शिवानन्दलहरी - श्लोक १ ते ५

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


कलाभ्यां चूडालंकृतशशिकलाभ्यां निजतप :-

फलाभ्यां भक्तेषू प्रकटितफलाभ्यां भवतु मे ।

शिवाभ्यामस्तोकत्रिभुवनशिवाभ्यां ह्रदि पुन -

र्भवाभ्यामानन्दस्फुरदनुभवाभ्यां नतिरियम् ॥१॥

गलन्ती शंभो त्वच्चरितसरित : किल्बिषरजो

दलन्ती धीकुल्यासरणिषु पतन्तो विजयताम् ।

दिशन्ती संसारभ्रमणपरितापोपशमनं

वसन्ती मच्चेतोह्रदिभुवि शिवानन्दलहरी ॥२॥

त्रयीवेद्यं ह्रद्यं त्रिपुरहरमाद्यं त्रिनयनं

जटाभारोदारं चलदुरगहारं मृगधरम् ।

महादेवं देवं मयि सदयभावं पशुपतिं

चिदालम्बं सांम्बं शिवमतिविडम्बं ह्रदि भजे ॥३॥

सहस्त्रं वर्तन्ते जगति विबुधा : क्षुद्रफलदा

न मन्ये स्वप्ने वा तदनुसरणं तत्कृतफलम् ।

हरिब्रह्यादीनामपि निकटभाजामसुलभं

चिरं याचे शंभो शिव तब पदाम्भोजभजनम् ॥४॥

स्मृतौ शास्त्रे वैद्ये शकुनकवितागानफणितौ

पुराणे मन्त्रे वा स्तुतिनटनहास्येष्वचतुर : ।

कथं राज्ञां प्रीतिर्भवति मयि कोऽहं पशुपते

पशुं मां सर्वज्ञ प्रथितकृपया पालय विभो ॥५॥

मैं पार्वती -परमेश्वर दोनों को नमन करता हूँ । शिव -शिवा , अर्धनारीश्वर , प्रकृति -पुरुष (माया -ब्रह्य ) के समान , संयुक्त हैं । सारी कलाएँ उन्हीं से प्रकट होती हैं । उनके केश शशिकला से अलड् .कृत हैं । अपने -अपने तप के फलस्वरुप दोनों ने एक -दुसरे को प्राप्त किया हैं । वे भक्तों को कृपा -प्रसाद प्रदान करते हैं । तीनों लोकों के लिये वे सम्पूर्णरुप से माड्र .लिक हैं । ध्यान की उन्नति के साथ -साथ वे ह्रदय में बार -बार प्रकट होते हैं । उनके अनुभव के फलस्वरुप आनन्द की स्फूर्ति होती है । ॥१॥

हे प्रभो शिवशंकर । आपकी लीला -कथा रुपी सरिता से निकली शुभ आनन्द की उत्ताल तरंगो की जय हो । आपके चरित्रों की कथा -सरिता पापों की संचित धूल को दुर करती है । यह सरिता चित्तवृत्तियों के मार्ग से प्रविष्ट होकर मेरे ह्रदय रुपी सरोवर में पहुँचती है , और संसार में आवागमन रुपी मनस्ताप को शीतल करती है । ॥२॥

जो वेदत्रयी (ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद ) द्वारा जाने जा सकते हैं , ह्रदय को दिव्य बनाते हैं , त्रिपुरारि (आत्मा को आच्छादित करने वाले कारण , सूक्ष्म , और स्थूल शरीरों को हटाने वाले ) हैं , जिनके सूर्य , चन्द्र और अग्नि तीन नेत्र हैं , जो जटाजूट से अलंकृत हैं , चच्चल सर्पो से सुशोभित हैं , मुझ पर दयाभाव रखनेवाले पशुपति हैं , चित्स्वरुप हैं , और जो माया के अनेक रुप धारण करते हैं , उन भगवान् शिव का मैं ह्रदय में चिन्तन करता हूँ । ॥३॥

हे शिवशम्भो ! संसार में अल्प फलदाता हजारों देवता हैं । मैं स्वप्न में भी न तो उनको मान्यता दूँगा , न उनकी सेवा करुँगा , और न उनकी कृपा के लाभ को स्वीकार करुँगा। आपके चरण -कमलों का भजन ही , जो आपके अत्यंत प्रिय ब्रह्या -विष्णु आदि के लिये भी दुर्लभ हैं , मेरा सर्वस्व है । मैं तो सदा उसी की याचना करता रहूँगा । ॥४॥

मैं न स्मृतियों का ज्ञाता हूँ , न शास्त्रों , वैद्यक , शकुन -विचार , काव्य , छन्दशास्त्र , गान , प्राचीन कथाओं अथवा मन्त्रविज्ञान में निपुण हूँ । मैं राजाओं को कैसे प्रसन्न कर सकता हूँ ? मुझमें कौनसी विशेषता हैं ? हे भगवान् पशुपति ! हे सर्वज्ञ ! हे सर्वव्यापी प्रभु ! मुझ पशुकी , माया में बँधे प्राणी की , अपनी सर्वविदित उदार कृपा से रक्षा कीजिये । ॥५॥


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Last Updated : November 11, 2016

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