कवितावली - भाग ५

‘कवितावली' गोस्वामी तुलसीदासच्या प्रमुख रचनांपैकी एक आहे. सोळाव्या शतकातील या ग्रंथात श्रीराम कथेचे वर्णन असून मूळ काव्य ब्रजभाषेत आहे.


राम प्रेम की प्रधानता

१२१ कनककुधरु केदारु, बीजु सुंदर सुरमनि बर ।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुध्दतर ॥
तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि ।
मरकतमय साखा-सुपुत्र, मंजरय लच्छि जेहि ॥
कैवल्य सकल फल, कलपतरु, सुभ सुभाव सब सुख बरिस ।
कह तुलसिदास, रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस ॥

जाय सो सुभटु समर्थ पाइ रन रारि न मंडै ।
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंडै ॥
जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि ।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महि ॥
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित ।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित ॥

१२२ को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हो?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?
कौन हृदयँ नहि लाग कठीन अति नारि-नयन-सर?
लोचनजुत नहि अंध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
कह तुसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन ॥

भौंह-कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बानतें बाँचे ।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे ॥
लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचे ।
नीके हैं साधु सबै तुलसी, पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे ॥

१२३ बेष सुबनाइ सुचि बचन कहैं चुवाइ जाइ तौ न जरनि धरनि-धन-धामकी ।
कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह, मुख कहिअत गति रामहीके नामकी ॥
प्रगटैं उपासना, दुरावैं दुरबासनाहि, मानस निवासभूमि लोभ-मोह-कामकी ।
राग-रोष-इरिषा-कपट-कुटिलाई भरे तुलसी-से भगत भगति चहैं रामकी ॥

कालिहीं तरुन तन, कालिहीं धरनि-धर, कालिहीं जितौंगो रन, कहत कुचालि है ।
कालिहीं साधौंगो काज, कालिहीं राजा-समाज, मसक ह्वै कहै, ' भार मेरे मेरु हालिहै' ॥
तुलसी यही कुभाँति घने घर घालि आई, घने घर घालति है, घने घर घालिहै ।
देखत- सुनत-समुझतहू न सूझै सोई, कबहूँ कह्यो न कालहू को कालु कालि है ॥

राम भक्ति की याचना

भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद, निंदैं सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं ।
जानत न जोगु हियँ हानि मानैं जानकीसु, काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं ॥
पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं ।
निज अघजाल, कलिकालकी करालता बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं ॥

धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि- भारु हरिबेको अवतारु लियो नरको ।
नीति औ प्रतीति-प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु लोक-बेद राखिबेको पनु रघुबरको ॥
बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं, सो प्रसंगु सुनें अंगु जरे अनुचरको ।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको ॥

१२५ नाम महाराजके निबाह नीको कीजै उर सबही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं ।
कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं ॥
तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं ।
लोक एक भाँतिको, त्रिलोकनाथ लोकबस आपनो न सोचु, स्वामी-सोचहीं सुखात हौं ॥

प्रभु की महत्ता और दयालुता

१२६ तौलौं लोभ लोलुप ललात लालची लबार, बार-बार लालचु धरनि-धन-धामको ।
तबलौं बियोग-रोग-सोग, भोग जातनाको जुग सम लागत जीवनु जाम-जामको ।
तौलौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु तुलसी है किंकरु बिमोह-कोह-कामको ।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख, जौलौं जनु भयो न बजाइ राजा रामको ॥

तौलौं मलीन , हीन दीन, सुख सपनें न, जहाँ-तहाँ दुखी जनु भाजनु कलेसको ।
तौलौं उबेने पाय फिरत पेटौ खलाय बाय मुह सहत पराभौ देस-देसको ।
तबलौं दयावनो दुसह दुख दारिदको, साथरीको सोइबो, ओढ़िबो झूने खेसको ॥
जबलौं न भजै जीहँ जानकी-जीवन रामु, राजनको राजा सो तौ साहेबु महेसको ॥

१२७ ईसनके ईस, महाराजनके महाराज, देवनके देव, देव! प्रानहुके प्रान हौ ।
कालहूके काल, महाभूतनके महाभूत, कर्महूके करम, निदानके निदान हौ ।
निगम को अगम, सुगम तुलसीहू-सेको एते मान सीलसिंधु, करुनानिधान हौ ।
महिमा अपार, काहू बोलको न वारापार, बड़ी साहबीमें नाथ! बड़े सावधान हौ ॥

आरतपाल कृपाल जो रामु जेहीं सुमिरे तेहिको तहँ ठाढें ।
नाम-प्रताप-महामहिमा अँकरे किये खोटेउ छोटेउ बाढ़े ॥
सेवक एकतें एक अनेक भए तुलसी तिहुँ ताप न डाढ़े ।
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥

१२८ काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे ।
'राम कहाँ? सब ठाऊँहैं, ' खंभमें? 'हाँ'सुनि हाँक नृकेहरि जागे ॥
बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रलादहिकें अनुरागे ।
प्रीति-प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे ॥

अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम लियेतें ।
धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों बालक-बोलनि कान कियेतें ॥
आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिबेकी न बावरि बात बियेतें ।
पैज परें प्रहलादहुको प्रगटे प्रभु पाहनतें, न हियेतें ॥

बालकु बोलि दियो बलि कालको कायर कोटि कुचालि चलाई ।
पापी है बाप, बड़े परतापतें आपनि ओरतें खोरि न लाई ॥
भूरि दईं बिषमूरि, भई प्रहलाद-सुधाईं सुधाकी मलाई ।
रामकृपाँ तुलसी जनको कग होत भलेको भलाई भलाई ॥

१२९ कंस करी बृजबासिन पै करतूति कुभाँति, चली न चलाई ।
पंडूके पूत सपूत, कपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई ॥
कान्ह कृपाल बड़े नतपाल, गए खल खेचर खीस खलाई ।
ठीक प्रतीति कहै तुलसी, जग होई भले को भलाई भलाई ॥

अवनीस अनेक भए अवनीं, जिनके डरतें सुर सोच सुखाहीं ।
मानव-दानव-देव सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं ॥
ते मिलिये धरि धूरि सुजोधनु, जे चलते बहु छत्रकी छाँहीं ।
बेद पुरान कहैं , जगु जान, गुमान, गोबिंदहि भावत नाहीं ॥

गोपियों का अनन्य प्रेम

जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी ।
नहि जानो बियोगु-सो रोगु है आगें, झुकी तब हौं तेहि सों तरजी ॥
अब देह भई पट नेहके घाले सों, ब्यौंत करै बिरहा-दरजी ।
ब्रजराजकुमार बिना सुनु भृंग! अनंगु भयो जियको गरजी ॥

१३० जोग-कथा पठई ब्रजको, सब सो सठ चेरीकी चाल चलाकी ।
ऊधौ जू! क्यौं न कहै कुबरी, जो बरी नटनागर हेरि हलाकी ॥
जाहि लगै परि जाने सोई, तुलसी सो सोहागिनि नंदललाकी ।
जानी है जानपनी हरिकी, अब बाँधियैगी कछु मोटि कलाकी ॥

पठयो है छपदु छबीलें कान्ह कैहूँ कहूँ खौजिकै खवासु खासो कुबरी-सी बालको ।
ग्यानको गढ़ैया, बिनु गिराको पढ़ैया, बार- खालको कढ़ैया, सो बढ़ैया उर-सालको ॥
प्रीतिको बधीक, रस रीतिको अधिक, नीति- निपुन, बिबेकु है, निदेसु देस-कालको ।
तुलसी कहें न बनै, सहें ही बनैगी सब जोगु भयो जोगको बियोगु नंदलालको ॥

विनय

१३१ हनुमान व्हे कृपाल, लाडिले लखनलाल! भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू ।
बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो बिगरेतें आपु ही सुधारि लीजे भाय जू ॥
मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति देबि क्यों न दासको देखाइयत पाय जू ।
खीझहूमें रीझिबेकी बानि सदा रीझत हैं, रीझे ह्वैहैं, रामकी दोहाई, रघुराय जू ॥

बेष बिरागको, राग भरो मनु माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों ।
तेरे ही नाथको नामु लै बेचि हौं पातकी पावँर प्राननि पोसों ॥
एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ मोसों ।
स्वारथको परमारथको परिपुरन भो, फिरि घाटि न होसों ॥

सीतावट-वर्णन

१३२ जहाँ बालमीकि भए ब्याधतें मुनिंदु साधु 'मरा मरा' जपें सिख सुनि रिषि सातकी ।
सीयको निवास, लव-कुसको जनमथल तुलसी छुवत छाँह ताप गरै गातकी ॥
बिटपमहीप सुरसरित समीप सोहै, सीताबटु पेखत पुनीत होत पातकी ।
बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी-चरन-जलजातकी ॥

मरकतबरन परन , फल मानिक-से लसै जटाजूट जनु रूखबेष हरु है ।
सुषमाको ढैरु कैधौं सुकृत-सुमेरु कैधौं, संपदा सकल मुद-मंगलको घरु है ॥
देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइये प्रतीति मानि तुलसी, बिचारि काको थरु है ।
सुरसरि निकट सुहावनी अवनि सोहै रामरवनिको बटु कलि कामतरु है ॥

१३३ देवधुनि पास, मुनिबासु, श्रीनिवासु जहाँ, प्राकृतहूँ बट-बूट बसत पुरारि हैं ।
जोग-जप-जागको, बिरागको पुनीत पीठु रागिनि पै सीठि डीठि बाहरी निहारि हैं ॥
'आयसु', 'आदेस', 'बाबू' भलो-भलो भावसिध्द तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं ।
राम-भगतनको तौ कामतरुतें अधिक, सियबटु सेयें करतल फल चारि हैं ॥

चित्रकूट-वर्णन

१३४ जहाँ बनु पावनो सुहावने बिहंग-मृग, देखि अति लागत अनंदु खेत-खूँट-सो ।
सीता-राम-लखन-निवासु, बासु मुनिनको, सिध्द-साधु-साधक सबै बिबेक-बूट-सो ॥
झरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि, मंदाकिनि मंजुल महेसजटाजूट-सो ।
तुलसी जौं रामसो सनेहु साँचो चाहिये तौ, सेइये सनेहसों बिचित्र चित्रकूट सो ॥

मोह-बन-कलिमल-पल-पीन जानि जिय साधु-गाइ-बिप्रनके भयको नेवारिहै ।
दीन्हीहै रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल लखन समत्थ बीर हेरि-हेरि मारिहै ॥
मादाकिनी मंजुल कमान असि, बान जहाँ बारि-धार धीर धरि सुकर सुधारिहै ।
चित्रकूट अचल अहेरि बैठ्यो घात मानो पातकके ब्रात घोर सावज सँघारिहै ॥

१३५ लागि दवारि पहार ठही, लहकी कपि लंक जथा खरखौकी ।
चारु चुआ चहुँ ओर चलैं, लपटैं-झपटैं सो तमीचर तौंकी ॥
क्यौं कहि जात महासुषमा, उपमा तकि ताकत है कबि कौं की ।
मानो लसी तुलसी हनुमान हिएँ जगजीति जरायकी चौकी ॥

तीर्थराज-सुषमा

देव कहैं अपनी-अपना, अवलोकन तीरथराजु चलो रे ।
देखि मिटैं अपराध अगाध, निमज्जत साधु-समाजु भलो रे ॥
सोहै सितासितको मिलिबो, तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे ।
मानो हरे तृन चारु चरैं बगरे सुरधेनुके धौल कलोरे ॥

श्रीगङ्गा-महात्म्य

देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे ।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे ॥
पूजाको साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जे महातम जाननिहारे ।
ओककी नीव परी हरिलोक बिलोकत गंग! तरंग तिहारे ॥

१३६ ब्रह्मु जो ब्यापकु बेद कहैं, गम नाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनीको ।
जो करता, भरता, हरता, सुर-साहेबु, साहेबु दीन-दुनीको ॥
सोइ भयो द्रवरूप सही, जो है नाथु बिरंचि महेस मुनीको ।
मानि प्रतीति सदा तुलसी जलु काहे न सेवत देवधुनीको ॥

बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौगो ॥
ईस ह्वै सीस धरौं पै डरौं , प्रभुकी समताँ बड़े दोष दहौंगो ॥
बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीरको ह्वै तव तीर रहौंगो ।
भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो ॥

अन्नपूर्णा-महात्म्य

१३७ लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन, बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना ।
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उछाह कछू, डोलै लोल बूझत सबद ढोल-तूरना ॥
प्यासेहूँ न पावै बारि, भूखें न चनक चारि, चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना ।
सोकको अगार, दुखभार भरो तौलौं जन जौलौं देबी द्रवै न भवानी अन्नपरना ॥

शंकर-स्तवन

भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर ।
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग, भूषन भुजंगबर ॥
मुंडमाल, बिधु बाल भाल, डमरु कपालु कर ।
बिबुधबृंद-नवकुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर ॥
त्रिपुरारि त्रिलोचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन ।
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन ॥

१३८ गरल-असन दिगबसन ब्यसन भंजन जनरंजन ।
कुंद-इंदु-कर्पर-गौर सच्चिदानंदघन ॥
बिकटबेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि ।
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रुचि ॥
कंदर्पदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुनभवन हर ।
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर ॥

अरध अंग अंगना, नामु जोगीसु, जोगपति ।
बिषम असन दिगबसन, नाम बिस्बेसु बीस्वगति ॥
कर कपाल, सिर माल ब्याल, बिष-भूति-बिभूषन ।
नाम सुध्द, अबिरुध्द, अमर अनवद्य, अदूषन ॥
बिकराल-भूत-बेताल-प्रिय भीम नाम, भवभयदमन ।
सब `बिधि समर्थ, महिमा अकथ, तुलसिदास-संसय-समन ॥

१३९ भूतनाथ भयहरन भीम भयभवन भूमिधर ।
भानुमंत भगवंत भूतिभूषन भुजंगबर ॥
भव्य भावबल्लभ भवेस भव-भार-बिभंजन ।
भूरिभोग भैरव कुजोगगंजन जनरंजन ॥
भारती-बदन बिष-अदन सिव ससि-पतंग-पावक-नयन ।
कह तुलसिदास किन भजसि मन भद्रसदन मर्दनमयन ॥

नागो फिरै कहै मागनो देखि 'न खाँगो कछू', जनि मागिये थोरो ।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जोरो ॥
नाक संवारत आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो ।
ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो ॥

१४० बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े ॥
भूत बेताल सखा, भव नामु दलै पलमें भवके भय गाढ़े ॥
तुलसीसु दरिद्रु-सिरोमनि, सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े ।
भौनमें भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े ॥

सीस बसै बरदा, बरदानि, चढ्योबरदा, धरन्यो बरदा है ।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं ॥
ब्याली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा हैं ।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है ॥

दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारि, तिहूँ पुरमें सिर टीको ।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको ॥
ता बिनु आसको दास भयो, कबहूँ न मिट्यो लघु लालचु जीको ।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको ॥

१४१ जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है ।
पान कियो बिषु, भूषन भो, करुनाबरुनालय साइँ-हियो है ।
मेरोइ फोरिबे जोगु कपारु, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है
काहे न कान करौं बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है ॥

खायो कालकूटु भयो अजर अमर तनु, भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी ।
डमरु कपालु कर, भूषन कराल ब्याल, बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी ॥
तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति, मानो हिमगिरि चारु चाँदनी सरदकी ।
अर्थ-धर्म-काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें, कासी करामाति जोगी जागति मरदकी ॥

१४२ पिंगल जटाकलापु माथेपै पुनीत आपु, पावक नैना प्रताप भ्रूपर बरत है ।
लोयन बिसाल लाल, सोहै बालचंद्र भाल, खंठ कालकूटु, ब्याल-भूषन धरत है ॥
सुंदर दिगंबर, बिभूति गात, भाँग खात, रूरे सृंगी पुरें काल-कंटक हरत हैं ।
देत न अघात रीझि, जात पात आकहीकें भोरानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं ॥

देत संपदासमेत श्रीनिकेत जाचकनि, भवन बिभूति-भाँग, बृषभ बहनु है ।
नाम बामदेव दाहिनो सदा असंग रंग अर्ध्द अंग अंगना, अनंगको महनु है ॥
तुलसी महेसको प्रभाव भावहीं सुगम निगम-अगमहूको जानिबो गहनु है ।
भेष तौ भिखारको भयंकररूप संकर दयाल दीनबंधु दानि दारिददहनु है ॥

१४३ चाहै न अनंग- अरि एकौ अंग मागनेको देबोई पै जानिये, सुभावसिध्द बानि सो ।
बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो ॥
तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथको तौ कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो ।
दारिद दमन दूख-दोष दाह दावानल दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो ॥

काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे ।
काहेको उपाय कोटि करत, मरत धाय, जाचत नरेस देस- देसके, अचेत रे ॥
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु, धनहीके हेत दान देत कुरुखेत रे ।
पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों, सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे ॥

१४४ स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले भले भट, धन-धाम-निकर करनिहूँ न पूजै क्वै ।
बनिता बिनीत, पूत फावन सोहावन, औ बिनय बिबेक, बिद्या सुभग सरीर ज्वै ॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक, जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै ।
जानें, बिनु जानें, कै रिसानें, केलि कबहुँक सिवहि चढ़ाए ह्वैहैं बेलके पतौवा द्वै ॥

रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै ।
संपदा-समाज देखि लाज सुरराजहूकें सुख सब बिधि बिधि दीन्हैं, सवाँरि कै ॥
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद, जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै ।
आकके पतौआ चारि फूल कै धतूरेके द्वै दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै ॥

१४५ देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं ।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूको कछुक, लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं ॥
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै, ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं ।
पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि , कालकला कासीनाथ कहें निबरत हौं ॥

१४६ चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो, हर! पाइ तर आइ रह्यौं सुरसरितीर हौं ।
बामदेव! रामको सुभाव-सील जानियत नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं ॥
अधिभूत बेदन बिषम होत, भूतनाथ तुलसी बिकल, पाहि!पचत कुपीर हौं ।
मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल, ज्याइये तौ कृपा करि निरुजसरीर हौं ॥

जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मोहि, मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं ।
कामरिपु! रामके गुलामनिको कामतरु! अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं ॥
रोग भयो भूत-सो, कुसूत भयो तुलसीको, भूतनाथ, पाहि! पदपंकज गहतु हौं ।
ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ मारिये तौ मागी मीचू सूधियै कहतु हौं ॥

१४७ भूतभव! भवत पिसाच -भूत- प्रेत -प्रिय, आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये ।
नाना बेष, बाहन, बिभूषन, बसन, बास, खान -पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये ॥
रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब, सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये ।
तुलसीकी सुधरै सुधारे भूतनाथहीके मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानिये ॥

काशी में महामारी

गौरीनाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ । बिस्वनाथपुर फिरी आन कलिकालकी ।
संकर-से नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी, बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी ॥
छमुख-गनेस तें महेसके पियारे लोग बिकल बिलोकियत, नगरी बिहालकी ।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी ॥

१४८ ठाकुर महेस ठकुराइनि उमा-सी जहाँ, लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहरकी ।
भट रुद्रगन, पूत गनपति-सेनापति, कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी ॥
बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं, बूझिए न ऐसी गति संकर-सहरकी ।
कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी ॥

लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप हैं ।
कालनाथ कोतवाल दंडकारि दंडपानि, सभासद गनप-से अमित अनूप हैं ॥
तहाऊँ कुचालि कलिकालकी कुरीति, कैधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं ।
फलें फूलैं फैलैं खलल, सीदै साधु पल-पल खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं ॥

१४९ पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको जानि आपु आपने सुपास बास दियो है ।
नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर, लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है ॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र, मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है ।
रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है ॥

रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर तेरे हीं प्रसाद अग- जग-पालिके ।
तोहिमें बिकास बिस्व , तोहिमें बिलास सब, तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके ॥
दीजे अवलंब जगदंब! न बिलंब कीजै, करुनातरंगगिनी कृपा-तरंग-मालिके ।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी देखिये दुखारी, मुनि-मानस-मरालिके ॥

१५० निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे, नर- नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं ।
दारिद-दुखारी देबि भूसुर भिखारी-भीरु लोब मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं ॥
लोकरीति राखी राम, साखि बामदेव जानि जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं ।
महामारी महेसानि! महिमाकी खानि, मोद- मंगलकी रासि, दास कासीबासी तेरे हैं ॥

लोगनिकें पाप कैधौं, सिध्द-सुर-साप कैधौं, कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई है ।
ऊँचे, नीचे, बीचके, धनिक, रंक, राजा, राय हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है ॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे, भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है ।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान! जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है ॥

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Last Updated : October 17, 2011

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