गौवत्स द्वादशी - व्रत-कथा

दीपावली के पाँचो दिन की जानेवाली साधनाएँ तथा पूजाविधि कम प्रयास में अधिक फल देने वाली होती होती है और प्रयोगों मे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है ।  


सतयुग की बात है, महर्षि भृगु के आश्रम में भगवान् शंकर के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेक मुनि तपस्या कर रहे थे । एक दिन शिव, पार्वती और कार्तिकेय स्वयं उन मुनियों को दर्शन देने के लिए क्रमशः बूढ़े ब्राह्मण, गाय एवं बछड़े के रूप में उस आश्रम में आए । बूढ़े ब्राह्मण का वेश धरे भगवान् शिव ने महर्षि भृगु को कहा कि ‘हे मुनि! मैं यहॉं स्नान करके जम्बूक्षेत्र में जाऊँगा और दो दिन बाद लौटूँगा, तब तक आप इस गाय और बछड़े की रक्षा करना।’ भृगु सहित अन्य मुनियों से जब गाय और बछड़े की रक्षा का आश्वासन मिल गया तो भगवान् शिव वहॉं से चल दिए । थोड़ी दूर चलकर उन्होंने बाघ का रूप रख लिया और पुनः आश्रम आ गए और गाय तथा बछड़े को डराने लगे । ऋषिगण भी बाघ को देखकर डरने लगे, किन्तु वे गाय एवं बछड़े की रक्षा के प्रयास भी कर रहे थे, अन्त में उन्होंनें ब्रह्मा से प्राप्त भयंकर आवाज करने वाले घंटे को बजाना आरंभ किया । घंटे की आवाज सुनकर बाघ अदृश्य हो गया और भगवान् शिव अपने सही रूप में प्रकट हो गए । पार्वती जी तथा कार्तिकेयजी भी अपने सही रूप में प्रकट हो गए । ऋृषियों ने उनकी पूजा की । चूँकि उस दिन कार्तिक मास की द्वादशी थी, इसलिए यह व्रत गौवत्स द्वादशी के रूप में आरंभ हुआ ।
उक्त प्रक्रिया के उपरान्त ही व्रत खोलना चाहिए ।

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Last Updated : November 01, 2010

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