सप्तमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चविंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


स्तम्भे घट्टयतो हिरण्यकशिपोः कर्णो समाचूर्णय -

न्नाघूर्णज्जगदण्डकुण्डकुहरो घोरस्तवाभूद्रवः ।

श्रुत्वा यं किल दैत्यराजहृदये पूर्वं कदाप्यश्रुतं

काम्पः कश्र्चन सम्पपात चलितोऽप्यम्भोजभूर्विष्टरात् ॥१॥

दैत्ये दिक्षु विसृष्टचक्षुषि महासंरम्भिणि स्तम्भतः

सम्भूतं न मृगात्मकं न मनुजाकारं वपुस्ते विभो ।

किं किं भीषणमेतदद्भुतमिति व्युद्भ्रान्तचित्तेऽसुरे

विस्फूर्जद्धवलोग्ररोमविकसद्वर्ष्मा समाजृम्भथाः ॥२॥

तप्तस्वर्णसवर्णघूर्णदतिरूक्षाक्षं सटाकेसर -

प्रोत्कम्पप्रनिकुम्बिताम्बरमहो जीयात्तवेदं वपुः ।

व्यात्तव्याप्तमहादरीसखमुखं खङ्गोग्रवल्गन्महा -

जिह्णानिर्गमदृश्यमानसुमहादंष्ट्रायुगोड्डोमरम् ॥३॥

उत्सर्पद्वलिभङ्गभीषणहनुं ह्रस्वस्थवीयस्तर -

ग्रीवं पीवरदोश्शतोद्रतनखक्रूरांशुदूरोल्बणम् ।

व्योमोल्लङ्घिघनाघनोपमघनप्रध्वाननिर्द्धावित -

स्पर्द्धालुप्रकरं नमामि भवतस्तन्नरासिंह वपुः ॥४॥

नूनं विष्णुरयं निहन्म्यमुमिति भ्राम्यद्गदाभीषणं

दैत्येन्द्रं समुपाद्रवन्तमधृथा दोर्भ्यां पृथुभ्याममुम् ।

वीरो निर्गलितोऽथ खङ्गफलकौ गृह्णन् विचित्रश्रमान्

व्यावृण्वन् पुनरापपात भुवनग्रासोद्यतं त्वामहो ॥५॥

भ्राम्यन्तं दितिजाधमं पुनरपि प्रोद्गृह्य दोर्भ्यां जवाद्

द्वोरऽथोरुयुगे निपात्य नखरान् व्युत्खाय वक्षो भूवि ।

निर्भिन्दन्नधिगर्भनिर्भरगलद्रक्ताम्बुबद्धोत्सवं

पायंपायमुदैरयो बहु जगत्संहारिसिंहारवान् ॥६॥

त्यक्त्वां तं हतमाशु रक्तलहरीसिक्तोन्नमद्वर्ष्मणि

प्रत्युत्पत्य समस्तदैत्यपटलीं चाखाद्यमाने त्वयि ।

भ्राम्यद्भूमिविकम्पिताम्बुधिकुलं व्यालोलशैलोत्करं

प्रोत्सर्पत्खचरं चराचरमहो दुःस्थामवस्थां दधौ ॥७॥

तावन्मांसवसाकरालवपुषं घोरान्त्रमालाधरं

त्वां मध्येसभमिद्धरोषमुषितं दुर्वारगुर्वारम् ।

अभ्येतुं न शशाक कोऽपि भुवने दूरे स्थिता भीरवः

सर्वे शर्वविरिञ्चवासवमुखाः प्रत्येकमस्तोषत ॥८॥

भूयोऽप्यक्षतरोषधाम्नि भवति ब्रह्माज्ञया बालके

प्रह्रादे पदयोर्नमत्यपभये कारुण्यभाराकुलः ।

शान्तस्त्वं करमस्यं मूर्ध्रि समधाः स्तोत्रैरथोद्रायत -

स्तस्याकामधियोऽपि तेनिथ वरं लोकाय चानुग्रहम् ॥९॥

एवं नाटितरौद्रचेष्टित विभो श्रीतापनीयाभिध -

श्रुत्यन्तस्फुटगीतसर्वमहिमन्नत्यन्तशुद्धाकृते ।

तत्तादृङ्निखिलोत्तरं पुनरहो कस्त्वां परो लङ्घयेत्

प्रह्रादप्रिय हे मरुत्पुरपते सर्वामयात्पाहि माम् ॥१०॥

॥ इति नरसिंहावतारवर्णनं पञ्चविंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

हिरण्यकशिपुके खंभेपर प्रहार करते ही आपका ऐसा भयंकर शब्द हुआ , जिसने उसके कानोंका पर्दा फाड़ दिया और जिससे ब्रह्माण्डकुण्डकुहर उद्भ्रान्त हो उठा । जिसे पहले कभी नहीं सुना था ऐसे भीषण शब्दको सुनकर दैत्यराजके हृदयमें एक अवर्णनीय कम्प होने लगा और कमलजन्मा ब्रह्मा अपने आसनसे विचलित हो उठे ॥१॥

विभो ! तब वह महाक्रोधी दैत्य भौंचक्का -सा होकर शरीर चारों दिशाओंकी आरे आँखें फाड़कर देखने लगा । उसी समय आपका शरीर खंभेसे बाहर निकल पड़ा , जो न मनुष्यके आकारमें था न पशुके ही अर्थात् नृसिंहरूपमें था । उसे देखकर ‘यह भयंकर तथा अद्भुत वस्तु क्या है ? क्या है ’—— यों हिरण्यकशिपुका चित्त विशेषरूपसे उद्भ्रान्त हो उठा । तब उज्जवलवर्णकी उग्र रोमावलियोंसे प्रकाशमान रूपवाले आप पूर्णतः प्रकट हो बृहदाकार दिखायी देने लगे ॥२॥

अहो ! जिसके तपे हुए स्वर्णके समान पीले तथा अत्यन्त रूखे ने . चञ्चल हो रहे थे और सटाके बाल ऊपर उठे हुए हिल रहे थे , जिनसे गगनतल आच्छादित हो रहा था , जिसका मुख खुली हुई एक विस्तृत महती गुफा -सदृश था , जिसकी खङ्कके समान तीखी महान् जिह्णा मुखके बाहर लपलपा रही थी और जो दृश्यमान दो महान् दाढ़ोंसे अत्यन्त भीषण लग रहा था , आपके उस दिव्य विग्रहकी जय हो ॥३॥

अट्टहास करते तथा जँभाई लेते समय ऊपर उठनेवाली वलिभङ्गिमासे जिसके जबड़े बड़े भयंकर लग रहे थे , जिसकी गरदन नाटी तथा मोटी थी , जिसके सैकड़ों मोटे -मोटे हाथ थे , जिनके नखोंकी क्रूर किरणोंसे वह अतिशय भयावना लग रहा था , जो आकाशको लॉंघनेवाले सजल जलधरके गर्जन -सदृश अत्यन्त गर्जनासे शत्रुसमूहोंको खदेड़ देनेवाला था , आपके उस नृसिंह -शरीरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४॥

‘ निश्र्चय ही यह विष्णु है , मैं इसे मारूँगा ’ ऐसा निश्र्चय करके दैत्यराज हिरण्यकशिपु अपनी गदाको घुमाते हुआ आपपर टूट पड़ा । उस समय वह भयंकर दिखाई देता था । तब आपने उसे अपने दो मोटे हाथोंसे पकड़ लिया । तदनन्तर हाथकी पकड़से छूटकर वह वीर पुनः ढाल - तलवार लेकर विचित्र पैंतरे दिखाता हुआ ब्रह्माण्डको ग्रास बनानेमें समर्थ आपके निकट आ धमका ॥५॥

तब पैंतरे बदलते हुए उस दैत्याधमको आपने पुनः वेगपूर्वक दोनों हाथोंसे पकड़कर सभाके द्वारपर अपनी दोनों जॉंधोंके ऊपर धर दबाया और पंजोंको उसके वक्षःस्थलमें गड़ाकर उसे फाड़ दिया । उसके अंदरसे निरन्तर निकलते हुए रुधिरूपी जलको बड़े उल्लाससे बारंबार पीते हुए आप जगत् -संहारकारी सिंहनाद करने लगे ॥६॥

उस समय आपका विशाल शरीर रुधिरके छींटोंसे अभिषिक्त हो उठा था । आप उस मरे हुए हिरण्यकशिपुको छोड़कर शीघ्र ही उछले और समस्त दैत्यसमूहोंको बारंबार अपना ग्रास बनाने लगे । यह देखकर चराचर जगत् बड़ी दुरवस्थामें पड़ गया ; धरती घूमने लगी , सागरसमूह कॉंपने लगे , अचलसमुदाय चञ्चल हो गये और आकाशचारी ग्रह -नक्षत्र अपने स्थानसे उछल पड़े ॥७॥

उस समय मांस और चर्बीके लेपसे आपका शरीर भयानक हो गया था । गलेमें भयंकर आँतोंकी माला लटक रही थी , आपका क्रोध बढ़ा हुआ था । जिसके कारण आप बारंबार दुर्वार सिंहनाद कर रहे थे । ऐसी दशामें संसारके किसी भी प्राणीने उस दैत्य -सभामें आपके निकट जानेकी हिम्मत नहीं की । शिव , ब्रह्मा और इन्द्र आदि सभी देव भयभीत हो दूर ही खड़े रहकर बारी -बारीसे आपकी स्तुति करते रहे ॥८॥

फिर भी जब आपका क्रोध कम नहीं हुआ तब ब्रह्माकी आज्ञासे बालक प्रह्लादने जाकर निर्भयतापूर्वक आपके चरणोंमें प्रणिपात किया । जिससे आपका क्रोध शान्त हो गया और आपने करुणाके वशीभूत हो उसके मस्तकपर अपना वरद हस्त रख दिया । तत्पश्र्चात् प्रह्लाद स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करने लगे । यद्यपि उनके मनमें किसी प्रकारकी कामना नहीं थी , फिर भी आपने उन्हें लोकानुग्रह -रूप वर प्रदान किया ॥९॥

इस प्रकार नाट्यरूपमें आप रौद्र -रसका अभिनय करनेवाले हैं । विभो ! श्रीतापनीयोपनिषद् स्पष्टरूपसे आपकी समस्त महिमाका गान करती है । अत्यन्त शुद्ध आकृतिवाले भगवन् ! आपका स्वरूप अनुपम तथा सर्वोत्कृष्ट है , ऐसे आपका —आपकी आज्ञाका -कौन लङ्घन कर सकता है । हे प्रह्लादप्रिय ! हे मरुत्पुरपते ! मेरी समस्त रोगोंस रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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