अष्टमस्कन्धपरिच्छेदः - द्वात्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


पुरा हयग्रीवमहासुरेण षष्ठान्तरान्तोद्यदकाण्डकल्पे ।

निद्रोन्मुखब्रह्ममुखाद्धृतेषु वेदेष्वधित्सः किल मत्स्यरूपम् ॥१॥

सत्यव्रतस्य द्रमिलाधिभर्तुर्नदीजले तर्पयतस्तदानीम् ।

कराञ्चलौ संज्वलिताकृतिस्त्वमदृश्यथाः कश्र्चन बालमीनः ॥२॥

क्षिप्तं जले त्वां चकितं विलोक्य

निन्येऽम्बुपात्रेण मुनिः स्वगेहम् ।

स्वल्पैरहोभिः कलशीं च कूपं

वापीं सरश्र्चानशिषे विभो त्वम् ॥३॥

योगप्रभावाद्भवदाज्ञयैव नीतस्ततस्त्वं मुनिना पयोधिम् ।

पृष्टोऽमुना कल्पदिदृक्षुमेनं सप्ताहमास्स्वेति वदन्नयासीः ॥४॥

प्राप्ते त्वदुक्तेऽहनि वारिधारपरिप्लुते भूमितले मुनीन्द्रः ।

सप्तर्षिभि सार्द्धमपारवारिण्युद्घूर्णमानः शरणं ययौ त्वाम् ॥५॥

धरां त्वदादेशकरीमवाप्तां नौरूपिणीमारुरुहुस्तदा ते ।

तत्कम्पकम्प्रेषु च तेषु भूयस्त्वमम्बुधेराविरभूर्महीयान् ॥६॥

झषाकृतिं योजनलक्षीदीर्घां दधानमुच्चैस्तरतेजसं त्वाम् ।

निरीक्ष्य तुष्टा मुनयस्त्वदुक्त्या त्वत्तङ्गश़ृङ्गे तरणिं बबन्धुः ॥७॥

आकृष्टनौको मुनिमण्डलाय प्रदर्शयन् विश्र्वजगद्विभागान्।

संस्तूयमानों नृवरेण तेन ज्ञानं परं चोपदिशन्नचारीः ॥८॥

कल्पावधौ सप्त मुनीन् पुरोवत् प्रस्थाप्य सत्यव्रतभूतिपं तम् ।

वैवस्वताख्यं मनुमादधानः क्रोधाद्धयग्रीवमभिद्रुतोऽभूः ॥९॥

स्वतङ्गश़ृङ्गक्षतवक्षसं तं निपात्य दैत्यं निगमान् गृहीत्वा ।

विरिञ्चये प्रीतहृदे ददानः प्रभञ्चनागारपते प्रपायाः ॥१०॥

॥इति मत्स्यावतारवर्णनं द्वात्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

प्राचीन कालमें छठे चाक्षुषमन्वन्तरकी समाप्तिके समय अवान्तर प्रलयके अवसरपर जब ब्रह्माजी निद्रोन्मुख हो रहे थे , उस समय उनके मुखसे महासुर हयग्रीवने वेदोंको चुरा लिया । तब आपने (वेदोंका उद्धार करनेके लिये ) मत्स्य -रूप धारण करनेकी इच्छा की ॥१॥

उसी समय द्रविड़ देशके अधिपति महाराज सत्यव्रत कृतमाला नदीके जलमें तर्पण कर रहे थे , उनके हाथकी अञ्चलिमें आप एक चमकती हुई आकृतिवाली छोटी -सी मछलीकेरूपमें दिखायी पड़े ॥२॥

राजर्षि सत्यव्रतने आपको जलमें फेंक दिया , परंतु पुनः आपको चकित देखकर वे आपको जलपात्रमें रखकर अपने घर ले आये । विभो ! वहॉं आपने थोड़े ही दिनोंमें बढ़कर क्रमशः कलश , कूप , बावड़ी तथा सरोवरको अपने शरीरसे आच्छादित कर लिया ॥३॥

तदनन्तर राजर्षिने आपकी ही आज्ञासे अपने योगबलसे आपको समुद्रमें पहुँचाया । आपके पूछनेपर राजाने प्रलयार्णवके दर्शनकी इच्छा प्रकट की , तब उनसे ‘सात दिनतक प्रतीक्षा करो ’—यों कहकर आप अन्तर्धान हो गये ॥४॥

आपके द्वारा निर्धारित दिवसके प्राप्त होनेपर जब सारा पृथ्वीतल जल -धाराओंसे परिप्लुत हो गया , तब मुनिश्रेष्ठ सत्यव्रत सप्तर्षियोंके साथ उस प्रलय -समुद्रमें सम्भ्रान्त होकर आपकी शरणमें गये ॥५॥

तब आपकी आज्ञाका पालन करनेवाली पृथ्वी आपकी ही प्रेरणासे नौकाका रूप धारण करके वहॉं आ पहुँची । उसपर वे लोग चढ़ गये । पुनः नौकाके डगमगानेसे जब वे सभी भयभीत हो गये , तब महान् एैश्र्वर्यशाली आप उस जलराशिसे प्रकट हुए ॥६॥

उस समय आपने मत्स्य -मूर्ति धारण कर रखी थी , जो एक लाख योजन लंबी थी । उसका तेज अत्यन्त उत्कृष्ट था । उसे धारण किये आपको देखकर मुनिगण संतुष्ट हो गये और आपके कथनानुसार उन्होंने मस्त्यके ऊँचे सींगमे नावको बॉंध दिया ॥७॥

तब आप उस नावको खींचने लगे । उस समय नरश्रेष्ठ राजर्षि सत्यव्रत आपकी स्तुति कर रहे थे । तत्पश्र्चात् आप उस मुनिमण्डलको विश्र्वके विभिन्न भागोंको दिखाते हुए तथा परमज्ञान -ब्रह्मज्ञानका उपदेश देते हुए विचरण करने लगे ॥८॥

प्रलयकालकी अवधि समाप्त होनेपर आपने सप्तर्षियोंको पूर्ववत् प्रस्थापित करके भूपाल सत्यव्रतको वैवस्वत नामक मनु बना दिया । तत्पश्र्चात् क्रुद्ध होकर हयग्रीवका पीछा किया ॥९॥

तथा अपने ऊँचे सींगसे दैत्यकी छाती चीरकर उसे मार डाला और वेदोंको लेकर प्रसन्न -चित्तवाले ब्रह्माको प्रदान कर दिया । प्रभञ्चनागारपते ! मेरी भी सर्वथा रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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