मन्त्रमहोदधि - त्रयोदश तरङ्ग

`मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है, जो आद्य माना जाता है।


अरित्र
अब सर्वेष्टसिद्धि के लिए हनुमान जी के मन्त्रों को कहता हूँ -
इन्द्र स्वर (औं) और इन्दु (अनुस्वार) इन दोनों के साथ वराह (ह्) अर्थात् (हौं), यह प्रथम बीज है । फिर झिण्टीश (ए) बिन्दु (अनुस्वार) सहित ह् स् फ् और अग्नि (र्) अर्थात (ह्स्फ्रें), यह द्वितीय बीज कहा गया है । रुद्र (ए) एवं बिन्दु अनुस्वार सहित गदी (ख्) पान्त (फ्) तथा अग्नि (र्) अर्थात् (ख्फ्रें), यह तृतीय बीज है । मनु (औ), चन्द्र (अनुस्वार) सहित ह् स् र् अर्थात् (ह्स्त्रौं), यह चतुर्थ बीज है । शिव (ए) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित ह् स् ख् फ् तथा र अर्थात (ह्ख्फ्रें), यह पञ्चम बीज है । मनु (औ) इन्दु अनुस्वार सहित ह् तथा स् अर्थात् (ह्सौं), यह षष्ठ बीज है । इसके बाद चतुर्थ्यन्त हनुमान् (हनुमते) फिर अन्त में हार्द (नमः) लगाने से १२ अक्षरों का मन्त्र बनता है ॥१-२॥

द्वादशाक्षर हनुमत् मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - १. हौं २. ह्स्फ्रें, ३. ख्फ्रें, ४. ह्स्त्रौं ५. ह्स्ख्फ्रें ६., हनुमते नमः (१२) ॥३॥

इस मन्त्र के रामचन्द्र ऋषि हैं, जगती छन्द है, हनुमान् देवता है तथा षष्ठ ह्सौं बीज है, द्वितीय ह्स्फ्रें शक्ति माना गया है ॥४-५॥

विनिर्श - विनियोग का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ अस्य श्रीहनुमन्मन्त्रस्य रामचन्द्र ऋषिः जगतीछन्दः हनुमान् देवता ह्स्ॐ बीजं ह्स्फ्रें शक्तिः आत्मनोऽभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः; ॥४-५॥

अब षडङ्ग एवं वर्णन्यास कहते हैं - ऊपर कहे गये मन्त्र के छः बीजाक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर मन्त्र के एक एक वर्ण का क्रमशः १. शिर, २. ललाट, ३. नेत्र, ४. मुख, ५. कण्ठ, ६. दोनो हाथ, ७. हृदय, ८. दोनों कुक्षि, ९. नाभि, १०. लिङ्ग ११. दोनों जानु, एवं १२. पैरों में, इस प्रकार १२ स्थानों में १२ वर्णों का न्यास करना चाहिए ॥५-६॥

विमर्श - षडङ्गन्यास का प्रकार -
हौं हृदयाय नमः,        ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा,        ख्फ्रें शिखायै वषट्,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्,        ह्स्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट,    ह्स्ॐ अस्त्राय फट् ।

वर्णन्यास -
हौं नमः मूर्ध्नि,        ह्ख्फ्रें नमः ललाटे,        ख्फ्रें नमः नेत्रयोः,
हं नमः हृदि,            नुं नमः कुक्ष्योः        मं नमः नाभौ,
ते नमः लिङ्गे            नं नमः जान्वोः,        मं नमः पादयोः ॥५-६॥

अब पदन्यास कहते हैं - ६ बीजों एवं दोनों पदों का क्रमशः शिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, ऊरु जंघा, एवं पैरों में न्यास करना चाहिए ॥७॥

विमर्श - हौं नमः मूर्ध्नि,    हस्फ्रें नमः ललाटे,        ख्फ्रें नमः मुखे,
ह्स्त्रौ नमः हृदि,        ह्स्ख्फ्रें नमः नाभौ,         ह्सौं नमः ऊर्वोः,
हनुमते नमः जंघयोः,        नमः नमः पादयोः ॥७॥

अब ध्यान कहते है - उदीयमान सूर्य के समान कान्ति से युक्त, तीनों लोको को क्षोभित करने वाले, सुन्दर, सुग्रीव आदि समस्त वानर समुदायोम से सेव्यमान चरणों वाले, अपने भयंकर सिंहनाद से राक्षस समुदायों को भयभीत करने वाले, श्री राम के चरणारविन्दों का स्मरण करने वाले हनुमान् जी का मैं ध्यान करता हूँ ॥८॥

इस प्रकार ध्यान कर अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर साधक बारह हजार की संख्या में जप करे तथा दूध, दही, एवं घी मिश्रित व्रीहि (धान) से उसका दशांश होम करे ॥९॥

विमला आदि शक्तियों से युक्त पीठ पर श्री हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए ॥१०॥

विमर्श - प्रथम वृत्ताकारकर्णिका,फिर अष्टदल एवं भूपुर सहित यन्त्र का निर्माण करे । फिर १३. ८ श्लोक में वर्णित हनुमान्‍ जी के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । फिर ९. ७२.७८ में वर्णित विधि से वैष्णव पीठ पर उनका पूजन करे । यथा - पीठमध्ये-
ॐ आधारशक्तये नमः,        ॐ प्रकृत्यै नमः,        ॐ कूर्माय नमः,
ॐ अनन्ताय नमः,        ॐ पृथिव्यै नमः,        ॐ क्षीरसमुद्राय नमः,
ॐ मणिवेदिकायै नम्ह,    ॐ रत्नसिंहासनाय नमः,    

तदनन्तर आग्नेयादि कोणों में धर्म आदि का तथा दिशाओं में अधर्म आदि का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ धर्माय नमः, आग्नेये,        ॐ ज्ञानाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ वैराग्याय नमः वायव्ये,        ॐ ऐश्वर्याय नमः ऐशान्ये,
ॐ अधर्माय नमः पूर्वे,            ॐ अज्ञानाय नमः, दक्षिणे,
ॐ अवैराग्याय नमः पश्चिमे,        ॐ अनैश्वर्याय नमः, उत्तरे,

पुनः पीठ के मध्य में अनन्त आदि का-
ॐ अनन्ताय नमः,    
ॐ पद्माय नमः,
ॐ अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः
ॐ  उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः,
ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमः
ॐ सं सत्त्वाय नमः,
ॐ रं रजसे नमः,
ॐ तं तमसे नमः,
ॐ आं आत्मने नमः,
ॐ अं अन्तरात्मने नमः,
ॐ पं परमात्मने नमः,
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः, पूर्वे

केशरों के ८ दिशाओं में तथा मध्य में विमला आदि शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए -
ॐ विमलायै नमः,        ॐ उत्कर्षिण्यै नमः,        ॐ ज्ञानायै नमः,
ॐ क्रियायै नमः,        ॐ योगायै नमः,        ॐ प्रहव्यै नमः,
ॐ सत्यायै नमः,        ॐ ईशानायै नमः        ॐ अनुग्रहायै नमः ।

तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्‌पीठात्मने नमः’ (द्र० ९. ७३-७४) इस पीठ मन्त्र से पीठ को पूजित कर पीठ पर आसन ध्यान आवाहनादि उपचारों से हनुमान् जी का पूजन कर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । तदनन्तर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१०॥

अब आवरण पूजा का विधान कहते हैं - सर्वप्रथम केसरों में अङ्गपूजा तथा दलों पर तत्तन्नामोम द्वारा हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए । रामभक्त महातेजा, कपि राज, महाबल, दोणाद्रिहारक, मेरुपीठकार्चनकारक, दक्षिणाशाभास्कर तथा सर्वविघ्ननिवारक ये ८ उनके नाम हैं । नामों से पूजन करने बाद दलों के अग्रभाग में सुग्रीव, अंगद, नील, जाम्बवन्त, नल, सुषेण, द्विविद और मयन्द ये ८ वानर है । तदनन्तर दिक्पालोम का भी पूजन करना चाहिए ॥१०-१३॥

विमर्श - आवरण पूजा विधि - प्रथम केसरों में आग्नेयादि क्रम से
अङ्ग्पूजा यथा - हौं हृदयाय नमः,        ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा,        ख्फ्रें शिखायै वषट्,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्,        हस्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट्,    ह्स्ॐ अस्त्राय फट्,

फिर दलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से नाम मन्त्रों से -
ॐ रामभक्ताय नमः,        ॐ महातेजसे नमः,        ॐ कपिराजाय नमः,
ॐ महाबलाय नमः,        ॐ द्रोणादिहारकाय नमः,    ॐ मेरुपीठकार्चनकारकाय नमः,
ॐ दक्षिणाशाभास्कराय नमः,    ॐ सर्वविघ्ननिवारकाय नमः ।

तदनन्तर दलों के अग्रभाग पर सुग्रीवादि की पूर्वादि क्रम से यथा -
ॐ सुग्रीवाय नमः,        ॐ अंगदाय नमः,        ॐ नीलाय नमः,
ॐ जाम्बवन्ताय नमः,    ॐ नलाय नमः,        ॐ सुषेणाय नमः,
ॐ द्विविदाय नमः,        ॐ मैन्दाय नमः,

फिर भूपुर में पूर्वादि क्रम से इन्द्रादि दिक्पालों की यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः, पूर्वे,        ॐ रं अग्नयेः आग्नेये,
ॐ यं यमाय नमः दक्षिणे        ॐ क्षं निऋत्ये नमः, नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः, पश्चिमे,        ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे        ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्रह्मणे नमः पूर्वैशानयोर्मध्ये,
ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये

इस प्रकार आवरण पूजा कर मूलमन्त्र से पुनः हनुमान् जी का धूप, दीपादि उपचारों से पूजन करना चाहिए ॥१०-१३॥

अब काम्य प्रयोग कहते है - इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक अपना या दूसरों का अभीष्ट कार्य करे ॥१४॥

केला, बिजौरा, आम्रफलों से एक हजार आहुतियाँ दे और २२ ब्रह्मचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे । ऐसा करने से महाभूत, विष, चोरों आदि के उपद्रव नष्ट हो जाते हैं । इतना ही नहीं विद्वेष करने वाले, ग्रह और दानव भी ऐसा करने नष्ट हो जाते है ॥१४-१६॥

१०८ बार मन्त्र से अभिमन्त्रित जल विष को नष्ट कर देता है । जो व्यक्ति रात्रि में १० दिन पर्यन्त ८०० की संख्या में इस मन्त्र का जप करत है उसका राजभय तथा शत्रुभय से छुटकारा हो जाता है । अभिचार जन्य तथा भूतजन्य ज्वर में इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल या भस्म द्वारा क्रोधपूर्वक ज्वरग्रस्त रोगी को प्रताडित करना चाहिए । ऐसा करने से वह तीन दिन के भीतर ज्वरमुक्त हो कर सुखी हो जाता है । इस मन्त्र से अभिमन्त्रित औषधि खाने से निश्चित रुप से आरोग्य की प्राप्ति हो जाती है ॥१६-१९॥

इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पीकर तथा इस मन्त्र को जपते हुये अपने शरीर में भस्म लगाकर जो व्यक्ति इस मन्त्र का जप करते हुये रणभूमि में जाता हैं,युद्ध में नाना प्रकार के शस्त्र समुदाय उस को कोई बाधा नहीं पहुँचा सकते ॥२०॥

चाहे शस्त्र का घाव हो अथवा अन्य प्रकार का घाव हो, शोध अथवा लूता आदि चर्मरोग एवं फोडे फुन्सियाँ इस मन्त्र से ३ बार अभिमन्त्रित भस्म के लगाने से शीघ्र ही सूख जाती हैं ॥२१॥

अपनी इन्द्रियों को वश में कर साधक को सूर्यास्त से ले कर सूर्योदय पर्यन्त ७ दिन कील एवं भस्म ले कर इस मन्त्र का जप करन चाहिए । फिर शत्रुओं को बिना जनाये उस भस्म को एवं कीलों को शत्रु के दरवाजे पर गाड दे तो ऐसा करने से शत्रु परस्पर झगड कर शीघ्र ही स्वयं भाग जाते हैं ॥२२-२३॥

अपने शरीर पर लगाये गये चन्दन के साथ इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल एवं भस्म को खाद्यान्न के साथ मिलाकर खिलाने से खाने वाला व्यक्ति दास हो जाता है । इतना ही नहीं ऐसा करने से क्रूर जानवर भी वश में हो जाते हैं ॥२४-२५॥

करञ्ज वृक्ष के ईशानकोण की जड ले कर उससे हनुमान् जी की प्रतिमा निर्माण कराकर प्राणप्रतिष्ठा कर सिन्दूर से लेपकर इस मन्त्र का जप करते हुये उसे घर के दरवाजे पर गाड देनी चाहिए । ऐसा करने से उस घर में भूत, अभिचार, चोर, अग्नि, विष, रोग, तथा नृप जन्य उपद्रव कभी भी नहीं होते और घर में प्रतिदिन धन, पुत्रादि की अभिवृद्धि होती हैं ॥२५-२८॥

मारण प्रयोग - रात्रि में श्मशान भूमि की मिट्टी या भस्म से शत्रु की प्रतिमा बनाकर हृदय स्थान में उसक नाम लिखना चाहिए । फिर उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर, मन्त्र के बाद शत्रु का नाम, फिर छिन्धि भिन्धि एवं मारय लगाकर उसका जप करते हुये शस्त्र द्वारा उसे टुकडे -टुकडे कर देना चाहिए । फिर होठों को दाँतों के नीचे दबा कर हथेलियों से उसे मसल देना चाहिए । तदनन्तर उसे वहीं छोडकर अपन घर आ जाना चाहिए । ७ दिन तक ऐसा लगातार करते रहने से भगवान् शिव द्वारा रक्षित भी शत्रु मर जाता है ॥२९-३२॥

श्मशान स्थान में अपने केशों को खोलकर अर्धचन्द्राकृति वाले कुण्ड में अथवा स्थाण्डिल (वेदी) पर राई नमक मिश्रित धतूर के फल, उसके पुष्प, कौवा उल्लू एवं गीध के नाखून, रोम और पंखों से तथा विष से लिसोडा एवं बहेडा की समिधा में दक्षिणाभिमुख हो रात में एक सप्ताह पर्यन्त निरन्तर होम करने से उद्धत शत्रु भी मर जाता है ॥३२-३५॥

इसके बाद बेताल सिद्धि का प्रयोग कहते हैं - श्मशान में रात्रि के समय लगातार तीन दिन तक प्रतिदिन ६०० की संख्या में इस मूल मन्त्र का जप करते रहने से बेताल खडा हो कर साधक का दास बन जाता है और भविष्य में होने वाले शुभ अथवा घटनाओम को तथा अन्य प्रकार की शंकाओं की भी साफ साफ कह देता है ॥३५-३६॥

साधक हनुमान् जी की प्रतिमा के सामने साध्य का द्वितीयान्त नाम, फिर ‘विमोचय विमोचय’ पद, तदनन्तर, मूल मन्त्र लिखे । फिर उसे बायें हाथ से मिटा देवे, यह लिखने और मिटाने की प्रक्रियाः पुनः पुनः करते रहना चाहिए । इस प्रकार एक सौ आठ बार लिखते मिटाते रहने से बन्दी शीघ्र ही हथकडी और बेडी से मुक्त हो जाता है । हनुमान् जी के पैरों के नीचे ‘अमुकं विद्वेषय विद्वेषय’ लगाकर विद्वेषण करे, ‘अमुकं उच्चाटय उच्चाटय’ लगाकर उच्चाटन करे तथा ‘मारय मारय’ लगाकर मारण का भी प्रयोग किया जा सकता है ॥३७-३९॥

विमर्श - बिना गुरु के मारन एवं विद्वेषण आदि प्रयोगों को करने से स्वयं पर ही आघात हो जाता है ॥३७-३९॥

अब विविध कामनाओं में होम का विधान कहते हैं - वश्य कर्म में सरसों से, विद्वेष में कनेर के पुष्प, लकडियों से, अथवा जीरा एवं काली मिर्च से भी होम करना चाहिए ॥४०॥

ज्वर में दूर्वा, गुडूची, दही, घृत, दूध से तथा शूल में कुवेराक्ष (षांढर) एवं रेडी की समिधाओं से अथवा तेल में डुबोई गई निर्गुण्डी की समिधाओं से प्रयत्नपूर्वक होम करना चाहिए । सौभाग्य प्राप्ति के लिए चन्दन, कपूर, गोरोचन, इलायची, और लौंग से वस्त्र प्राप्ति के लिए सुगन्धित पुष्पों से तथा धान्य वृद्धि के लिए धान्य से ही होम करना चाहिए । शत्रु की मृत्यु के लिए उसके परि की मिट्टी राई और नमक मिलाकर होम करने से उसकी मृत्यु हो जाती है ॥४१-४३॥

अब इस विषय में हम बहुत क्या कहें - सिद्ध किया हुआ यह मन्त्र मनुष्योम को विष, व्याधि, शान्ति, मोहन, मारण, विवाद, स्तम्भन, द्यूत, भूतभय संकट, वशीकरण, युद्ध, राजद्वार, संग्राम एवं चौरादि द्वारा संकट उपस्थित होने पर निश्चित रुप से इष्टसिद्धि प्रदान करता है ॥४४-४५॥

अब धारण के लिए हनुमान जी के सर्वसिद्धिदायक यन्त्र को कहता हूँ -
पुच्छ के आकार समान तीन वलय (घेरा) बनाना चाहिए । उसके बीच में धारण करन वाले साध्य का नाम लिखकर दूसरे घेरे में पाश बीज (आं) लिखकर उसे वेष्टित कर देना चाहिए । फिर वलय के ऊपर अष्टदल बनाकर पत्रों में वर्म बीज (हुम्) लिखना चाहिए । फिर उसके बाहर वृत्त बनाकर उसके ऊपर चौकोर चतुरस्त्र लिखना चाहिए । फिर चतुरस्त्र के चारो भुजाओं के अग्रभाग में दोनों ओर त्रिशूल का चिन्ह बनाना चाहिए । तत्पश्चात भूपुर के अष्ट वज्रों (चारों दिशाओं, चारोम कोणों) में ह्सौं यह बीज लिखना चाहिए । फिर कोणों पर अंकुश बीज (क्रों) लिखकर उस चतुरस्त्र को वक्ष्यमाण मालामन्त्र से वेष्टित कर देना चाहिए । तत्पश्चात सारे मन्त्रों को तीन वलयोम (गोलाकार घेरों) से वेष्टित कर देना चाहिए ॥४६-५०॥

यह यन्त्र, वस्त्र, शिला, काष्ठफलक, ताम्रपत्र, दीवार, भोजपत्र या ताडपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी एवं कुंकुम (केशर) से लिखना चाहिए । साधक उपवास तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये मन्त्र में हनुमान्‍ जी की प्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् उसका पूजन करे । सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए यह यन्त्र स्वयं भी धारण करना चाहिए ॥५०-५२॥

उक्त लिखित यन्त्र ज्वर, शत्रु, एवं अभिचार जन्य बाधाओं को नष्ट करता है तथा सभी प्रकार के उपरद्रवों को शान्त करता है । किं बहुना स्त्रियों तथा बच्चों द्वारा धारण करने पर यह उनका भी कल्याण करता है ॥५३॥

विमर्श -  इस धारण यन्त्र को चित्र के अनुसार बनाना चाहिए । तदनन्तर उसमें हनुमान् जी की प्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् पूजन कर पहनना चाहिए ॥५३॥

अब ऊपर प्रतिज्ञात माला मन्त्र का उद्धार कहते हैं - प्रथम प्रणव (ॐ), वाग्‍ (ऐं), हरिप्रिया (श्रीं), फिर दीर्घत्रय सहित माया (ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिर पूर्वोक्त पाँच कूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं) तथा तार (ॐ), फिर ‘नमो हनुमते प्रकट’ के बाद ‘पराक्रम आक्रान्तदिङ्‌मण्डलयशो वि’ फिर ‘तान’ कहना चाहिए, फिर ‘ध्वलीकृत’ पद के बाद ‘जगत्त्रितय और ‘वज्र’ कहना चाहिए । फिर ‘देहज्वलदग्निसूर्यकोटि’ के बाद ‘समप्रभतनूरुहरुद्रवतार’, इतना पद कहना चाहिए । फिर ‘लंकापुरी दह’ के बाद ‘नोदधिलंघन’, फिर ‘दशग्रीवशिरः कृतान्तक सीताश्वासनवायु’, के बाद ‘सुतं’ शब्द कहना चाहिए ॥५४-५८॥

फिर ‘अञ्जनागर्भसंभूत श्री रामलक्ष्मणानन्दक’, फिर ‘रकपि’, ‘सैन्यप्राकार’, फिर ‘सुग्रीवसख्यका’ के बाद ‘रणबालिनिबर्हण कारण द्रोणपर्व’ के बाद ‘तोत्पाटन’ इतना कहना चाहिए । फिर ‘अशोक वन वि’ के बाद, ‘दारणाक्षकुमारकच्छेदन’ के बाद  फिर ‘वन’ शब्द, फिर ‘रक्षाकरसमूहविभञ्जन’, फिर ‘ब्रह्मारस्त्र ब्रह्मशक्ति ग्रस’ और ‘न लक्ष्मण’ के बाद ‘शक्तिभेदनिवारण’ तथा ‘विशलौषधि’ वर्ण के बाद ‘समानयन बालोदितभानु’, फिर ‘मण्डलग्रसन’ के बाद ‘मेघनाद होम’ फिर ‘विध वंसन’ यह पद बोलना चाहिए । फिर ‘इन्द्रजिद्वधकार’ के बाद, ‘णसीतारक्षक राक्षसीसंघ’, विदारण’, फिर ‘कुम्भकर्णादिवध’ शब्दो के बाद, ‘परायण’, यह पद बोलना चाहिए । फिर ‘श्री रामभक्ति’ के बाद ‘तत्पर-समुद्र-व्योम द्रुमलंघन महासामर्घमहातेजःपुञ्जविराजमान’ स्बद, तथा ‘स्वामिवचसंपादितार्जुन’ के बाद ‘संयुगसहाय’ एवं ‘कुमार ब्रह्मचारिन्’ पद कहना चाहिए । फिर ‘गम्भीरशब्दो’ के बाद अत्रि (द), वायु(य) , फिर ‘दक्षिणाशा’, पद, तथा ‘मार्तण्डमेरु’ शब्न्द के बाद ‘पर्वत’ शब्द कहना चाहिए । फिर ‘पीठेकार्चन’ शब्द के बाद ‘सकल मन्त्रागमार्चाय मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटन और ‘सर्वविषविनाशन सर्वापत्ति निवारण सर्वदुष्ट’ इतना पढना चाहिए । फिर ‘निबर्हण’ पद, तथा ‘सर्वव्याघ्रादिभय’, उसके बाद ‘निवारण सर्वशत्रुच्छेदन मम परस्य च त्रिभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकं सर्वजीव’ पद के बाद ‘जातं’, फिर ‘वशय’ यह पद दो बार, फिर ‘ममाज्ञाकारक’ के बाद दो बार ‘संपादय’, फिर ‘नाना नाम’ शब्द, फिर ‘धेयान्‍ सर्वान् राज्ञः स" इतना पद कहना चाहिए । फिर ‘परिवारन्मम सेवकान्’ फिर दो बार ‘कुरु’, फिर ‘सर्वशस्त्रास्त्र वि’ के बाद ‘षाणि’, तदनन्तर दो बार ‘विध्वंसय’ फिर दीर्घत्रयान्विता माया (ह्रां ह्रीं ह्रूँ), फिर हात्रय (हा हा हा) एहि युग्म (एह्येहि), विलोमक्रम से पञ्चकूट (ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्स्फ्रें) और फिर ‘सर्वशत्रून’, तदनन्तर दो बार हन (हन हन), फिर ‘परद’ के बाद ‘लानि परसैन्यानि’, फिर क्षोभय यह पद दो बार (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘मम सर्वकार्यजातं’ तथा २ बार कीलय (कीलय कीलय), फिर घेत्रय (घे घे घे), फिर हात्रय (हा हा हा), वर्म त्रितय (हुं हुं हुं), फिर ३ बार फट् और इसके अन्त में वह्रिप्रिया, (स्वाहा) लगाने से सर्वाभीष्टकारक ५८८ अक्षरों का हनुन्माला मन्त्र बनता है । महान् से महान् उपद्रव होने पर मन्त्र के जप से सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं ॥५४-७९॥

विमर्श - हनुमन्माला मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ह्स्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॐ नमो हनुमते प्रकटपराकरम आक्रान्त दिङ्‍मण्डलयशोवितान धवलीकृतजगत्त्रितय वज्रदेह ज्वलदन्गि सूर्यकोटि समप्रभतनूरुह रुद्रावतार लंकापुरीदहनोदधिलंघन दशग्रीवशिरःकृतान्तक सीताश्वासन वायुसुत अञ्जनागर्भसंभूत श्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीवसख्यकारण बालिनिबर्हण-कारण द्रोणपर्वतोत्पाटन अशोकवनविदारण अक्षकुमारकच्छेदन वनरक्षाकरसमूहविभञ्जन ब्रह्यास्त्रब्रह्यशक्तिग्रसन लक्ष्मणशक्तिभेदेनिवारण विशल्यौषधिसमानयन बालोदितभानुमण्डलग्रसन मेघनादहोमविध्वंसन इन्द्राजिद्वधकाराण सीतारक्षक राक्षासंघविदारण कुम्भकर्णादि-वधपरायण श्रीरामभक्तितत्पर समुद्रव्योमद्रुमलंघन महासामर्घ्य महातेजःपुञ्जविराजमान स्वामिवचनसंपादित अर्जुअनसंयुगसहाय कुमारब्रह्मचारिन् गम्भीरशब्दोदय दक्षिणाशामार्तण्ड मेरुपर्वतपीठेकार्चन सकलमन्त्रागमाचार्य मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटन सर्वविषविनाशन सर्वापत्तिनिवारण सर्वदुष्टनिबर्हण सर्वव्याघ्रादिभयनिवारण सर्वशत्रुच्छेदन प्रम परस्य च त्रिभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकसर्वजीवजातं वशय वशय मम आज्ञाकारक्म संपादय संपादय नानानामध्येयान् सर्वान् राज्ञः सपरिवारान् मम सेवकान् कुरु कुरु सर्वशस्त्रास्त्रविषाणि विध्वंसय विध्वंसय ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रां ह्रां एहि एहि ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्सफ्रें सर्वशत्रून हन हन परदलानि परसैन्यानि क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्यजातं साधय साधय सर्वदुष्टदुर्जनमुखानि कीलय कीलय घे घे घे हा हा हा हुं हुं हुं फट् फट् फट् स्वाहा - मालामन्त्रोऽयमष्टाशीत्याधिक पञ्चशतवर्णः; ॥५४-७९॥

पूर्व में कहे गये द्वादशाक्षर मन्त्र (द्र० १३. १ - ३) के अन्तिम ६ वर्णों को (हनुमते नमः) तथा प्रारम्भ के एक वर्ण हौ को छोडकर जो पञ्च कूटात्मक मन्त्र बनता है वह साधक के सर्वाभीष्ट को पूर्ण कर देता है ॥८०॥

विमर्श - पञ्चकूट का स्वरुप - ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॥८०॥

इस मन्त्र के राम ऋषि, गायत्री छन्द तथा कपीश्वर देवता हैं ॥८१॥

विमर्श - विनियोगः - अस्य श्रीहनुमत पञ्चकूट मन्त्रस्य रामचन्द्रऋषिः गायत्रीच्छन्दः कपीश्वरो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥८१॥

पञ्चकूटात्मक बीज तथा समस्त मन्त्रों के क्रमशः - हनुमते रामदूताय लक्ष्मण प्राणदात्रे अञ्जनासुताय सीताशोकविनाशाय, लंकाप्रासादभञ्जनाय रुप चतुर्थ्यन्त शब्दों को प्रारम्भ में लगाने से इस मन्त्र का षडङ्गन्यास मन्त्र बन जाता है । इस मन्त्र का ध्यान (द्र०१३. ८) तथा पूजापद्धति (द्र १३. १०-१३) पूर्ववत् है ॥८१-८३॥

विमर्श - षडङ्गन्यासं-     ह्स्फ्रें हनुमते हृदयाय नमः,
ख्फें रामदूताय शिरसे स्वाहा,    ह्स्त्रौं लक्ष्मणप्राणदात्रे शिखायै वषट्,
ह्स्ख्फ्रें अञ्जनासुताय कवचाय हुम्, ह्सौं सीताशोक विनाशाय नेत्रत्रयाय वौषट्,
ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्स्ख्फ्रें ह्सौं लंकाप्रासादभञ्जनाय अस्त्राय फट्‍ ॥८१-८३॥

तार (ॐ), वाक् (ऐं), कमला (श्रीं), माया दीर्घत्रयाद्या (ह्रां ह्रीं हूँ), तथा पञ्चकूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्सौं) लगाने से ११ अक्षरों का अभीष्ट सिद्धिदायक मन्त्र बनता है । इस मन्त्र का ध्यान तथा पूजा पद्धति (१३. ८, १३. १०-१३) पूर्ववत हैं ॥८४-८५॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्स्ख्फ्रें ह्स्ॐ (११) ॥८४-८५॥

अब इस मन्त्र के अतिरिक्त अन्य मन्त्र कहते हैं - नम, फिर भगवान् आञ्जनेय तथा महाबल का चतुर्थ्यन्त (भगवते, आञ्जनेयाय महाबलाय), इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने से अष्टादशाक्षर अन्य मन्त्र बन जाता है ॥८५-८६॥

अष्टादशाक्षार मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥८५-८६॥

विनियोग एवं न्यास - उपर्युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र के ईश्वर ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, और हनुमान् देवता हैम, हुं बीज तथा अग्निप्रिया (स्वाहा) शक्ति हैं ॥८६-८७॥

आञ्जनेय, रुद्रमूर्ति, वायुपुत्र, अग्निगर्भ, रामदूत तथा ब्रह्मस्त्रविनिवारन इनमें चतुर्थ्यन्त लगाकर षडङ्गन्यास कर कपीश्वर का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए ॥८७-८८॥

विमर्श - विनियोग- अस्य श्रीहनुमन्मन्त्रस्य ईश्वरऋषिरनुष्टुप् छन्दः हनुमान् देवता हुं बीजं स्वाहा शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जप विनियोगः ।

षडङ्गन्यास विधि - ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः,
रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा,        ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः,    अग्निगर्भाय कवचाय हुम्
रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट्        ब्रह्मास्त्रविनिवारणाय अस्त्राय फट् ॥८७-८८॥

अब उक्त मन्त्र का ध्यान कहते हैं - मैम तपाये गये सुवर्ण के समान, जगमगाते हुये, भय को दूर करने वाले, हृदय पर अञ्जलि बाँधे हुये, कानों में लटकते कुण्डलों से शोभायमान मुख कमल वाले, अद्‌भुत स्वरुप वाले वानरराज को प्रणाम करता हूँ ॥८९॥

पुरश्चरण - इस मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए । तदनन्तर तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए । वैष्णव पीठ पर कपीश्वर का पूजन करना चाहिए । पीठ पूजा तथा आवरण पूजा (१३.१०-०१३) श्लोक में द्रष्टव्य है ॥९०॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - साधक इस मन्त्र के अनुष्ठान करते समय इन्द्रियों को वश में रखे । केवल रात्रि में भोजन करे । जो साधक व्यवधान रहित मात्र तीन दिन तक उस १०९ की संख्या में इस का जप करता है  वह तीन दिन मे ही क्षुद्र रोगों से छुटकारा पा जाता है । भूत, प्रेत एवं पिश्चाच आदि को दूर करने के लिए भी उक्त मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए । किन्तु असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप आवश्यक है ॥९१-९२॥

नियमित एक समय हविष्यान्न भोजन करते हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान कर प्रतिदिन १० हजार की संख्या में जप करता है वह शीघ्र ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥९३॥

सुग्रीव के साथ राम की मित्रता कराये हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने से शत्रुओं के साथ सन्धि करायी जा सकती है ॥९४॥

लंकादहन करते हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्र का दश हजार करता है, उसके शत्रुओं के घर अनायास जल जाते हैं ॥९५॥

जो साधक यात्रा के समय हनुमान् जी का ध्यान कर इस मन्त्र का जप करता हुआ यात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही घर लौट आता है ॥९६॥

जो व्यक्ति अपने घर में सदैव हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्र का जप करता है उसकी आयु और संपत्ति नित्य बढती रहती है तथा समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते है ॥९७॥

इस मन्त्र के जप से साधक की व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से तथा तस्करादि उपद्रवी तत्त्वों से रक्षा होती है । इतना ही नहीं सोते समय इस मन्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है दुःस्वप्न भी दिखाई नहीं देते ॥९८॥

अब प्लीहादिउदररोगनाशक मन्त्र का उद्धार कहते हैं - ध्रुव (ॐ), फिर सद्योजात (ओ) सहिन पवनद्वय (य) अर्थात्‍ ‘यो यो’, फिर ‘हनू’ पद, फिर ‘शशांक’ (अनुस्वार) सहित महाकाल (मं), कामिका (त) तथा ‘फलक’, पद, फिर सनेत्रा क्रिया (लि), णान्त (त), मीन (ध) एवं ‘ग’ वर्ण, फिर ‘सात्वत’ (ध) तथा ‘गित आयु राष’ फिर लोहित (प) तथा रुडाह लगाने से २४ अक्षरों का मन्त्र बनता है ॥९९-१००॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ यो यो हनूमन्तं फलफलित धग धगितायुराषपरुडाह’ (२४) ॥९९-१००॥

प्रयोग विधि - इस मन्त्र के ऋषि आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है । प्लीहा वाले रोगी के पेट पर पान रखे । उसको उसका आठ गुना कपडा फैलाकर आच्छादित करे, फिर उसके ऊपर हनुमान् जी का ध्यान करते हुये बाँस का टुकडा रखे, फिर जंगल के पत्थर पर उत्पन्न बेर की लकडियोम से जलायी गई अग्नि में मूलमन्त्र का जप करते हुये ७ बार यष्टि को तपाना चाहिए । उसी यष्टि से पेट पर रखे बाँस के टुकडे को सात बार संताडित करना चाहिए । ऐसा करने से प्लीहा रोग शीघ्र दूर हो जाता है ॥१०१-१०४॥

अब विजयप्रद प्रयोग कहते हैं - पूँछ जैसी आकृति वाले वस्त्र पर कोयल के पंखे से अष्टगन्ध द्वारा हनुमान् जी की मनोहर मूर्ति निर्माण करना चाहिए । उसके मध्य में शत्रु के नाम से युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र लिखाना चाहिए । फिर उस वस्त्र को इसी मन्त्र से अभिमन्त्रित कर राजा शिर पर उसे बाँधकर युद्धभूमि में जावे, तो वह अपने शत्रुओं को देखते देखते निश्चित ही जीत लेता है (अष्टादशाक्षर मन्त्र द्र० १३. १८) ॥१०५-१०७॥

अब विजयप्रदध्वज कहते हैं - युद्ध में अपने शत्रुओं पर विजय चाहने वाला राजा शत्रु के नाम एवं अष्टादशाक्षर मन्त्र के साथ पूर्ववत्‍ हनुमान्‍ जी का चित्र ध्वज पर लिखे । उस ध्वज को लेकर ग्रहण के समय स्पर्शकाल से मोक्षकाल पर्यन्त मातृकाओं का जप करे, तथा तिलमिश्रित सरसों से स्पर्शकाल से मोक्षकालपर्यन्त दशांश होम करे, फिर उस ध्वज को हाथी के ऊपर लगा देवे तो हाथी के ऊपर लगे उस ध्वज को देखते ही शत्रुदल शीघ्र भाग जात है ॥१०७-१०९॥

अब रक्षक यन्त्र कहते हैं - अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में साध्य नाम (जिसकी रक्षा की इच्छा हो) लिखना चाहिए । तदनन्तर दलों में अष्टाक्षर मन्त्र लिखना चाहिए । तदनन्तर वक्ष्यमाण माला मन्त्र से उसे परिवेष्टित करना चाहिए । उसको भी महाबीज (ह्रीं) से परिवेष्टित कर इसमें प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए ॥११०-१११॥

शुभ कमलदल को भोजपत्र पर सुर्वण की लेखनी से गोरोचन और कुंकुम मिलाकर उक्त यन्त्र लिखना चाहिए । संपात साधित होम द्वारा सिद्ध इस यन्त्र को स्वर्ण अदि से परिवेष्टित (सोने या चाँदी का बना हुआ गुटका में डालकर) भुजा या मस्तक पर उसे धारण करना चाहिए ॥११२-११३॥

इसकें धारण करने से मनुष्य युद्ध व्यवहार एवं जूए में सदैव विजयी रहता है ग्रह, विघ्न, विष, शस्त्र, तथा चौरादि उसका कुछ बिगाड नहीं सकते । वह भाग्यशाली तथा नीरोग रहकर दीर्घकालपर्यन्त जीवित रहता है ॥११३-११४॥

अब अष्टाक्षर मन्त्र का उद्धार करते हैं - अग्नि (र्) सहित वियत् (ह्), इनमें दीर्घ षट्‌क (आं ईं ऊं ऐं औं अः) लगाकर उसे तार से संपुटित कर देने पर अष्टाक्षर मन्त्र निष्पन्न हो जाता है ॥११५॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - ‘ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौं ह्रः औ’ ॥११५॥

अब मालामन्त्र का उद्धार कहते हैं - वज्रकाय वज्रतुण्ड कपिल, फिर पिङ्गल ऊर्ध्वकोष महावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहव महारौद्रदंष्ट्रोत्कटक, फिर दो बार ह (ह ह), फिर ‘करालिने महादृढप्रहारिन्’ ये पद, फिर ‘लंकेश्वरवधाय’ के बाद ‘महासेतु’ एवं ‘बन्ध’, फिर ‘महाशैल प्रवाह गगने चर एह्येहि भगवान्’ के बाद ‘महाबलपराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्रदीर्घपुच्छेन वेष्टय वैरिणं भञ्जय भञ्जय हुं फट्‌’, इसके प्रारम्भ में प्रणव लगाने से १५ अक्षरों का सर्वर्थदायक माला मन्त्र निष्पन्न होता है ॥११६-१२१॥

विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ वज्रकाय बज्रतुण्डकपिल पिङ्गल ऊर्ध्वकेश महावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहव महारौद्र दंष्टो‌त्कटक ह ह करालिने महादृढ प्रहारिन् लंकेश्वरवधाय महासेतुबन्ध महाशैलप्रवाह गगनेचर एह्येहिं भगवन् महाबल पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घपुच्छेन वेष्टय् वैरिणं भञ्जय भञ्जय हुं फट् । रक्षायन्त्र के लिए विधि स्पष्ट है ॥११६-१२१॥

युद्ध काल में मालामन्त्र का जप विजय प्रदान करता है तथा रोग में जप करने से रागों को दूर करता है ॥१२१॥

अष्टाक्षर एवं मालामन्त्र के ऋषि छन्द तथा देवता पूर्ववत् हैं पूजा तथा प्रयोग की विधि पूर्ववत् है । इनके विषय में बहुत कहने की आवश्यकता नहीं है । कपीश्वर हनुमान् जी सब कुछ अपने भक्तों को देते हैं ॥१२२॥

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Last Updated : May 07, 2012

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