बिपति,
२५८--०२--- स्याम नव-तामरस-दाम बारिद-बरन ।
२५८--०२--- लसत जटाजूट सिर, चारु मुनिचीर कटि,
२५८--०२--- धीर रघुबीर तूनीर-सर-धनु-धरन ॥
२५८--०३--- जातुधानेस-भ्राता बिभीषन नाम
२५८--०३--- बन्धु-अपमान गुरु ग्लानि चाहत गरन ।
२५८--०३--- पतितपावन! प्रनतपाल! करुनासिन्धु!
२५८--०३--- राखिए मोहि सौमित्रि-सेवित-चरन ॥
२५८--०४--- दीनता-प्रीति-सङ्कलित मृदुबचन सुनि
२५८--०४--- पुलकि तन प्रेम, जल नयन लागे भरन ।
२५८--०४--- बोलि, "लङ्केस कहि अंक भरि भेण्टि प्रभु,
२५८--०४--- तिलक दियो दीन-दुख-दोष दारिद-दरन ॥
२५८--०५--- रातिचर-जाति, आराति सब भाँति गत
२५८--०५--- कियो सो कल्यान-भाजन सुमङ्गलकरन ।
२५८--०५--- दास तुलसी सदयहृदय रघुबंसमनि
२५८--०५--- "पाहि कहे काहि कीन्हों न तारन-तरन ?॥
२५९--०१--- दीन-हित बिरद पुराननि गायो ।
२५९--०१--- आरत-बन्धु, कृपालु, मृदुल-चित जानि सरन हौं आयो ॥
२५९--०२--- तुम्हरे रिपुको अनुज बिभीषन, बंस निसाचर जायो ।
२५९--०२--- सुनि गुन-सील-सुभाउ नाथको मैं चरननि चितु लायो ॥
२५९--०३--- जानत प्रभु दुख-सुख दासनिको, तातें कहि न सुनायो ।
२५९--०३--- करु करुना भरि नयन बिलोकहु, तब जानौं अपनायो ॥
२५९--०४--- बचन बिनीत सुनत रघुनायक हँसि करि निकट बुलायो ।
२५९--०४--- भेण्ट्यो हरि भरि अंक भरत-ज्यों, लङ्कापति मन भायो ॥
२५९--०५--- करपङ्कज सिर परसि अभय कियो, जनपर हेतु दिखायो ।
२५९--०५--- तुलसिदास रघुबीर भजन करि को न परमपद पायो ?॥
२६०--०१--- सत्य कहौं मेरो सहज सुभाउ ।
२६०--०१--- सुनहु सखा कपिपति लङ्कापति, तुम्ह सन कौन दुराउ ॥
२६०--०२--- सब बिधि हीन-दीन, अति जड़मति जाको कतहुँ न ठाउँ ।
२६०--०२--- आयो सरन भजौं, न तजौं तिहि, यह जानत रिषिराउ ॥
२६०--०३--- जिन्हके हौं हित सब प्रकार चित, नाहिन और उपाउ ।
२६०--०३--- तिन्हहिं लागि धरि देह करौं सब, डरौं न सुजस नसाउ ॥
२६०--०४--- पुनि पुनि भुजा उठाइ कहत हौं, सकल सभा पतिआउ ।
२६०--०४--- नहि कोऊ प्रिय मोहि दास सम, कपट-प्रीति बहि जाउ ॥
२६०--०५--- सुनि रघुपतिके बचन बिभीषन प्रेम-मगन, मन चाउ ।
२६०--०५--- तुलसिदास तजि आस-त्रास सब ऐसे प्रभु कहँ गाउ ॥
२६१--०१--- नाहिन भजिबे जोग बियो ।
२६१--०१--- श्रीरघुबीर समान आन को पूरन-कृपा-हियो ॥
२६१--०२--- कहहु, कौन सुर सिला तारि पुनि केवट मीत कियो ?
२६१--०२--- कौने गीध अधमको पितु-ज्यों निज कर पिण्ड दियो ?॥
२६१--०३--- कौन देव सबरीके फल करि भोजन सलिल पियो ?
२६१--०३--- बालित्रास-बारिधि बूड़त कपि केहि गहि बाँह लियो ?॥
२६१--०४--- भजन-प्रभाउ बिभीषन भाष्यौ, सुनि कपि-कटक जियो ।
२६१--०४--- तुलसिदासको प्रभु कोसलपति सब प्रकार बरियो ॥
२६२--०१--- जानकी-त्रिजटा-संवाद
२६२--राग---जैतश्री
२६२--०१--- कब देखौङ्गी नयन वह मधुर मूरति ?
२६२--०१--- राजिवदल-नयन, कोमल, कृपा-अयन,
२६२--०१--- मयननि बहु छबि अंगनि दुरति ॥
२६२--०२--- सिरसि जटा-कलाप, पानि सायक,
२६२--०२--- चाप, उरसि रुचिर बनमाल लूरति ।
२६२--०२--- तुलसिदास रघुबीरकी सोभा सुमिरि,
२६२--०२--- भई है मगन नहि तनकी सूरति ॥
२६३--राग---केदारा
२६३--०१--- कहु, कबहुँ देखिहौं आली! आरज-सुवन ।
२६३--०१--- सानुज सुभग-तनु जबतें बिछुरे बन,
२६३--०१--- तबतें दव-सी लगी तीनिहू भुवन ॥
२६३--०२--- मूरति सूरति किये प्रगट प्रीतम हिये,
२६३--०२--- मनके करन चाहैं चरन छुवन ।
२६३--०२--- चित चढ़िगो बियोग-दसा न कहिबे जोग,
२६३--०२--- पुलक गात, लागे लोचन चुवन ॥
२६३--०३--- तुलसी त्रिजटा जानी, सिय अति अकुलानी
२६३--०३--- मृदु बानी कह्यौ ऐहैं दवन-दुवन ।
२६३--०३--- तमीचर-तम-हारी सुरकञ्ज-सुखकारी
२६३--०३--- रबिकुल-रबि अब चाहत उवन ॥
२६४--०१--- अबलौं मैं तोसों न कहे री ।
२६४--०१--- सुन त्रिजटा! प्रिय प्राननाथ बिनु बासर निसि दुख दुसह सहे री ॥
२६४--०२--- बिरह बिषम बिष-बेलि बढ़ी उर, ते सुख सकल सुभाय दहे री ।
२६४--०२--- सोइ सीञ्चिबे लागि मनसिजके रहँट नयन नित रहत नहे री ॥
२६४--०३--- सर-सरीर सूखे प्रान-बारिचर जीवन-आस तजि चलनु चहे री ।
२६४--०३--- तैं प्रभु सुजस-सुधा सीतल करि राखे, तदपि न तृप्ति लहे री ॥
२६४--०४--- रिपु-रिस घोर नदी बिबेक-बल, धीर-सहित हुते जात बहे री ।
२६४--०४--- दै मुद्रिका-टेक तेहि औसर, सुचि समिरसुत पैरि गहे री ॥
२६४--०५--- तुलसिदास सब सोच पोच मृग मन-कानन भरि पूरि रहे री ।
२६४--०५--- अब सखि सिय सँदेह परिहरु हिय, आइ गए दोउ बीर अहेरी ॥
२६५--राग---बिलावल
२६५--०१--- सो दिन सोनेको, कहु, कब एहै !
२६५--०१--- जा दिन बँध्यो सिन्धु त्रिजटा! सुनि तू सम्भ्रम आनि मोहि सुनैहै ॥
२६५--०२--- बिस्व-दवन सुर-साधु-सतावन रावन कियो आपनो पैहै ।
२६५--०२--- कनकपुरी भयो भूप बिभीषन, बिबुध-समाज बिलोकन धैहै ॥
२६५--०३--- दिब्य दुन्दुभी, प्रसंसिहैं मुनिगन, नभतल बिमल बिमाननि छैहै ।
२६५--०३--- बरषिहैं कुसुम भानुकुल-मनिपर, तब मोको पवनपूत लै जैहै ॥
२६५--०४--- अनुज सहित सोभिहैं कपि महँ, तनु-छबि कोटि मनोजहि तैहै ।
२६५--०४--- इन नयनन्हि यही भाँति प्रानपति निरखि हृदय आनँद न समैहै ॥
२६५--०५--- बहुरो सदल सनाथ सलछिमन कुसल कुसल बिधि अवध देखैहै ।
२६५--०५--- गुर, पुरलोग, सास, दोउ देवर, मिलत दुसह उर तपनि बुतैहै ॥
२६५--०६--- मङ्गल-कलस, बधावने घर-घर, पैहैं माँगने जो जैहि भैहै ।
२६५--०६--- बिजय राम राजाधिराजको, तुलसिदास पावन जस गैहै ॥
२६६--०१--- सिय! धीरज धरिये, राघौ अब ऐहैं ।
२६६--०१--- पवनपूतपै पाइ तिहारी सुधि, सहज कृपालु, बिलम्ब न लैहैं ॥
२६६--०२--- सेन साजि कपि-भालु कालसम कौतुक ही पाथोधि बँधैहैं ।
२६६--०२--- घेरोइपै देखिबो लङ्कगढ़, बिकल जातुधानी पछितैहैं ॥
२६६--०३--- निसिचर-सलभ कृसानु राम सर उड़ि-उड़ि परत जरत जड़ जैहैं ।
२६६--०३--- रावन करि परिवार अगमनो, जमपुर जात बहुत सकुचैहैं ॥
२६६--०४--- तिलक सारि, अपनाय बिभीषन, अभय-बाँह दै अमर बसैहैं ।
२६६--०४--- जय धुनि मुनि, बरसिहैं सुमन सुर, ब्योम बिमान निसान बजैहैं ॥
२६६--०५--- बन्धु समेत प्रानबल्लभ पद परसि सकल परिताप नसैहैं ।
२६६--०५--- राम-बामदिसि देखि तुमहि सब नयनवन्त लोचन-फल पैहैं ॥
२६६--०६--- तुम अति हित चितैहौ नाथ-तनु, बार-बार प्रभु तुमहि चितैहैं ।
२६६--०६--- यह सोभा, सुख-समय बिलोकत काहू तो पलकैं नहिं लैहैं ॥
२६६--०७--- कपिकुल-लखन-सुजस-जय-जानकि सहित कुसल निज नगर सिधैहैं ।
२६६--०७--- प्रेम पुलकि आनन्द मुदित मन तुलसिदास कल कीरति गैहैं ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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