प्रथम पटल - मनुष्यजन्म दुर्लभ

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


मनुष्य जन्म का दुर्लभत्व --- चौरासी लाख योनियों वाले शरीरों में जीव का मनुष्य योनि में जन्म लेना सफल है , ऐसा सभी शस्त्रों में कहा गया है , क्योंकि मनुष्य शरीर के अतिरिक्त और किसी भी योनि में तत्त्वज्ञान नाहीं होता ॥१५४ - १५५॥

किन्तु जब बहुत बड़े पुण्य का सञ्चय होता है तब कदाचित मनुष्य शरीर प्राप्त होता है । मोक्ष का सापान रूप मनुष्य जन्म होन दुर्लभ है । मनुष्य शरीर में ही प्रधान प्रधान सिद्धियाँ होती हैं । यह मनुष्य शरीर अणिमादि गुणों से संयुक्त है । इसलिये ( अधिमादि सिद्धियों से युक्त ) उत्तम मनुष्य साक्षाद् ‍ देवता है ॥१५५ - १५७॥

बिना शरीर धारण किये धर्मकामादि पुरुषार्थ का प्राप्त संभव नहीं है । इसलिये शरीर की रक्षा करके ही मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये ॥१५७ - १५८॥

यह मनुष्य ज्ञान का खजाना है और ज्ञानात्मक है - ऐसा अभियुक्त जनों का कहाना है । मुनि के क्रिया कलाप को जानने वाला मुनि , मौन रुप शील धारण करणे वाला है , वह सर्वगमन करने वाला , नित्य एक स्थान में निराकुल रहने वाला वह मन्त्र ( मित्र ) जाप तथा योगजाप कर अपने पाप को दूर कर देता है और परब्रह्म की प्राप्ति रूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है इसमें रञ्च मात्र भी संशय नहीं है ॥१५८ - १६०॥

जो मेरे भक्त मेरे द्वारा कहे गए तन्त्रों को पढ़ते हैं और पढ़कर तदनुसार कर्म करते है वे मेरी सन्निधि को प्राप्त करते हैं । जो साधक मेरी भक्तिं करते हैं किन्तु मेरे द्वारा कहे गये तन्त्रों एवं शास्त्रों का ज्ञान न कर अन्य शास्त्रों का ज्ञान करते हैं वे करोड़ों वर्षों में सिद्ध होते है ॥१६१ - १६२॥

हे महाभैरव ! जिस प्रकार शुक्ति में रजत का भ्रत हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य भ्रम वश अन्य दर्शनों से भुक्ति और मुक्ति दानों चाहता है । जहाँ भोग होता है वहाँ दूसरा मोक्ष कैसे रह सकता है क्योंकि दोनों का एकत्र रहना सिद्ध नहीं है । किन्तु मेरे चरणकमलों का वह सेवक मोक्ष और भोग दोनों का भागी होता है ॥१६३ - १६४॥

बाह्मद्रष्टा साधक देखने के लिये आकाश में रहने वाले तेज को ग्रहण करता है । किन्तु सारे ब्रह्माण्ड के ज्ञान का द्रष्टा अपने आन्तर ज्ञान से समस्त प्रदेशों और ब्रह्माण्ड का दर्शन करता है ॥१६५॥

जिस प्रकार घट का प्रत्यक्ष करने के लिये प्रकाश की आवश्यकता होती है । फिर भी जैसे घटत्व ज्ञान के बिना घटा का प्रत्यक्ष नहीं होता और इतरघट से उस घट के भिन्न होने पर भी उसे घट भेद दिखाई नहीं पड़ता , उसी प्रकार पुरुषों में भी भेद है , किन्तु बिना शक्ति के वह दिखाई नहीं पड़ता ॥१६६ - १६७॥

जिस प्रकार शक्तिहीन जीव निर्बल और वाणी में असमर्थ होता है उसी प्रकार पुं - शक्तिहीन अपने अज्ञान और अपनी आत्मा - दोनों को नहीं जानता । संसार के अज्ञान से मोहित प्राणी अपने आत्मस्वरूप को नहीं पहचानते और अज्ञान में पडे़ हुये वे जड़ ज्ञान का दर्शन भी नहीं कर पाते ॥१६८ - १६९॥

वे ईश्वर के दूत यमराज के बन्धन में पडे़ रहते हैं तथा अपने पुत्र और धन को देखते देखते मृत्यु को प्राप्त करते हैं । यह संसार मोहरूपी मदिरा पी कर इतना उन्मत्त हो जाता है कि उसे अपना हित दिखाई नहीं देता । सारी संपत्ति स्वप्न है । जवानी भी फूल के समान थोडे़ दिन विकसित रहने वाली है ॥१७० - १७१॥

आयु बिजली के समान चञ्चल है । इस अज्ञान से भला किसे धैर्य हो सकता है । अधिक से अधिक वह सौ वर्ष तक जीता है । उसमें भी उसकी आधी आयु निद्र में बीत जाती है । ताप उत्पन्न करने वाली कामिनी में आसक्त बुद्धि उसकी आधी आयु ले बीतती है । इतना ही नहीं , उसकी असद‍वृत्ति दिन रात उसके आयु को नष्ट करने में लगी रहती है ॥१७२ - १७३॥

इस प्रकार कभी अज्ञान से , कभी रोग से और कभी बुढा़पे के दुःख से उसकी सारी आयु बीत जाती है । उससे वह कुछ भी फल नहीं प्राप्त करता । स्त्री , पुत्र , पिता एवं मातादि का सम्बन्ध किस कारण करना चाहिये , जब संसार दुःख का मूल ही है । इसलिये जो अपने हृदय में संसार को बसाता है वह दुःखी है । जिसने इस संसार का त्याग कर दिया , वही सुखी है , इसमें संशय नहीं है ॥१७४ - १७५॥

सुख दुःख का परित्याग कर देने वाला महापुरुष अपने कर्म से क्या नहीं प्राप्त कर लेता । जो लोकाचार के भय से सांसारिक कार्य करता रहता है और बिना श्रद्धा के अपने को इस संसार में ब्रह्म का ज्ञाता मानता है और सांसारिक सुख में आसक्त होकर भी अपने को ’ ब्रह्मज्ञोऽस्मि ’ ऐसा मानता है धैर्यवानपुरुष को उसे सदैव चाण्डाल के समान दूर से ही त्याग कर देना चाहिये ॥१७६ - १७८॥

घर में अथवा अरण्य में निर्लज्ज नङ्रे गर्दभादि चरते रहते हैं तो क्या उससे वे व्रती कहे जा सकते हैं ? वन में रह कर निरन्तर तृण और पत्ते का आहार करने वाले हरिणादि जङ्रली जीव क्या तपस्वी कहे जा सकते हैं ? ॥१७८ - १७९॥

शीत , वात और घाम सहने वाले तथा भक्ष्याभक्ष्य को समान समझने वाले शूकर आदि चरते रहते हैं क्या उससे वे व्रती कहे जायेंगे ? ॥१८० - १८१॥

आकाश में सभी पक्षी उड़ते रहते हैं भूत प्रेतादि भी आकाश मार्ग से चलते रहते हैं तो क्या रात्रि में गमन करने वाले ये सभी खेचर महेश्वर कहे जायँगे ? ॥१८१ - १८२॥

जन्म से ले कर मरण पर्यन्त गङ्रादि सुरसरितों में रहने वाले माण्डूक एवं मत्स्यादि प्रमुख जन्तु क्या व्रती कहे जायेंगे ? इस प्रकार के ज्ञान का विवेचन कर यदि पण्डित जन अज्ञ बने हुए हैं , तो भी कर्म दे . दोष से उनके हाथ कुछ नहीं लगता औरवे अन्ततः नरकगामी ही होते हैं । किन्तु कुटिलता , आलस्य और संसर्ग दोषों को छोड़कर जो मेरी भक्ति में लगे रहते हैं , वे मेरा स्थान प्राप्त कर लेते हैं ॥१८२ - १८५॥

ऐसे तो सारे प्राणी अतिवाहिक शरीर धारण कर ऊपर जाते ही हैं । क्योंकि अपने देह के कर्मानुसार मनुष्य नाना रूप में जन्म लेता है । ( शरीर से होने वाले कर्म से कोई जीव दुष्ट गति प्राप्त करता है ) । किसी का दुश्चरित्र इस जन्म का होता है तो किसी का पूर्वजन्म का होता है । ( पूर्वजन्म का ) दुरात्मा मनुष्य जन्म में भी रूपविपर्यय ( कुरूपता ) प्राप्त करता है ॥१८६ - १८७॥

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Last Updated : July 28, 2011

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