नवमस्कन्धपरिच्छेदः - त्रयस्त्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


वैवस्वताख्यमनुपुत्रनभागजात -

नाभागनामकनरेन्द्रसुतोऽम्बरीषः ।

सप्तार्णवावृतमहीदयितोऽपि रेमे

त्वत्सङ्गिषु त्वयि च मग्नमनाः सदैव ॥१॥

त्वत्प्रीतये सकलमेव वितन्वतोऽस्य

भक्त्यैव देव न चिरादभृथाः प्रसादम् ।

येनास्य याचनमृतेऽप्यभिरक्षणार्थं

चक्रं भवान् प्रविततार सहस्रधारम् ॥२॥

स द्वादशीव्रतमथो भवदर्चनार्थं

वर्षं दधौ मधुवने यमुनोपकण्ठे ।

पत्न्या समं समुनसा महतीं वितन्वन्

पूजां द्विजेषु विसृजन् पशुषष्टिकोटिम् ॥३॥

तन्नाथ पारणदिने भवदर्चनान्ते

दुर्वाससास्य मुनिना भवनं प्रपेदे ।

भोक्तुं वृतश्र्च स नृपेण परार्तिशीलो

मन्दं जगाम यमुनां नियमान् विधास्यन् ॥४॥

राज्ञाऽथ पारणमुहूर्तसमाप्तिखेदाद्

वारैव मुनिस्तदथ दिव्यदृशा विजानन्

क्षिप्यन्कु्रधोद्धृतजटो विततान कृत्याम् ॥५॥

कृत्यां च मातसिधरां भुवनं दहन्ती -

मग्रेऽभिवीक्ष्य नृपतिर्न पदाच्चकम्पे ।

त्वद्भक्तबाधमभिवीक्ष्य सुदर्शनं ते

कृत्यानलं शलभयन् मुनिमन्वधावीत् ॥६॥

धावन्नशेषभुवनेषु भिया स पश्यन्

विश्र्वत्र चक्रमपि ते गतवान् विरिञ्चम् ।

कः कालचक्रमतिलङ्घयतीत्यपास्तः

शर्वं ययौ स च भवन्तमवन्दतैव ॥७॥

भूयो भवन्निलयमेत्य मुनिं नमन्तं

प्रोचे भवानहमृषे ननु भक्तदासः ।

ज्ञानं तपश्र्च विनयान्वितमेव मान्यं

याह्याम्बरीषपदमेव भजेति भूमन् ॥८॥

तावत्समेत्य मुनिना स गृहीतपादो

राजापसृत्य भवदस्त्रमसावतौषीत् ।

चक्रे गते मुनिरदादखिलाशिषोऽस्मै

त्वद्भक्तिमागसि कृतेऽपि कृपां च शंसन् ॥९॥

राजा प्रतीक्ष्य मुनिमेकसमामनाश्र्वान्

सम्भोज्य साधु तमृषिं विसृजन् प्रसन्नम् ।

भुक्त्वा स्वयं त्वयि ततोऽपि दृढं रतोऽभूत्

सायुज्यमाप च स मां पवनेश पायाः ॥१०॥

॥ इति अम्बरीषोपाख्यानं त्रयस्त्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

वैवस्वत मनुके पुत्र नभग हुए । नभगके पुत्र महाराज नाभाग हुए और नाभागके पुत्र अम्बरीष हुए , जो सात समुद्रोंसे घिरी हुई पृथ्वीके स्वामी अर्थात् सार्वभौम सम्राट् होकर भी सदैव आपमें तथा आपके भक्तोंमें सदा ही मन लगाये रहते थे ॥१॥

देव ! अम्बरीष सारा लौकिक -वैदिक कर्म आपकी प्रसन्नताके लिये ही करते थे । उनकी भक्तिसे ही अपने शीघ्र ही उनपर कृपा की । जिससे उनके याचना न करनेपर भी आपने उनकी रक्षाके लिये उन्हें अपने सहस्र -धारवाले सुदर्शन चक्रको दे दिया था ॥२॥

महाराज अम्बरीषने आपकी अर्चना करनेके लिये एक वर्षतक द्वादशीव्रत करनेका संकल्प किया । फिर तो वे यमुनाके तटपर स्थित मधुवनमें जाकर अपनी भक्तिमती पत्नीके साथ आपकी महती पूजामें लग गये । उस समय उन्होंने ब्राह्मणोंको साठ करोड़ गौएँ दान कीं ॥३॥

तत्पश्र्चात् आपकी आराधनाकी समाप्तिके अवसरपर पारणके दिन मुनिवर दुर्वासा राजाके महलमें पधारे । राजाने उन्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया । तब पर -पीड़ामें निरत रहनेवाले दुर्वासा अपनी नित्यक्रिया सम्पन्न करनेके लिये धीरेसे यमुना -तटपर गये ॥४॥

इधर पारणका मुहूर्त समाप्त हो रहा था , उसके लिये खेदके कारण आपकी उपासनामें तत्पर रहनेवाले महाराज अम्बरीषने जलसे ही पारण कर लिया । इसके बाद दुर्वासा मुनि वापस लौटे । उन्होंने दिव्यदृष्टिसे यह ज्ञात कर लिया कि राजाने पारण कर लिया है । तब तो वे क्रोधसे जल -भुन उठे और राजाको झिड़कते हुए उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे कृत्या उत्पन्न की ॥५॥

वह कृत्या हाथमें खड्ग लिये हुए त्रिलोकीको संतप्त कर रही थी । उसे अपने आगे उपस्थित देखकर राजा अपने स्थानसे विचलित नहीं हुए । तब आपके भक्तको संकटग्रस्त देखकर आपके सुदर्शनचक्रने उस कृत्याको आगमें पड़े हुए पतिंगेकी तरह भस्म करके मुनिका पीछा किया ॥६॥

मुनि दुर्वासा भयभीत होकर समस्त भुवनोंमे भागते फिरे , परंतु उन्हें सर्वत्र आपका चक्र पीछे लगा हुआ दिखायी पड़ा । तब वे रक्षार्थ ब्रह्माके पास गये । वहॉं ‘भला , इस कालचक्रका अतिक्रमण कौन कर सकता है ?’—यों कहकर निराश लौटाये जानेपर वे भगवान् शंकरकी शरणमें गये ; किंतु शिवजीने भी आपकी वन्दना ही की ॥७॥

भूमन् फिर , दुर्वासा वैकुण्ठमें पहुँचकर आपके चरणोंमें जा गिरे । उन्हें प्रणिपात करते देखकर आपने उनसे यों कहा ——‘ऋृषे ! मैं तो भक्तोंका ही दास हूँ । ज्ञान और तप विनययुक्त होनेपर ही आदरणीय होते हैं ; अतः आप जाइये , अम्बरीषकी ही शरण ग्रहण कीजिये ’ ॥८॥

ऐसा कहे जानेपर मुनिने अम्बरीषके पास जाकर उनके चरण पकड़ लिये । (चरणस्पर्शसे लज्जित होकर ) राज पीछे हट गये और आपके अस्त्र सुदर्शनचक्रकी स्तुति करने लगे । जब चक्र शानत होकर लौट गया , तब दुर्वासा मुनिने अपराध करनेपर भी अपने ऊपर जो अम्बरीषकी कृपा हुई , उसकी तथा उनकी भगवद्भक्तिकी प्रशंसा करते हुए उन्हें सब प्रकारका आशीर्वाद —— वर प्रदान किया ॥९॥

राजा अम्बरीष एक वर्षतक निराहार रहकर मुनिकी प्रतीक्षा करते रहे । आज उन्होंने महर्षि दुर्वासाको भलीभॉंति भोजन कराकर उन्हें प्रसन्न करके विदा किया । तत्पश्र्चात् स्वयं भोजन किया । तबसे वे आपमें पहलेसे भी अधिक निरत रहने लगे । अन्तमें उन्हें सायुज्य -मुक्तिकी प्राप्ति हुई । पवनेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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