दोहे - १ से ५०

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥१॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥२॥

रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, कटि डारत द्वै टूक ।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक ॥३॥

अच्युत चरन तरंगिनी, शिव सिर मालति माल ।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव भाल ॥४॥

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ॥५॥

अधम बचन ते को फल्यो, बैठि ताड़ की छाह ।
रहिमन काम न आइहै, ये नीरस जग मांह ॥६॥

अनुचित बचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि ।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥७॥

अनुचित उचित रहीम लघु, करहि बड़ेन के जोर ।
ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर ॥८॥

अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥९॥

ऊगत जाही किरण सों, अथवत ताही कांति ।
त्यों रहीम सुख दुख सबै, बढ़त एक ही भांति ॥१०॥

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल ॥११॥

आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं ।
जो रहीम कोटिन मिले, धिक जीवन जग माहिं ॥१२॥

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधे सनेह ।
जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामें बरै बरेह ॥१३॥

अरज गरज मानै नहीं, रहिमन ये जन चारि ।
रिनियां राजा मांगता, काम आतुरी नारि ॥१४॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥१५॥

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय ।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥१६॥

अंतर दाव लगी रहै, धुआं न प्रगटै सोय ।
कै जिय जाने आपुनो, जा सिर बीती होय ॥१७॥

असमय परे रहीम कहि, मांगि जात तजि लाज ।
ज्यों लछमन मांगन गए, पारसार के नाज ॥१८॥

अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिककन पान ।
हस्ती ढकका कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन ॥१९॥

उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार ।
रहिमन इन्हें संभारिए, पलटत लगै न बार ॥२०॥

करत निपुनई, गुण बिना, रहिमन निपुन हजीर ।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहिं समान को कूर ॥२१॥

ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ॥२२॥

कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय ।
पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥२३॥

कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय ।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय ॥२४॥

करमहीन रहिमन लखो, धसो बड़े घर चोर ।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जगत ह्रैगो भोर ॥२५॥

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात ।
घटै बढ़े उनको कहा, घास बेचि जे खात ॥२६॥

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥२७॥

कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर ।
रहि रहीम नर नीच में, स्वारथ स्वारथ टेर ॥२८॥

कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय ।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय ॥२९॥

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय ।
तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥३०॥

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्रै जाय ।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ॥३१॥

काज परे कछु और है, काज सरे कछु और ।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर ॥३२॥

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥३३॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय ।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥३४॥

काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई ।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ॥३५॥

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगस सों बैर ॥३६॥

काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज ।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ॥३७॥

कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह ।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥३८॥

कुटिलत संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि ।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि ॥३९॥

को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥४०॥

गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज ।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज ॥४१॥

खरच बढ़यो उद्द्म घटयो, नृपति निठुर मन कीन ।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन ॥४२॥

खैर खून खासी खुसी, बैर प्रीति मदपान ।
रहिमन दाबे न दबैं, जानत सकल जहान ॥४३॥

खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ॥४४॥

गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार ।
दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार ॥४५॥

गहि सरनागत राम की, भव सागर की नाव ।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव ॥४६॥

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि ।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी आहिं ॥४७॥

गुनते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि ।
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू के बाढ़ि ॥४८॥

गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलवधु, पर घर जात लजाय ॥४९॥

चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि ।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ॥५०॥

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Last Updated : November 07, 2011

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