अरण्यकाण्ड - दोहा ११ से २०

गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम ।

मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥११॥

चौपाला

एवमस्तु करि रमानिवासा । हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥

बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ । भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥

अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं । तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई । लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥

पंथ कहत निज भगति अनूपा । मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥

तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ । करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥

नाथ कौसलाधीस कुमारा । आए मिलन जगत आधारा ॥

राम अनुज समेत बैदेही । निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए । हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥

मुनि पद कमल परे द्वौ भाई । रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी । आसन बर बैठारे आनी ॥

पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा । मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥

जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा । हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥

दोहा

मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर ।

सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥१२ ॥

चौपाला

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं । तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥

तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ । ताते तात न कहि समुझायउँ ॥

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही । जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥

मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी । पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥

तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी । जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥

ऊमरि तरु बिसाल तव माया । फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥

जीव चराचर जंतु समाना । भीतर बसहि न जानहिं आना ॥

ते फल भच्छक कठिन कराला । तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं । पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥

यह बर मागउँ कृपानिकेता । बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥

अबिरल भगति बिरति सतसंगा । चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥

जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता । अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥

अस तव रूप बखानउँ जानउँ । फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥

संतत दासन्ह देहु बड़ाई । तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥

है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ । पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥

दंडक बन पुनीत प्रभु करहू । उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥

बास करहु तहँ रघुकुल राया । कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥

चले राम मुनि आयसु पाई । तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥

दोहा

गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥

गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥१३॥

चौपाला

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा । सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥

गिरि बन नदीं ताल छबि छाए । दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥

खग मृग बृंद अनंदित रहहीं । मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥

सो बन बरनि न सक अहिराजा । जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥

एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छलहीना ॥

सुर नर मुनि सचराचर साईं । मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा । सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥

कहहु ग्यान बिराग अरु माया । कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥

दोहा

ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥१४॥

चौपाला

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ॥

मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ॥

एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माही ॥

कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥

दोहा

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।

बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥१५॥

चौपाला

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥

जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ॥

सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥

भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥

भगति कि साधन कहउँ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥

श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं । मम लीला रति अति मन माहीं ॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥

गुरु पितु मातु बंधु पति देवा । सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥

मम गुन गावत पुलक सरीरा । गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥

काम आदि मद दंभ न जाकें । तात निरंतर बस मैं ताकें ॥

दोहा

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥

तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥१६ ॥

चौपाला

भगति जोग सुनि अति सुख पावा । लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥

एहि बिधि गए कछुक दिन बीती । कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥

सूपनखा रावन कै बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥

पंचबटी सो गइ एक बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥

भ्राता पिता पुत्र उरगारी । पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥

होइ बिकल सक मनहि न रोकी । जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥

रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई । बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥

तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी । यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं । देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥

ताते अब लगि रहिउँ कुमारी । मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता । अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥

गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी । प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा । पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा । जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥

सेवक सुख चह मान भिखारी । ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥

लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥

पुनि फिरि राम निकट सो आई । प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥

लछिमन कहा तोहि सो बरई । जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥

तब खिसिआनि राम पहिं गई । रूप भयंकर प्रगटत भई ॥

सीतहि सभय देखि रघुराई । कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥

दोहा

लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।

ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥१७ ॥

चौपाला

नाक कान बिनु भइ बिकरारा । जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥

खर दूषन पहिं गइ बिलपाता । धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥

तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई । जातुधान सुनि सेन बनाई ॥

धाए निसिचर निकर बरूथा । जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥

नाना बाहन नानाकारा । नानायुध धर घोर अपारा ॥

सुपनखा आगें करि लीनी । असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥

असगुन अमित होहिं भयकारी । गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥

गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं । देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥

कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई । धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥

धूरि पूरि नभ मंडल रहा । राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥

लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर । आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥

रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी । चले सहित श्री सर धनु पानी ॥

देखि राम रिपुदल चलि आवा । बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥

छंद

कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।

मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥

कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥

चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥

सोरठा

आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।

जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥१८ ॥

चौपाला

प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी । थकित भई रजनीचर धारी ॥

सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥

नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हते हम केते ॥

हम भरि जन्म सुनहु सब भाई । देखी नहिं असि सुंदरताई ॥

जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥

देहु तुरत निज नारि दुराई । जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥

मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु । तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥

दूतन्ह कहा राम सन जाई । सुनत राम बोले मुसकाई ॥

हम छत्री मृगया बन करहीं । तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥

रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सन लरहीं ॥

जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक । मुनि पालक खल सालक बालक ॥

जौं न होइ बल घर फिरि जाहू । समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥

रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई ॥

दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ । सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥

छं -उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।

सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥

प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।

भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥

दोहा

सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।

लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥१९ -क ॥

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।

तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥१९ -ख ॥

छंद

तब चले जान बबान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥

कोपेउ समर श्रीराम । चले बिसिख निसित निकाम ॥

अवलोकि खरतर तीर । मुरि चले निसिचर बीर ॥

भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ । जो भागि रन ते जाइ ॥

तेहि बधब हम निज पानि । फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥

आयुध अनेक प्रकार । सनमुख ते करहिं प्रहार ॥

रिपु परम कोपे जानि । प्रभु धनुष सर संधानि ॥

छाँड़े बिपुल नाराच । लगे कटन बिकट पिसाच ॥

उर सीस भुज कर चरन । जहँ तहँ लगे महि परन ॥

चिक्करत लागत बान । धर परत कुधर समान ॥

भट कटत तन सत खंड । पुनि उठत करि पाषंड ॥

नभ उड़त बहु भुज मुंड । बिनु मौलि धावत रुंड ॥

खग कंक काक सृगाल । कटकटहिं कठिन कराल ॥

छंद

कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।

बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥

रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।

जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥

अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥

संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥

मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।

अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥

सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।

करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥

प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।

दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥

महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।

सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥

सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो ।

देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥

दोहा

राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।

करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥२० -क ॥

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।

अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥२० -ख ॥

चौपाला

जब रघुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥

तब लछिमन सीतहि लै आए । प्रभु पद परत हरषि उर लाए ।

सीता चितव स्याम मृदु गाता । परम प्रेम लोचन न अघाता ॥

पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक । करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥

धुआँ देखि खरदूषन केरा । जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥

बोलि बचन क्रोध करि भारी । देस कोस कै सुरति बिसारी ॥

करसि पान सोवसि दिनु राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ । श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥

संग ते जती कुमंत्र ते राजा । मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी । नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥

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Last Updated : February 27, 2011

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