नित्यकर्म - कर्म १

भगवान शिव ने लंकापती रावण को जो तंत्रज्ञान दिया , उसमेंसे ये साधनाएं शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है ।


नित्यकर्म की संक्षिप्त विधि

प्रत्येक तंत्र - साधक को अपने जीवन - यापन में ही नहीं , अपितु दैनिक दिनचर्या में भी कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है । वैसे भी जो व्यक्ति जिस मार्ग का अनुसरण करता है , उसे उस मार्ग में सफलतापूर्वक चलकर लक्ष्य तक पहुंचने के सभी नियमों को जान लेना तथा उनका पूरी तरह से पालन करना चाहिए । तंत्र - साधक को तंत्रादि प्रयोग में सफलता प्राप्त करने के लिए स्नान - संध्याशील होना अत्यावश्यक है ।

 

प्रातः कृत्य

सूर्योदय से प्रायः दो घण्टे पूर्व ब्रह्म - मुहूर्त्त होता है । इस समय सोना ( निद्रालीन होना ) सर्वथा निषिद्ध है । इस कारण ब्रह्म - मुहूर्त्त में उठकर निम्न मंत्र को बोलते हुए अपने हाथों ( हथेलियों ) को देखना चाहिए ।

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती ।

करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर - दर्शनम् ॥

हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी , मध्य में सरस्वती और मूल में ब्रह्मा स्थित हैं ( ऐसा शास्त्रों में कहा गया है ) । इसलिए प्रातः उठते ही हाथों का दर्शन करना चाहिए । उसके पश्चात् नीचे लिखी प्रार्थना को बोलकर भूमि पर पैर रखें ।

समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले ।

विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥

हे विष्णु पत्नी ! हे समुद्ररुपी वस्त्रों को धारण करने वाली तथा पर्वतरुप स्तनों से युक्त पृथ्वी देवी ! तुम्हें नमस्कार है , तुम मेरे पादस्पर्श को क्षमा करो ।

इस कृत्य के पश्चात् मुख को धोएं , कुल्ला करें और फिर प्रातः स्मरण तथा भजन आदि करके श्री गणेश , लक्ष्मी , सूर्य , तुलसी , गाय , गुरु , माता , पिता , इष्टदेव एवं ( घर के ) वृद्धों को सादर प्रणाम करें ।

 

प्रातः स्मरण

उमा उषा च वैदेही रमा गंगेति पंचकम् ।

प्रातरेव स्मरेन्नित्यं सौभाग्यं वर्द्धते सदा ॥

सर्वमंगल मांगल्ये ! शिवे ! सर्वार्थसाधिके ।

शरण्ये ! त्र्यंबक ! गौरि नारायणि ! नमोऽस्तुते ॥

हे जिह्वेरससराज्ञे ! सर्वदा मधुरप्रिये ! ।

नारायणाख्यपीयूषं पिब जिह्वे ! निरंतरम् ॥

शौच - विधि

यज्ञोपवीत को कंठी कर दाएं कर्ण में लपेटकर वस्त्र या आधी धोती से सिर ढांप लें । वस्त्राभाव में जनेऊ को सिर के ऊपर से लेकर बाएं कर्ण से पीछे करें । जल के पात्र को बाएं रख , दिन में उत्तर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख कर निम्नलिखित मंत्र बोलकर एवं मौनता बनाए रखकर मल - मूत्र का त्याग करें -

गच्छंतु ऋषयो देवाः पिशाचा ये च गुह्यकाः ।

पितृभूतगणाः सर्वे करिष्ये मलमोचनम् ॥

पात्र से जल लें , बाएं हाथ से गुदा धोकर लिंग में एक बार , गुदा में तीन बार मिट्टी लगाकर जल से शुद्ध करें । बाएं हाथ को अलग रखते हुए दाएं हाथ से लांग टांगकर उसी हाथ में पात्र लें । मिट्टी के तीन हिस्से करें । पहले से बायां हाथ दस बार , दूसरे ( हिस्से ) से दोनों हाथ सात बार और तीसरे से पात्र को तीन बार शुद्ध करें ।

उसी पात्र से बारह से सोलह बार कुल्ले करें । अब दोनों पैरों को ( पहले बायां और फिर दायां ) तीन - तीन बार धोकर बची हुई मिट्टी धो दें । सूर्योदय से पूर्व एवं पश्चात् उत्तर की ओर मुख कर बारह बार कुल्ला करें ।

दिन से रात्रि में आधी , यात्रा में चौथाई तथा आतुरकाल में यथाशक्ति शुद्धि करनी आवश्यक है । मल - त्याग के पश्चात् बारह बार , मूत्र - त्याग के बाद चार बार तथा भोजनोपरांत सोलह बार कुल्ला करें ।

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Last Updated : December 26, 2010

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