दोहे - ३५१ से ४००

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल ।
सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल ॥३५१॥

कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग ।
भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग ॥३५२॥

काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ ।
रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ ॥३५३॥

बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह ।
फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह ॥३५४॥

नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ ।
उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ ॥३५५॥

बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय ।
निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय ॥३५६॥

प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान ।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान ॥३५७॥

अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर ।
चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर ॥३५८॥

कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप ।
औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप ॥३५९॥

लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान ।
गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान ॥३६०॥

मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन ।
आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन ॥३६१॥

मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई ।
घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई ॥३६२॥

विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन ।
करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन ॥३६३॥

अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त ।
लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त ॥३६४॥

धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि ।
थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग ॥३६५॥

चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ ।
संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ ॥३६६॥

रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह ।
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह ॥३६७॥

बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक ।
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक ॥३६८॥

नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल ।
जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल ॥३६९॥

बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन ।
जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन ॥३७०॥

धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति ।
वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति ॥३७१॥

मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास ।
सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास ॥३७२॥

थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव ।
रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव ॥३७३॥

पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात ।
रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात ॥३७४॥

जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥३७५॥

ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों ।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै ॥३७६॥

रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै ।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै ॥३७७॥

रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं ।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ॥३७८॥

बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं ।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें ॥३७९॥

अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ ।
सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ ॥

रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं ।
जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै ॥३८०॥

रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु ।
बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ॥३८१॥

रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै ।
कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै ॥३८२॥

रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में ।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं ॥३८३॥

चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥३८४॥

घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान ।
डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान ॥३८५॥

बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस ।
निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस ॥३८६॥

सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार ।
जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार ॥३८७॥

भजहु चराचर-नायक सूरज देव ।
दीन जनन-सुखदायक, तारत एव ॥३८८॥

ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस ।
नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ॥३८९॥

ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर ।
खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर ॥३९०॥

पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात ।
जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात ॥३९१॥

करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर ।
लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर ॥३९२॥

बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार ।
सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर ॥३९३॥

अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम ।
राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम ॥३९४॥

कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर ।
सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर ॥३९५॥

घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज ।
पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज ॥३९६॥

पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात ।
अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान ॥३९७॥

मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय ।
तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय ॥३९८॥

बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव ।
मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव ॥३९९॥

मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय ।
गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय ॥४००॥

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Last Updated : November 07, 2011

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