प्रारंभिकावस्था - आरंभ

भगवान शिव ने लंकापती रावण को जो तंत्रज्ञान दिया , उसमेंसे ये साधनाएं शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है ।


एक बार ब्रह्माजी ने भगवान शिव से प्रार्थनापूर्वक निवेदन किया , '' हे प्रभो ! आपने भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले तंत्रशास्त्रों का कथन किया है , जिसे जानकर देव , नर और दानव सिद्ध बन जाएंगे , तो फिर वे प्रभु का स्मरण कैसे करेंगे ? मैं ब्रह्मा भी सृष्टि के कार्य से मुक्त हो जाऊंगा । फिर मेरा कार्य भी क्या रहेगा ? '' इस प्रकार निवेदन करके वे ब्रह्मलोक चले गए ।

तब भगवान शिव मंदार पर्वत पर गए और वहां नंदिकेश्वर को बुलाकर उन्हें द्वार पर रक्षा के लिए बैठाया तथा वहां अने ऋषि - मुनियों को बुलाकर उनके साथ दैत्यों को मोहित करने के लिए विविध शास्त्रों का कथन किया । उन शास्त्रों का चिंतन करने से महर्षि गौतम अक्षपाद बन गए और उन्होंने आकर शिव से पुनः तंत्रो के पृथक् प्रकारों का ज्ञान प्राप्त किया । शिव ने ही विष्णु एवं कृष्ण तंत्र का कथन किया , जिसे नारदजी से अध्ययन करके मुनि ने सिद्धि प्राप्त की ।

तंत्रों की रचना प्रारंभ में भगवान शिव ने ही की और उसके पश्चात् ऋषि , मुनि तथा सिद्ध पुरुषों ने अपने परम पुरुषार्थ द्वारा कठोर तप और साधनाओं के बल पर जो भी प्राप्त किया , उसे भिन्न - भिन्न तंत्र ग्रंथों के रुप में निर्मित करके व्यापक रुप दिया ।

तंत्र ने एक ओर मानव को परलोक सुधारने के उत्तमोत्तम आध्यात्मिक साधना के मार्गों का दर्शन कराया और दूसरी ओर उसके सांसारिक संकटों से मुक्त होकर , अभिलाषाओं की पूर्ति ले साधन भी प्रस्तुत किए । तंत्र के प्रकारों में वे सभी प्रकार आ गए , जिनमें शास्त्रीय पद्धतियां हैं , अनुभव के आधार हैं , कर्त्तव्यों का निर्देश है , भक्ति , उपासना , सेवा - सुश्रूषा , परोपकार , दया , दान , क्षमा , अहिंसा , अस्तेय , अपरिग्रह आदि की प्रेरणाएं हैं तथा छोटी - छोटी और बड़ी - बड़ी क्रियाएं हैं , जिनके विधिपूर्वक प्रयोग से एक प्रकार की अपूर्व शक्ति , साहस , शौर्य की धारा बहने लगती है ।

प्राकृतिक वनस्पतियों के वैज्ञानिक रहस्यों का सूक्ष्म ज्ञान , उनके सहयोग से मिलने वाली अनुभूतियों और उपलब्धियों का अपूर्व संग्रह जितना तंत्रग्रंथों में संगृहीत है , वह किसी विश्वकोश से कम नहीं है । युगों की सुदीर्घ एवं वर्षो के अनवरत परीक्षणों के परिश्रम का परिणाम तंत्रों की परिधि में संकलित है । तंत्रों के रचनाकाल में ईश्वर , धर्म , दर्शन , उपासना , आयुर्वेद , ज्योतिष , योग आदि विषयों का प्रवाह पर्याप्त प्रगति पर था , इसलिए इन विषयों को ही प्रधानता देकर सर्वसाधारण के कल्याण का पथ इनमें प्रशस्त किया गया है ।

हमारी आस्तिक परंपरा में देव - देवियां , यक्ष , गंधर्व , सिद्ध , किन्नर , साधु , संत , महात्मा और महापुरुष सदा पूज्य और आराध्य रहे हैं । इस दृष्टि से तंत्रों में इन देव आदि की उपासना वर्णित है । इन्हें प्रसन्न करने की विधियां वर्णित हैं और उनके साधनों का निदर्शन भी इनके द्वारा हुआ है । श्रेष्ठ तंत्रों में प्रारंभ से लेकर मुख्य लक्ष्य तक पहुंचने की प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है ।

तंत्रशास्त्र एक समन्वयवादी शास्त्र है । इससे हमारे परिसर की अत्यंत सूक्ष्म और बहुत विशाल वस्तु के महत्त्व का सम्मान किया गया है तथा उसकी उपयोगिता को पहचाना गया है एवं उसके माध्यम से मानव - मात्र के हितों के निमित्त साध्योंविधानों की व्यवस्था भी दी गई है । वैदिक वाड्मय में वनस्पति को देवता के रुप में प्रस्तुत करते हुए उसके गुणों का आख्यान किया गया है ।

पुराणों में वनस्पतियों की उत्पत्ति के अत्यंत रोचक कथानक प्रस्तुत हुए हैं और उनके देवत्व अथवा देवांशत्व की पुष्टि करके गुण - धर्मो का विवेचन ही नहीं किया है , अपितु उनके द्वारा मिलने वाले लाभों को भी विधिपूर्वक बतलाया गया है । मानव ने इसीलिए अपने दैनिक उपयोगी साधनों में वनस्पति को चिर - स्थिर बनाया ।

ऐसी अनेक वृक्षावलियां , लताएं , पौधे , कंद एवं मूल आदि हैं , जिन्हें हमने छोटे - छोटे कार्यों में प्रयुक्त करके नष्ट कर दिया है , अथवा हमारे अज्ञान के कारण वन - संपदा के वे अनमोल रत्न अनजाने में उपेक्षित हो गए हैं । तंत्रागम की ग्रंथसंपत्ति का जो भांडार हमारे यहां सुरक्षित है , उसमें विविध प्रसंगों के विविध रुप में स्मरण हैं , निर्देश हैं , प्रक्रियाओं के सटीक निदर्शन हैं , जिन्हें पहचानने - समझने और प्रयोग में लाने की बहुत आवश्यकता है ।

प्रकृति हमें मुक्त - हस्त से उत्तमोत्तम वनस्पतियों को प्रदान करती आ रही है , उनके सूक्ष्म तत्त्वों की पहचान न होने के कारण हम उनका वास्तविक लाभ उठने में असमर्थ रहे हैं । अतः इस ओर ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है । आयुर्वेद में वनस्पतियों के गुण , धर्म एवं कार्यकारिता का जो वर्णन हैं , वो भी तंत्र का ही अंग है । प्राचीन आयुर्वेद के ग्रंथों में बहुत से स्थानों पर उपचार - विधियाँ के साथ - साथ मंत्र - जप आदि के भी निर्देश मिलते हैं ।

वनस्पतियों के स्वतंत्र एवं मिश्रित दोनों ही प्रकारों के उपचारों से जो चमत्कारी लाभ होते हैं , वे सभी जानते हैं । जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु में न्यूनता और अधिकता के कारण तर - तमसा रहती है , उसी प्रकार इन वनस्पतियों में भी गुण - धर्मों के आधार पर आमान्यता और उच्चता विद्यमान है । हमारे धर्म - शास्त्रों और पुराणों में कतिपय वृक्षों को साक्षात् देवस्वरुप बतलाकर उनकी पूजा - परिक्रमा के विधान दिए हैं । दूर्वा , तुलसी और कदली के पौधों की महत्ता प्रत्येक भारतीय के हदय में चिरकाल से सुस्थिर है ।

वट , पिप्पल , आंवला आदि के वृक्षों की व्रत - पर्वों के अवसर पर की जाने वाली पूजाएं उनकी महत्ता फलप्रदाता , कल्याणकरिता आदि की प्रतीक तो हैं ही , साथ ही उनकी वैज्ञानिक शक्तिमत्ता भी बहुधा प्रतिपादित है ।

तंत्र - साधक को चाहिए कि वो तांत्रिक प्रयोगों की पूरी जानकारी प्राप्त किए बिना कभी कोई प्रयोग न करे । तंत्र - मंत्र के प्रयोगों में मनमानी का प्रयोग पूर्णतया निषिद्ध है । जितनी सावधानी से आप प्रयोग के साथ प्रक्रिया करेंगे , उतना ही शीघ्र लाभ होगा । हमारे तंत्रशास्त्रों में वनस्पति के ऐसे अनेक प्रयोग मिलते हैं , जितनी सत्यता प्रयोग के साथ ही प्रत्यक्ष हो जाती है । शास्त्रकारों का आदेश है कि युक्तौ सिद्धिः प्रतिष्ठिता अर्थात् सिद्धि युक्ति में प्रतिभा , ज्ञान , गुरुकृपा तथा इष्टकृपा के बिना प्राप्त नहीं होती ।

औषधियों , धातुओं और अन्य पदार्थों को तंत्र - साधना में प्रयुक्त करने से पूर्व उन्हें विधिवत् मंत्र द्वारा अभिषिक्त कर लेना चाहिए । अपवादस्वरुप कुछ ऐसे प्रयोग भी मिलते हैं , जिनमें मंत्रप्रयोग की अनिवार्यता नहीं है अथवा नाममात्र ही है । फिर भी यह ध्रुवसत्य है कि मंत्र का प्रयोग तंत्रोक्त पदार्थों के गुणों की वृद्धि कर देता है । आस्थावान साधक यदि विधिवत् मंत्र संयुक्त कोई तांत्रिक प्रयोग करेंगे तो उसमें अवश्य ही सफल रहेंगे ।

तंत्र - साधना में अनेक प्रकार की वस्तुएं प्रयुक्त होती हैं । वे सभी ग्राह्य हों , ऐसा कदापि नहीं है । जिस प्रकार उन्हें प्राप्त करने में काल - विचार आवश्यक है , ठीक उसी प्रकार स्थान आदि का निर्देश और निषेध भी किया गया है । स्वच्छ , एकांत और जीवंत वातावरण में उत्पन्न वनस्पतियां अधिक उपयोगी और प्रभावशाली होती हैं , जबकि राह - घाट में नित्यप्रति कुचली और चरी जाने वाली अथवा अशुभ - स्थानों में उत्पन्न वनस्पति में एक प्रकार का अदृश्य प्रदूषण व्याप्त रहता है ।

इसलिए तांत्रिक प्रयोगों के लिए जो भी वस्तु या वनस्पति ली जाए , उसकी संरचना , सर्वांगता , उत्पत्ति - स्थल , आयु और वातावरण का विचार अवश्य कर लेना चाहिए । त्याज्य - पदार्थो के निमित्त इस प्रकार द्वारा वर्जना की गई है -

तंत्र - साधना में प्रयोग के निमित्त कोई भी वनस्पति , जड़ी - बूटी , फल , पुष्प , पत्र अथवा शिखा सड़ी - गली , घुन या कीड़ों द्वारा खाई हुई , ऋतु - विरुद्ध उत्पन्न , अग्नि में जली हुई , किसी प्राकृतिक - प्रकोप के कारण छिन्न , रुग्ण अथवा सत्त्वहीन होने पर त्याज्य हो जाती है । उसका उपयोग लाभकर नहीं होता और साधना का श्रम व्यर्थ चला जाता है ।

जीव - जंतुओं के आवास ( बिल - बांबी ) पर उत्पन्न , आवागमन के मार्ग में स्थित वृक्षों के नीचे उगने वाली घास या वनस्पति निंदनीय होती है , अतः उसका उपयोग करना वर्जित है ।

मंदिर अथवा श्मशान - भूमि में स्थित वृक्षों का कोई भी अंश नहीं लेना चाहिए । अपवाद की स्थिति अलग है , वो भी तब , जबकि उसके संबंध में स्पष्ट स्वतंत्रता और निर्देश उपलब्ध हो ।

साधना हेतु दूसरे की माला अथवा आसन का प्रयोग वर्जित है ।

शंख , पूजन - पात्र , प्रतिमा , चित्र , यंत्र आदि खंडित नहीं होने चाहिए । ऐसी वस्तुएं गंगा या अन्य किसी नदी में आदरपूर्वक विसर्जित कर देनी चाहिए ।

माला ( वह किसी भी प्रकार के मनकों से निर्मित हो ) की मणियांआकार में समान , पुष्ट , संपूर्ण और विधिवत् शुद्ध की हुई होनी चाहिए । कटे - फटे , टूटे - दरके , आकार में विषम , टेढ़े - मेढ़े , विरुप नकली और आभारहित दाने त्याज्य होते हैं ।

भले ही कठिनाई से मिले या असुविधाजनक हो , किन्तु तंत्र - साधना में निर्दिष्ट वस्तु ही प्रयुक्त होती है । उसके पूरक रुप में , आधुनिक सभ्यता की कोई भी वस्तु प्रयुक्त न की जानी चाहिए ।

किसी विशेष प्रयोग में निर्दिष्ट होने पर भी श्मशान , रक्त , हड्डी , मांस और मदिरा आदि का उपयोग किया जा सकता है , अन्यथा ये सब अपवित्र और त्याज्य मानी गई हैं ।

व्यक्तिगत स्वार्थ के निमित्त अथवा ईर्ष्या - द्वेष की तृप्ति के लिए अभिचारकर्म करना निंदनीय है । आगे चलकर इनका दुष्परिणाम साधक को भोगना पड़ता है । मूलतः ऐसे अभिचार तंत्रों की सर्जना आत्मरक्षा के लिए अथवा लोक - कल्याण के लिए की गई थी , कारण कि उस समय विदेशी - आक्रमण प्रायः होते रहते थे । क्षुद्र - लाभ के लिए अपने ही सामाजिक जीवन में मारण , विद्वेषण एवं उच्चाटन जैसे कृत्य नहीं करने चाहिए ।

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Last Updated : December 23, 2010

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