हिन्दी पदावली - पद १४१ से १५०

संत नामदेवजी मराठी संत होते हुए भी, उन्होंने हिन्दी भाषामें सरल अभंग रचना की ।



१४१
तत कहन कूं रांम है भजि लीजै सोई ।
लीला तिन अगाध की गति लषै न कोई ॥टेक॥
कंचन मेर समान है, दीजै दुजि दाना ।
कोटि गऊ नित दान दें, नहीं नांव समाना ॥१॥
जोग जिग सूं कहा सरै, तीरथ असनांना ।
वौ सांप्पा सन भाजहीं, भजीये भगवाना ॥२॥
पूजण कूं साधू जणां, हरि के अधिकारी ।
इन संगि गोविंद गाइये, वै पर उपगारी ॥३॥
एकै मनिये दै दसा, हरि कौ व्रत धरीये ।
नांमदेव नांव जिहाज है, भौ सागर तिरीये ॥४॥

१४२
कहा ले आरती दास करै । तीनि लोक जाकी जोति फिरै ॥टेक॥
सात सुमंद जाकै चरन निवासा । कहा भये जल कुंभ भरे ॥१॥
कोटि भान जाकै नष की सोभा । कहा भयौ कर दीप फिरै ॥२॥
अठार भार जाकै बनमाला । कहा भये कर पहोप धरै ॥३॥
अनंत कोटि जाकै बाजा बाजै । कहा घंटा झणकार करै ॥४॥
चौरासी लष व्यापक रांमा । केवल हरि जस गावै नामा ॥५॥

१४३
आरती पतिदेव मुरारी । चवंर डुलै बलि जाऊं तुम्हारी ॥टेक॥
चहुं जुगि आरती चहुं जुगि पूजा । चहुं जुगि राम अवर नहीं दूजाअ ॥१॥
चहूं दिस देषै चहुं दिस धावै । चहुं दिस राम तहां मन लावै ॥२॥
आरती कीजै ऐसे तैसे । ध्रू प्रहिलाद करी सुष जैसे ॥३॥
अरधै राम अरध मधि रामा । पूरन सेइ सरै सब कामा ॥४॥
आनंद आत्म पूजा । नामदेव भणै मेरे दिव न दूजा ॥५॥

१४४
गरुड मंडल आव । पृथ्वीपति गरुड मंडल आव ॥टेक॥
तू पृथ्वी पति जागृत केला । मैं गाऊं गुन राग रचेला ॥१॥
नामदेव कहे बालक तोरा । भक्तिदान दे साहेब मोरा ॥२॥

१४५
धीरे धीरे षाइबौ कथन न जैबौ । आपन षैबौ तब नृमल ह्रैबौ ॥टेक॥
पहली षैहों आई माई । पीछे षैहौं सगा जंवाई ॥१॥
उगलिबा चंदा गिलिबा सूर । फुनि मैं षैहों घर कौ ससूर ।
फुनि मैं षैहों पंचौ लोग । भणत नामदेव ये सिध जोग ॥२॥

१४६
तैसी चूक लीजै रे जग जीवना । अनभवल्या बिना ऐसी लषी न कुरसनां ॥टेक॥
पारब्रह्माची गोडी, नेणती बापुडी पडीते । सकैडै विषया संगे ॥१॥
सिलेसि घातले बैसाचे बैरणें । तेच बिधने नेतियार साचे ॥२॥
कमलनी दुरदुरा, ऐकजु बिटा । प्रमल मधु कधि न गैला ॥३॥
थाना चया दूधा न होसि बरपडा । अपुध सेचता उचडा, जनम गैला ॥४॥
नामा भणै तैसी चूकली तुझी तुझ देषता । अंमृत सेवता, चवै नौंणती ॥५॥

१४७
देवा, पाहन तारिअलें । राम कहत जन कस न तरे ॥
तारिले गनिका विपुरुप कुविजा । विआध अजामलु तारिअले ॥
चरणबधिक जन तेऊ मुकति भए । हउ बलिबलि जिन राम कहै ॥
दासीसुत जनु बिदरु सुदामा । उग्रसेन कउ राज दिए ॥
जपहीन, तपहीन, कुलहीन क्रमहीन । नामेके सुआमी तेउ तरे ॥

१४८
एक अनेक बिआपक पूरन जत देखउ तत सोई ॥
माइआ चित्र बचित्र विमोहित बिरला बूझै कोई ।
सभु गोविंदु है, सभु गोविंदु है गोविंदु बिनु नहि कोई ॥
सूत एकु मणि सत सहंस जैसे उतिपोति प्रभु सोई ॥
जलतरंग अरु फेन बुदबुदा, जलते भिन्न न कोई ॥
इहु परपंचु पारब्रह्म की लीला बिचरत आन न होई ॥
मिथिआ भरमु अरु सुपनु मनोरथ सति पदारतु जानिआ ॥
मुक्ति मनसा गुरु उपदेसी, जागत ही मनु मानिआ ॥
कहत नामदेऊ हरि की रचना देखहु रिदै विचारी ॥
घट घट अंतरि सरब निरंतरी केवल एक मुरारी ॥

१४९
पारब्रह्म मुजि चीनसी आसा ते न भावसी ॥
रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी ॥
कैसे मन तरहिगा रे संसार सागरु बिखै को बना ॥
झूठी माइआ देखि के भूला रे मना ॥
छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥
संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥

१५०
जै राजु देहि त कवन बडाई । जै भीख मंगावहि त किआ घटि जाई ॥
तूं हरि भज मन मेरे पढु निरबानु । बहुरि न होई तेरा आवन जानु ॥
सभ तै उपाई भरम भुलाई । जिस तूं देवहि तिसहि बुझाई ॥
सतिगुरु मिलै त सहसा जाई । किस हऊ पूजऊ दूजा नदरि न आई ॥
एकै पाथर कीजै थाऊ । दूजै पाथर धरिए पाऊ ॥
जै इहु देऊ तहु भी देवा । कहि नामदेऊ हम हरिकी सेवा ॥

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Last Updated : January 02, 2015

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