लंकाकाण्ड - दोहा ७१ से ८०

गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम ।

गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥७१॥

चौपाला

दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी । समर भई सुभटन्ह श्रम घनी ॥

राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा । जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा ॥

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती । निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥

बहु बिलाप दसकंधर करई । बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥

रोवहिं नारि हृदय हति पानी । तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥

मेघनाद तेहि अवसर आयउ । कहि बहु कथा पिता समुझायउ ॥

देखेहु कालि मोरि मनुसाई । अबहिं बहुत का करौं बड़ाई ॥

इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ । सो बल तात न तोहि देखायउँ ॥

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना । चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥

इत कपि भालु काल सम बीरा । उत रजनीचर अति रनधीरा ॥

लरहिं सुभट निज निज जय हेतू । बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥

दोहा

मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास ॥

गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास ॥७२॥

चौपाला

सक्ति सूल तरवारि कृपाना । अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥

डारह परसु परिघ पाषाना । लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥

दस दिसि रहे बान नभ छाई । मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥

धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना । जो मारइ तेहि कोउ न जाना ॥

गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं । देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं ॥

अवघट घाट बाट गिरि कंदर । माया बल कीन्हेसि सर पंजर ॥

जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर । सुरपति बंदि परे जनु मंदर ॥

मारुतसुत अंगद नल नीला । कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥

पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन । सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥

पुनि रघुपति सैं जूझे लागा । सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥

ब्याल पास बस भए खरारी । स्वबस अनंत एक अबिकारी ॥

नट इव कपट चरित कर नाना । सदा स्वतंत्र एक भगवाना ॥

रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो । नागपास देवन्ह भय पायो ॥

दोहा

गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास ।

सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास ॥७३॥

चौपाला

चरित राम के सगुन भवानी । तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥

अस बिचारि जे तग्य बिरागी । रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥

ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा । पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा ॥

जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा । सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा ॥

बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही । लागेसि अधम पचारै मोही ॥

अस कहि तरल त्रिसूल चलायो । जामवंत कर गहि सोइ धायो ॥

मारिसि मेघनाद कै छाती । परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥

पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ । महि पछारि निज बल देखरायो ॥

बर प्रसाद सो मरइ न मारा । तब गहि पद लंका पर डारा ॥

इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो । राम समीप सपदि सो आयो ॥

दोहा

खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ ।

माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ । ७४क॥

गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ ।

चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ ॥७४ख॥

चौपाला

मेघनाद के मुरछा जागी । पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥

तुरत गयउ गिरिबर कंदरा । करौं अजय मख अस मन धरा ॥

इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा । सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥

मेघनाद मख करइ अपावन । खल मायावी देव सतावन ॥

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि । नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥

सुनि रघुपति अतिसय सुख माना । बोले अंगदादि कपि नाना ॥

लछिमन संग जाहु सब भाई । करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥

तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही । देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥

मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई । जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥

जामवंत सुग्रीव बिभीषन । सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥

जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन । कटि निषंग कसि साजि सरासन ॥

प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा । बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥

जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं । तौ रघुपति सेवक न कहावौं ॥

जौं सत संकर करहिं सहाई । तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई ॥

दोहा

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत ।

अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत ॥७५॥

चौपाला

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा । आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥

कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा । जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ॥

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई । लातन्हि हति हति चले पराई ॥

लै त्रिसुल धावा कपि भागे । आए जहँ रामानुज आगे ॥

आवा परम क्रोध कर मारा । गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥

कोपि मरुतसुत अंगद धाए । हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥

प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा । सर हति कृत अनंत जुग खंडा ॥

उठि बहोरि मारुति जुबराजा । हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ॥

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा । तब धावा करि घोर चिकारा ॥

आवत देखि क्रुद्ध जनु काला । लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥

देखेसि आवत पबि सम बाना । तुरत भयउ खल अंतरधाना ॥

बिबिध बेष धरि करइ लराई । कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥

देखि अजय रिपु डरपे कीसा । परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥

लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा । एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा । सर संधान कीन्ह करि दापा ॥

छाड़ा बान माझ उर लागा । मरती बार कपटु सब त्यागा ॥

दोहा

रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।

धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान ॥७६॥

चौपाला

बिनु प्रयास हनुमान उठायो । लंका द्वार राखि पुनि आयो ॥

तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा । चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा ॥

बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं । श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं ॥

जय अनंत जय जगदाधारा । तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए । लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥

सुत बध सुना दसानन जबहीं । मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं ॥

मंदोदरी रुदन कर भारी । उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥

नगर लोग सब ब्याकुल सोचा । सकल कहहिं दसकंधर पोचा ॥

दोहा

तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि ।

नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥७७॥

चौपाला

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन । आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥

पर उपदेस कुसल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा । लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥

सुभट बोलाइ दसानन बोला । रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥

सो अबहीं बरु जाउ पराई । संजुग बिमुख भएँ न भलाई ॥

निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा । देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा ॥

अस कहि मरुत बेग रथ साजा । बाजे सकल जुझाऊ बाजा ॥

चले बीर सब अतुलित बली । जनु कज्जल कै आँधी चली ॥

असगुन अमित होहिं तेहि काला । गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला ॥

छंद

अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते ।

भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥

गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने ।

जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥

दोहा

ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम ।

भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥७८॥

चौपाला

चलेउ निसाचर कटकु अपारा । चतुरंगिनी अनी बहु धारा ॥

बिबिध भाँति बाहन रथ जाना । बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥

चले मत्त गज जूथ घनेरे । प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥

बरन बरद बिरदैत निकाया । समर सूर जानहिं बहु माया ॥

अति बिचित्र बाहिनी बिराजी । बीर बसंत सेन जनु साजी ॥

चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं । छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ॥

उठी रेनु रबि गयउ छपाई । मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥

पनव निसान घोर रव बाजहिं । प्रलय समय के घन जनु गाजहिं ॥

भेरि नफीरि बाज सहनाई । मारू राग सुभट सुखदाई ॥

केहरि नाद बीर सब करहीं । निज निज बल पौरुष उच्चरहीं ॥

कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा । मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥

हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई । अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई ॥

यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई । धाए करि रघुबीर दोहाई ॥

छंद

धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते ।

मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते ॥

नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं ।

जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं ॥

दोहा

दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि ।

भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥७९॥

चौपाला

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा । देखि बिभीषन भयउ अधीरा ॥

अधिक प्रीति मन भा संदेहा । बंदि चरन कह सहित सनेहा ॥

नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना । केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥

सुनहु सखा कह कृपानिधाना । जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ॥

सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥

बल बिबेक दम परहित घोरे । छमा कृपा समता रजु जोरे ॥

ईस भजनु सारथी सुजाना । बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥

अमल अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ॥

दोहा

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर ।

जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥८०क॥

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज ।

एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज ॥८०ख॥

उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान ।

लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥८०ग॥

चौपाला

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना । देखत रन नभ चढ़े बिमाना ॥

हमहू उमा रहे तेहि संगा । देखत राम चरित रन रंगा ॥

सुभट समर रस दुहु दिसि माते । कपि जयसील राम बल ताते ॥

एक एक सन भिरहिं पचारहिं । एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं ॥

मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं । सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं ॥

उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं । गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं ॥

निसिचर भट महि गाड़हि भालू । ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥

बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे । देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥

छंद

क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं ।

मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं ॥

मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं ।

चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं ॥

धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं ।

प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं ॥

धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही ।

जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥

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Last Updated : February 28, 2011

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