कवितावली - भाग २

‘कवितावली' गोस्वामी तुलसीदासच्या प्रमुख रचनांपैकी एक आहे. सोळाव्या शतकातील या ग्रंथात श्रीराम कथेचे वर्णन असून मूळ काव्य ब्रजभाषेत आहे.


३१ बड़ो बिकराल बेषु देखि, सुनि सिंघनादु, उठ्यो मेघनादु, सबिषाद कहै रावनो ।
बेग जित्यो मारुतु, प्रताप मारतंड कोटि, कालऊ करालताँ, बड़ाईं जित्यो बावनो ॥
'तुलसी' सयाने जातुधान पछिताने कहैं, जाको ऐसो दूतु, सो तो साहेबु अबै आवनो ।
काहेको कुसल रोषें राम बामदेवहू की, बिषम बलीसों बादि बैरको बढ़ावनो ॥

पानी! पानी! पानी! सब रानि अकुलानी कहैं, जाति हैं परानी, गति जानी गजचालि है ।
बसन बिसारैं, मनिभूषन सँभारत न, आनन सुखाने, कहैं, क्योंहू कोऊ पालिहै ॥
'तुलसी' मँदोवै मीजि हाथ, धुनि माथ कहै, काहूँ कान कियो न, मैं कह्यो केतो कालि है ।
बापुरें बिभीषन पुकारि बार-बार कह्यो, बानरु बड़ी बलाइ घने घर घालिहै ॥

३२ काननु उजार यो तो उजार यो, न बिगार यो कछु, बानरु बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों ।
निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि , दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ॥
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब, साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों ।
'तुलसी' मँदोवै रोइ-रोइ कै बिगोवे आपु, बार-बार कह्यो मैं पुकारि दाढ़ीजारसों ॥

रानीं अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं, सकैं न बिलोकि बेषु केसरीकुमारको ।
मीजि-मीजि हाथ, धुनै माथ दसमाथ-तिय, "तुलसी' तिलौ न भयो बाहेर अगारको ॥
सबु असबाबु डाढ़ो, मैं न काढ़ो, तैं न काढ़ो, जियकी परी, सँभारै सहन-भँडार को ।
खीझति मँदोवै सबिषाद देखि मेघनादु, बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजारको ॥

३३ रावन की रानीं बिलखानी कहै जातुधानीं, हाहा! कोऊ कहे बीसबाहु दसमाथसों ।
काहे मेघनाद! काहे, काहे रे महोदर! तूँ धीरजु न देत, लाइ लेत क्यों न हाथसों ॥
काहे अतिकाय! काहे, काहे रे अकंपन! अभागे तीय त्यागे भोंड़े भागे जात साथ सों ।
'तुलसी' बढ़ाई बादि सालतें बिसाल बाहैं, याहीं बल बालिसो बिरोधु रघुनाथसों ॥

हाट-बाट, कोट-कोट, अटनि, अगार, पौरि, खोरि-खोरि दौरि-दौरि दीन्ही अति आगि है ।
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू, ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चले भागि हैं ॥
बालधी फिरावै, बार-बार झहरावै, झरैं बुँदिया-सी लंक पघिलाइ पाग पागिहै ।
'तुलसी' बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं, चित्रहू के कपि सों निसाचरु न लागिहै ॥

३४ लगी, लागी आगि, भागि-भागि चले जहाँ -जहाँ, धीयको न माय, बाप पूत न सँभारहीं ।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंध अंध, कहैं बारे-बूढ़े 'बारि', बारि' बार बारहीं ॥
हय हिहिनात, भागे जात घहरात गज, भारी भीर ठेलि-पेलि रौंदि-खौंदि डारहीं ।
नाम, लै चिलात, बिललात, अकुलात अति, 'तात तात! तौंसिअत, झौंसिअत, झारहीं ॥

लपट कराल ज्वालजालमाल दहूँ दिसि, धूम अकुलाने, पहिचानै कौन काहि रे ।
पानीको ललात बिललात, जरे गात जात परे पाइमाल जात 'भ्रात! तूँ निबाहि रे ॥
प्रिया तूँ पराहि, नाथ! नाथ!तू पराहि, बाप! बाप तूँ पराहि, पूत! पूत! तूँ पराहि रे' ॥
'तुलसी' बिलोकी लोग ब्याकुल बेहाल कहैं, लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे ॥

३५ बीथिका-बजार प्रति, अटनि अगार प्रति, पवरि-पगार प्रति बानरु बिलोकिए ।
अध-ऊर्ध बानर, बिदसि-दिसि बानरु है, मानो रह्यो है भरि बानरु तिलोकिएँ ॥
मूँदैं आँखि हियमें, उघारें आँखि आगें ठाढ़ो, धाइ जाइ जहाँ-तहाँ, और कोऊ कोकिए ।
लेहु, अब लेहु तब कोऊ न सिखाबो मानो, सोई सतराइ जाइ जाहि-जाहि रोकिए ॥

एक करैं धौंज, एक कहैं, काढौ सौंज, एक औंजि, पानी पीकै कहैं, बनत न आवननो ।
एक परे गाढ़े एक डाढ़त हीं काढ़े, एक देखत हैं ठाढ़े, कहैं, पावकु भयावनो ॥
'तुलसी' कहत एक 'नीकें हाथ लाए कपि, अजहूँ न छाड़ै बालु गालको बजावनो' ।
'धाओ रे, बुझाओ रे', कि बावरे हौ रावरे, या औरै आगि लागी न बुझावै सिंधु सावनो' ॥

३६ कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोले, रावन-रजाइ धाए आइ जूथ जोरि कै ।
कह्यो लंकपति लंक बरत, बुताओ बेगि, बानरु बहाइ मारौ महाबीर बोरि कै ॥
'भलें नाथ!' नाइ माथ चले पाथप्रदनाथ, बरषैं मुसलधार बार-बार घोरि कै ।
जीवनतें जागी आगी, चपरि चौगुनी लागी 'तुलसी' भभरि मेघ भागे मुखु मोरि कै ॥

इहाँ ज्वाल जरे जात, उहाँ ग्लानि गरे गात, सूखे सकुचात सब कहत पुकार है ॥
'जुग षट भानु देखे प्रलयकृसानु देखे, सेष-मुख-अनल बिलोके बार-बार हैं ॥
'तुलसी'सुन्यो न कान सलिलु सर्पी-समान, अति अचिरिजु कियो केसरीकुमार है ।
बारिद बचन सुनि धुने सीस सचिवन्ह, कहैं दससीस! 'ईस-बामता-बिकार हैं' ॥

३७ 'पावकु, पवनु, पानी, भानु, हिमवानु, जमु, कालु, लोकपाल मेरे डर डावाँडोल हैं ।
साहेबु महेसु सदा संकित रमेसु मोहिं महातप साहस बिरंचि लीन्हें मोल हैं ॥
'तुलसी' तिलोक आजु दूजो न बिराजै राजु, बाजे-बाजे राजनिके बेटा-बेटी ओल हैं ।
को है ईस नामको, जो बाम होत मोहूसे को, मालवान! रावरेके बावरे-से बोल हैं' ॥

भूमि भूमिपाल, ब्यालपालक पताल, नाक- पाल, लोकपाल जेते, सुभट-समाजु है ।
कहै मालवान, जातुधानपति! रावरे को मनहूँ अकाजु आनै, ऐसो कौन आजु है ॥
रामकोहु पावकु, समीरु सिय-स्वासु, कीसु, ईस-बामता बिलोकु, बानरको ब्याजु है ।
जारत पचारि फेरि-फेरि सो निसंक लंक, जहाँ बाँको बीरु तोसो सूर-सिरताजु है ॥

३८ पान-पकवान बिधि नाना के, सँधानो, सीधो, बिबिध बिधान धान बरत बखारहीं ।
कनककिरीट कोटि पलँग, पेटारे, पीठ काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं ॥
प्रबल अनल बाढ़े जहाँ काढ़े तहाँ डाढ़े, झपट-लपट बरे भवन-भँडारहीं ।
'तुलसि' अगारु न पगारु न बजारु बच्यो, हाथी हथसार जरे घोरे घोरसारहीं ॥

हाट-बाट हाटकु पिघलि चलो घी-सो घनो, कनक-कराही लंक तलफति तायसों ॥
नानापकवान जातुधान बलवान सब पागि पागि ढेरी कीन्ही भलीभाँति भायसों ॥
पाहुने कृसानु पवमानसों परोसो, हनुमान सनमानि कै जेंवाए चित-चायसों ।
'तुलसी' निहारि अरिनारि दै-दै गारि कहैं बावरें सुरारि बैरु कीन्हौ रामरायसों ॥

३९ रावन सो राजरोगु बाढ़त बिराट-उर, दिनु-दिनु बिकल, सकल सुख राँक सो ।
नाना उपचार करि हारे सुर, सिध्द, मुनि, होत न बिसोक, औत पावै न मनाक सो ॥
रामकी रजाइतें रसाइनी समीरसूनु उतरि पयोधि पार सोधि सरवाक सो ।
जातुधान-बुट पुटपाक लंक-जातरूप- रतन जतन जारि कियो है मृगांक-सो ॥

सीताजी से बिदाई

जारि-बारि, कै बिधूम, बारिधि बुताइ लूम, नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़ो कर जोरि कै ।
मातु! कृपा कीजे, सहिदानि दीजै, सुनि सीय दीन्ही है असीस चारु चूडामनि छोरि कै ॥
कहा कहौं तात! देखे जात ज्यौं बिहात दिन, बड़ी अवलंब ही, सो चले तुम्ह तोरि कै ।
'तुलसी' सनीर नैन, नेहसो सिथिल बैन, बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै ॥

४० 'दिवस छ-सात जात जानिबे न, मातु! धरु धीर, अरि-अंतकी अवधि रहि थोरिकै ।
बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानुकुलकेतु सानुज कुसल कपिकटकु बटोरि कै' ॥
बचन बिनीत कहि, सीताको प्रबोधु करि, 'तुलसी' त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै ।
जै जै जानकीस दससीस-करि-केसरी' कपीसु कूद्यो बात-घात उदधि हलोरि कै ॥

साहसी समीरसूनु नीरनिधि लंघि लखि लंक सिध्दपीठु निसि जागो है मसानु सो ।
'तुलसी' बिलोकि महासाहसु प्रसण्न भई देबी सीय-सारिखी, दियो है बरदानु सो ॥
बाटिका उजारि, अछधारि मारि, जारि गढ़ु, भानुकुलभानुको प्रतापभानु-भानु-सो ।
करत बिसोक लोक-कोकनद, कोक कपि, कहै जामवंत, आयो, आयो हनुमान सो ॥

४१ गगन निहारि, किलकारी भारी सुनि, हनुमान पहिचानि भए सानँद सचेत हैं ।
बूड़त जहाज बच्यो पथिकसमाजु, मानो आजु जाए जानि सब अंकमाल देत हैं ॥
जै जै जानकीस, जै जै लखन-कपीस' कहि, कूदैं कपि कौतुकी नटत रेत- रेत हैं ।
अंगदु मयंदु नलु नील बलसील महा बालधी फिरावैं, मुख नाना गति लेत हैं ॥

आयो हनुमानु, प्रानहेतु अंकमाल देत, लेत पगधूरि एक, चूमत लँगूल हैं ।
एक बूझैं बार-बार सीय-समाचार, कहैं पवनकुमारु, भो बिगतश्रम-सूल हैं ॥
एक भूखे जानि, आगें आनैं कंद-मूल-फल, एक पूजैं बाहु बलमूल तोरि फूल हैं ।
एक कहैं'तुलसी' सकल सिधि ताकें, जाकें कृपा-पाथनात सीतानाथु सानुकूल हैं ॥

४२ सीयको सनेहु, सीलु, कथा तथा लंकाकी कहत चले चायसों, सिरानो पथु छनमें ।
कह्यो जुबराज बोलि बानरसमाजु, आजु खाहु फल, सुनि पेलि पैठे मधुबनमें ।
मारे बागवान, ते पुकारत देवान गे, ' उजारे बाग अंगद' देखाए घाय तनमें ।
कहै कपिराजु, करि काजु आए कीस, तुल- सीसकी सपथ कहामोदु मेरे मनमें ॥

भगवान राम की उदारता

नगरु कुबेरको सुमेरुकी बराबरी, बिरंचि-बुध्दिको बिलासु लंक निरमान भो ।
ईसहि चढ़ाइ सीस बीसबाहु बीर तहाँ, रावनु सो राजा रज-तेजको निधानु भो ॥
'तुलसी' तिलोककी समृध्दि, सौंज, संपदा सकेलि चाकि राखी, रासि, जाँगरु जहानु भो ।
तीसरें उपास बनबास सिंधु पास सो समाजु महाराजजू को एक दिन दानु भो

(इति सुन्दरकाण्ड)

लंकाकाण्ड
राक्षसों की चिन्ता

४३ बड़े बिकराल भालु-बानर बिसाल बड़े, 'तुलसी' बड़े पहार लै पयोधि तोपिहैं ।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड खंडि मंडि मेदिनीको मंडलीक-लीक लोपिहैं ॥
लंकदाहु देखें न उछाहु रह्यो काहुन को, कहैं सब सचिव पुकारि पाँव रोपिहैं ।
बाँचिहै न पाछैं तिपुरारिहू मुरारिहू के, को है रन रारिको जौं कोसलेस कोपिहैं ॥

त्रिजटा का आश्वासन

त्रिजटा कहति बार-बार तुलसीस्वरीसों, 'राघौ बान एकहीं समुद्र सातौ सोषिहैं ।
सकुल सँघारि जातुधान-धारि जम्बुकादि, जोगिनी-जमाति कालिकाकलाप तोषिहैं ॥
राजु दे नेवाजिहैं बजाइ कै बिभीषनै, बजैंगे ब्योम बाजने बिबुध प्रेम पोषिहैं ॥
कौन दसकंधु, कौन मेघनादु बापुरो, को कुंभकर्नु कीटु, जब रामु रन रोषिहैं ॥

४४ बिनय-सनेह सों कहति सीय त्रिजटासों, पाए कछु समाचार आरजसुवनके ।
पाए जू, बँधायो सेतु उतरे भानुकुलकेतु, आए देखि-देखि दूत दारुन दुवनके ॥
बदन मलीन, बलहीन, दीन देखि, मानो मिटै घटै तमीचर-तिमिर भुवनके ।
लोकपति-कोक-सोक मूँदे कपि-कोकनद, दंड द्वै रहे हैं रघु-आदिति-उवनके ॥

झूलना

सुभुजु मारीचु खरु त्रिसरु दूषनु बालि, दलत जेहिं दूसरो सरु न साँध्यो ।
आनि परबाम बिधि बाम तेहि रामसों, सकत संग्रामु दसकंधु काँध्यो ॥
समुझि तुलसीस-कपि-कर्म घर- घर घैरु, बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो ।
बसत गढ़ बंक, लंकेसनायक अछत, लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो ॥

४५ 'बिस्वजयी' भृगुनायक-से बिनु हाथ भए हनि हाथ हजारी ।
बातुल मातुलकी न सुनी सिख का 'तुलसी' कपि लंक न जारी ॥
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिलें, फिरि बूझहै, को गज, कौन गजारी ।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन-बात बड़ो, सो बड़ोई बजारी ॥

समुद्रोतरण

जब पाहन भे बनबाहन-से उतरे बनरा, 'जय राम' रढैं ।
'तुलसी' लिएँ सैल-सिला सब सोहत, डसागरु ज्यों बल बारि बढ़ै ।
करि कोपु करैं रघुबीरको आयसु, कौतुक हीं गढ़ कूदि चढ़ै ।
चतुरंग चमू पलमें दलि कै रन रावन-राढ़-सुहाड़ गढ़ै ॥

४६ बिपुल बिसाल बिकराल कपि-भालु, मानो कालु बहु बेष धरें, धाए किएँ करषा ।
लिए सिला-सैल, साल, ताल औ तमाल तोरि तोपैं तोयनिधि, सुरको समाजु हरषा ॥
डगे दिगकुंजर कमठु कोलु कलमले, डोले धराधर धारि, धराधरु धरषा ।
'तुलसी'तमकि चलैं, राघौकी सपथ करैं, को करै अटक कपिकटक अमरषा ॥

आए सुकु, सारनु, बोलाए ते कहन लागे, पुलक सरीर सेना करत फहम हीं ।
'महाबली बानर बिसाल भालु काल-से कराल हैं, रहैं कहाँ, समाहिंगे कहाँ मही' ॥
हँस्यो दसकंधु रघुनाथको प्रताप सुनि, 'तुलसी' दुरावे मुखु, सूखत सहम हीं ।
रामके बिरोधें बुरो बिधि-हरि-हरहू को, सबको भलो है राजा रामके रहम हीं ॥

अंगदजी का दूतत्व

४७ 'आयो! आयो! आयो सोई बानर बहोरि!'भयो सोरु चहुँ ओर लंकाँ आएँ जुबराजकें ।
एक काढ़ैं सौंज, एक धौंज करैं, 'कहा ह्वैहै, पोच भई, 'महासोचु सुभटसमाजकें ॥
गाज्यो कपिराजु रघुराजकी सपथ करि, मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें ।
सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि, लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें ॥

तुलसीस बल रघुबीरजू कें बालिसुतु वाहि न गनत, बात कहत करेरी-सी ।
बकसीस ईसजू की खीस होत देखिअत, रिस काहें लागति, कहत हौं मैं तरी-सी ॥
चढ़ि गढ़-मढ़ दृढ़, कोटकें कँगूरें, कोपि नेकु धका देहैं, ढ़ैहैं ढेलनकी ढ़ेरी-सी ।
सुनु दसमाथ!नाथ-णातके हमारे कपि हाथ लंका लाइहैं तौ रहेगी हथेरी-सी ॥

४८ 'दूषनु, बिराधु, खरु, त्रिसरा, कबंधु बधे तालऊ बिसाल बेधे, कौतुक है कालिको ।
एकहि बिसिष बस भयो बीर बाँकुरो सो, तोहू है बिदित बलु महाबली बालिको ॥
'तुलसी' कहत हित मानतो न नेकु संक, मेरो कहा जैहै, फलु पैहै तू कुचालिको ।
बीर-करि-केसरी कुठारपानि मानी हारि, तेरी कहा चली, बिड़! तोसे गनै घालि को ॥

तोसों कहौं दसकंधर रे, रघुनाथ बिरोधु न कीजिए बौरे ।
बालि बली, खरु, दूषन और अनेक गिरे जे-जे भीतिमें दौरे ॥
ऐसिअ हाल भई तोहि धौं, न तु लै मिलु सीय चहै सुखु जौं रे ।
रामकें रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकरु सौ रे ॥

४९ तूँ रजनीचरनाथ महा, रघुनाथके सेवकको जनु हौं हौं ।
बलवान है स्वानु गलीं अपनीं, तोहि लाज न गालु बजावत सौहौं ।
बीस भुजा, दस सीस हरौं, न डरौं, प्रभु-आयसु-भंग तें जौं हौं ।
खेतमें केहरि ज्यों गजराज दलौं दल, बालिको बालकु तौं हौं ॥

कोसलराजके काज हौं आजु त्रिकूटु उपारि, लै बारिधि बोरौं ।
महाभुजदंड द्वै अंडकटाह चपेटकीं चोट चटाक दै फोरौं ॥
आयसु भंगतें जौं न डरौं, सब मीजि सभासद श्रोनित घोरौं ।
बालिको बालकु जौं, 'तुलसी' दसहू मुखके रनमें रद तोरौं ॥

५० अति कोपसों रोप्यो है पाउ सभाँ, सब लंक ससंकित, सोरु मचा ।
तमके घननाद-से बीर प्रचारि कै, हारि निसाचर-सैनु पचा ॥
न टरै पगु मेरुहु तें गरु भो, सो मनो महि संग बिरंचि रचा ।
'तुलसी' सब सूर सराहत हैं, जगमें बलसालि है बालि-बचा ॥

रोप्यो पाउ पैज कै, बिचारि रघुबीर बलु लागे भट समिटि, न नेकु टसकतु है ॥
तज्यो धीरु-धरनीं, धरनीधर धसकत, धराधरु धीर भारु सहि न सकतु है ॥
महाबली बालिकें दबत कलकति भूमि, 'तुलसी' उछलि सिंधु, मेरु मसकतु है ।
कमठ कठिन पीठि घट्ठा पर यो मंदरको, आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है ॥

रावण और मन्दोदरी झूलना

५१ कनकगिरिसृंग चढ़ि देखि मर्कटकटकु, बदत मंदोदरी परम भीता ।
सहसभुज-मत्तगजराज-रनकेसरी परसुधर गर्बु जेहि देखि बीता ॥
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी, ख्याल हीं बालि बलसालि जीता ।
रे कंत! तृन दंत गहि 'सरन श्रीरामु' कहि, अजहुँ एहि भाँति लै सौंपु सीता ॥

रे नीच! मारीचु बिचलाइ, हति ताड़का, भंजि सिवचापु सुखु सबहि दीन्ह्यो ।
सहस दसचारि खल सहित खर-दूषनहि, पैठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यो ॥
मैं जो कहौं, कंत! सुनु मंतु भगवंतसों बिमुख ह्वै बालि फलु कौन लीन्ह्यो ।
बीस भूज, दस सीस खीस गए तबहिं जब, ईस के ईससों बैरु कीन्ह्यो ॥

५२ बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किये, कंत! भगवंतु तैं तउ न चीन्हें ।
बिपुल बिकराल भट भालु-कपि काल -से, संग तरु तुंग गिरिसृंग लीन्हें ॥
आइगो कोसलाधीसु तुलसीस जेंहि छत्र मिस मौलि दस दूरि कीन्हें ।
ईस बकसीस जनि खीस करु, ईस! सुनु, अजहुँ कुलकुसल बैदेहि दीन्हें ॥

सैनके कपिन को को गनै, अर्बुदे महाबलबीर हनुमान जानी ।
भूलिहै दस दिसा, सीस पुनि डोलिहैं, कोपि रघुनाथु जब बान तानी ॥
बालिहूँ गर्बु जिय माहिं ऐसो कियो, मारि दहपट दियो जमकी घानीं ।
कहति मंदोदरी, सुनहि रावन! मतो, बैगि लै देहि बैदेहि रानी ॥

५३ गहनु उज्जारि, पुरु जारि, सुतु मारि तव, कुसल गो कीसु बर बैरि जाको ।
दूसरो दूतू पनु रोपि कोपेउ सभाँ, खर्ब कियो सर्बको, गर्बु थाको ॥
दासु तुलसी सभय बदत मयनंदिनी, मंदमति कंत, सुनु मंतु म्हाको ।
तौलौ मिलु बेगि, नहि जौंलौं रन रोष भयो दासरथि बीर बिरुदैत बाँको ॥

काननु उजारि, अच्छु मारि, धारि धूरि कीन्हीं, नगरु प्रचार यो, सो बिलोक्यो बलु कीसको ।
तुम्हैं बिद्यमान जातुधानमंडलीमें कपि कोपि रोप्यो पाउ, सो प्रभाउ तुलसीसको ॥
कंत! सुनु मंतु कुल-अंतु किएँ अंत हानि, हातो कीजै हीयतें भरोसो भुज बीसको ।
तौलौं मिलु बेगि जौलौं चापु न चढ़ायो राम, रोषि बानु काढ्यो न दलैया दससीसको ॥

५४ 'पवनको पूतु देख्यो दूतु बीर बाँकुरो, जो बंक गढ़ लंक-सो ढकाँ ढकेलि ढाहिगो ।
बालि बलसालिको सो काल्हि दापु दलि कोपि, रोप्यो पाउ चपरि, चमुको चाउ चाहिगो ॥
सोई रघुनाथ कपि साथ पाथनाथु बाँधि, आयो नाथ! भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो ।
'तुलसी' गरबु तजि मिलिबेको साजु सजि, देहि सिय, न तौ पिय! पाइमाल जाहिगो ॥

उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार केसरीकुमारु सो अदंड-कैसो डाँड़िगो ।
बाटिका उजारि, अच्छु, रच्छकनि मारि भट भारी भारी राउरेके चाउर-से काँड़िगो ॥
'तुलसी' तिहारें बिद्यमान जुबराज आजु कोपि पाउ रोपि, सब छूछे कै कै छाँड़िगो ।
कहेकी न लाज, पिय! आजहूँ न पिय आए बाज, सहित समाज गढ़ु राँड-कैसो भाँड़िगो ॥

५५ जाके रोष-दुसह-त्रिदोष-दाह दूरि कीन्हे, पैअत न छत्री-खोज खोजत खलकमें ।
माहिषमतीको नाथ!साहसी सहस बाहु, समर-समर्थ नाथ! हेरिए हलकमें ॥
सहित समाज महाराज सो जहाजराजु बूड़ि गयो जाके बल-बारिधि-छलकमें ।
टूटत पिनाककें मनाक बाम रामसे, ते नाक बिनु भए भृगुनायकु पलकमें ॥

कीन्ही छोनी छत्री बिनु छोनिप-छपनिहार, कठिन कुठार पानि बीर-बानि जानि कै ।
परम कृपाल जो नृपाल लोकपालन पै, जब धनुहाई ह्वैहै मन अनुमानि कै ॥
नाकमें पिनाक मिस बामता बिलोकि राम रोक्यो परलोक लोक भारी भ्रम भानि कै ।
नाइ दस माथ महि, जोरि बीस हाथ, पिय! मिलिए पै नाथ! रघुनाथ पहिचानि कै ॥

५६ कह्यो मतु मातुल, बिभीषनहूँ बार-बार, आँचरु पसार पिय१ पाँय लै-लै हौं परी ।
बिदित बिदेहपुर नाथ! भुगुनाथगति, समय सयानी कीन्ही जैसी आइ गौं परी ।
बायस, बिराध, खर, दूषन, कबंध, बालि, बैर रघुबीरकें न पूरी काहूकी परी ।
कंत बीस लोयन बिलोकिए कुमंतफलु, ख्याल लंका लाई कपि राँडकी-सी झोपरी ॥

राम सों सामु किएँ नितु है हितु, कोमल काज न कीजिए टाँठे ।
आपनि सूझि कहौं, पिय! बूझिए, झूझिबे जोगु न ठाहरु, नाठे ॥
नाथ! सुनी भृगुनाथकथा, बलि बालि गए चलि बातके साँठें ।
भाइ बिभीषनु जाइ मिल्यो, प्रभु आइ परे सुनि सायर काँठें ॥

५७ पालिबेको कपि-भालु-चमू जम काल करालहुको पहरी है ।
लंक-से बंक महा गढ़ दुर्गम ढ़ाहिबे-दाहिबेको कहरी है ॥
तीतर-तोम तमीचर-सेन समीरको सूनु बड़ो बहरी है ।
नाथ! भलो रघुनाथ मिलें रजनीचर-सेन हिएँ हहरी है ॥

राक्षस-वानर-संग्राम
रोष्यो रन रावनु, बोलाए बीर बानइत, जानत जे रीति सब संजुग समाजकी ।
चली चतुरंग चमू, चपरि हने निसान, सेना सराहन जोग रातिचरराजकी ॥
तुलसी बिलोकि कपि-भालु किलकत ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाजकी ।
रामरूख निरखि हरष्यो हियँ हनूमानु, मानो खेलवार खोली सीसताज बाजकी ॥

५८ साजि कै सनाह-गजगाह सउछाह दल, महाबली धाए बीर जातुधान धीरके ।
इहाँ भालु-बंदर बिसाल मेरु-मंदर-से, लिए सैल-साल तोरि नीरनिधितीरके ॥
तुलसी तमकि-ताकि भिरे भारी जुध्द क्रुध्द, सेनप सराहे निज निज भट भीरके ।
रुंडनके झुंड झूमि-झूमि झुकरे-से नाचैं, समर सुमार सूर मारैं रघुबीरके ॥

तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि साजि चढ़े छँटि छैल छबीले ।
भारी गुमान जिन्हें मनमें, कबहूँ न भए रनमें तन ढीले ॥
तुलसी लखी कै गज केहरि ज्यों झपटे, पटके सब सूर सलीले ।
भूमि परे भट भूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले ।

५९ सूर सँजोइल साजि सुबाजि, सुसेल धरैं बगमेल चले हैं
भारी भुजा भरी, भारी सरीर, बली बिजयी सब भाँति भले हैं ॥
'तुलसी' जिन्ह धाएँ धुकै धरनी, धरनीधर धौर धकान हले हैं ।
ते रन-तीक्खन लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं ॥

गहि मंदर बंदर-भालु चले, सो मनो उनये घन सावनके ।
'तुलसी' उत झुंड प्रचंड झुके, झपटैं भट जे सुरदावनके ॥
बिरुझे बिरुदैत जे खेत अरे, न टरे हठि बैरु बढ़ावनके ।
रन मारि मची उपरी-उपरा भलें बीर रघुप्पति रावनके ॥

६० सर-तोमर सेलसमूह पँवारत, मारत बीर निसाचरके ।
इत तें तरु-ताल तमाल चले, खर खंड प्रचंड महीधरके ॥
'तुलसी' करि केहरिनादु भिरे भट, खग्ग खगे, खपुआ खरके ।
नख-दंतन सों भुजदंड बिहंडत, मुंडसों मुंड परे झरकैं ॥

रजनीचर-मत्तगयंद-घटा बिघटै मृगराजके साज लरै ।
झपटै भट कोटि महीं पटकै, गरजै, रघुबीरकी सौंह करै ॥
तुलसी उत हाँक दसाननु देत, अचेत भे बीर, को धीर धरै ।
बिरुझो रन मारुतको बिरुदैत, जो कालहु कालसो बूझि परै ॥

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Last Updated : October 17, 2011

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