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। ब्रह्मोवाच ॥ राधाकान्त ...

श्रीकृष्ण कवच - । ब्रह्मोवाच ॥ राधाकान्त ...

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। ब्रह्मोवाच ॥
राधाकान्त महाभाग ! कवचं यत् प्रकाशितं ।
ब्रह्माण्ड-पावनं नाम, कृपया कथय प्रभो ! ॥१॥
मां महेशं च धर्मं च, भक्तं च भक्त-वत्सल ।
त्वत्-प्रसादेन पुत्रेभ्यो, दास्यामि भक्ति-संयुतः ॥२॥
ब्रह्माजी बोले - हे महाभाग ! राधा-वल्लभ ! प्रभो ! ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ नामक जो कवच आपने प्रकाशित किया है, उसका उपदेश कृपा-पूर्वक मुझको, महादेव जी को तथा धर्म को दीजिए । हे भक्त-वत्सल ! हम तीनों आपके भक्त हैं । आपकी कृपा से मैं अपने पुत्रों को भक्ति-पूर्वक इसका उपदेश दूँगा ॥१-२॥
॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥
श्रृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश ! धर्मेदं कवचं परं ।
अहं दास्यामि युष्मभ्यं, गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥१॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं, प्राण-तुल्यं ममैव हि ।
यत्-तेजो मम देहेऽस्ति, तत्-तेजः कवचेऽपि च ॥२॥
श्रीकृष्ण ने कहा - हे ब्रह्मन् ! महेश्वर ! धर्म ! तुम लोग सुनो ! मैं इस उत्तम ‘कवच’ का वर्णन कर रहा हूँ । यह परम दुर्लभ और गोपनीय है । इसे जिस किसी को भी न देना, यह मेरे लिए प्राणों के समान है । जो तेज मेरे शरीर में है, वही इस कवच में भी है ।
कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा, धाता त्रि-जगतां भव ।
संहर्त्ता भव हे शम्भो ! मम तुल्यो भवे भव ॥३॥
हे धर्म ! त्वमिमं धृत्वा, भव साक्षी च कर्मणां ।
तपसां फल-दाता च, यूयं भक्त मद्-वरात् ॥४॥
हे ब्रह्मन् ! तुम इस कवच को धारण करके सृष्टि करो और तीनों लिकों के विधाता के पद पर प्रतिष्ठित रहो । हे शम्भो ! तुम भी इस कवच को ग्रहण कर, संहार का कार्य सम्पन्न करो और संसार में मेरे समान शक्ति-शाली हो जाओ । हे धर्म ! तुम इस कवच को धारण कर कर्मों के साक्षी बने रहो । तुम सब लिग मेरे वर से तपस्या के फल-दाता हो जाओ ।
ब्रह्माण्ड-पावनस्यास्य, कवचस्य हरिः स्वयं ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, देवोऽहं जगदीश्वर ! ॥५॥
धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु, विनियोगः प्रकीर्तितः ।
त्रि-लक्ष-वार-पठनात्, सिद्धिदं कवचं विधे ! ॥६॥
इस ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ कवच के ऋषि स्वयं हरि हैं, छन्द गायत्री है, देवता मैं जगदीश्वर श्रीकृष्ण हूँ तथा इसका विनियोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु है । हे विधे ! ३ लाख बार ‘पाठ’ करने पर यह ‘कवच’ सिद्ध हो जाता है ।
यो भवेत् सिद्ध-कवचो, मम तुल्यो भवेत्तु सः ।
तेजसा सिद्धि-योगेन, ज्ञानेन विक्रमेण च ॥७॥
जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियों, योग, ज्ञान और बल-पराक्रम में मेरे समान हो जाता है ।
॥ मूल-कवच-पाठ ॥
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्माण्ड-पावन-कवचस्य श्रीहरिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीकृष्णो देवता, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीहरिः ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्रीकृष्णो देवतायै नमः हृदि, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
प्रणवो मे शिरः पातु, नमो रासेश्वराय च ।
भालं पायान् नेत्र-युग्मं, नमो राधेश्वराय च ॥१॥
कृष्णः पायात् श्रोत्र-युग्मं, हे हरे घ्राणमेव च ।
जिह्विकां वह्निजाया तु, कृष्णायेति च सर्वतः ॥२॥
श्रीकृष्णाय स्वाहेति च, कण्ठं पातु षडक्षरः ।
ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं, क्लीं पूर्वश्च भुज-द्वयम् ॥३॥
नमो गोपांगनेशाय, स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु ।
दन्त-पंक्तिमोष्ठ-युग्मं, नमो गोपीश्वराय च ॥४॥
ॐ नमो भगवते रास-मण्डलेशाय स्वाहा ।
स्वयं वक्षः-स्थलं पातु, मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः ॥५॥
ऐं कृष्णाय स्वाहेति च, कर्ण-युग्मं सदाऽवतु ।
ॐ विष्णवे स्वाहेति च, कंकालं सर्वतोऽवतु ॥६॥
ॐ हरये नमः इति, पृष्ठं पादं सदऽवतु ।
ॐ गोवर्द्धन-धारिणे, स्वाहा सर्व-शरीरकम् ॥७॥
प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्णः, आग्नेय्यां पातु माधवः ।
दक्षिणे पातु गोपीशो, नैऋत्यां नन्द-नन्दनः ॥८॥
वारुण्यां पातु गोविन्दो, वायव्यां राधिकेश्वरः ।
उत्तरे पातु रासेशः, ऐशान्यामच्युतः स्वयम् ।
सन्ततं सर्वतः पातु, परो नारायणः स्वयं ॥९॥
॥ फल-श्रुति ॥
इति ते कथितं ब्रह्मन् ! कवचं परमाद्भुतं ।
मम जीवन-तुल्यं च, युष्मभ्यं दत्तमेव च ॥

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Last Updated : July 14, 2016

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