तृतीयस्कन्धपरिच्छेदः - त्रयोदशदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


हिरण्याक्षं तावद्वरद भवदन्वेषणपरं

चरन्तं सांवर्ते पयसि निजङ्घापरिमिते ।

भवद्भक्तो गत्वा कपटपटुधीर्नारदमुनिः

शनैरूचे नन्दन् दनुजमपि निन्दंस्तव बलम् ॥१॥

स मायावी विष्णुह्ररति भवदीयां वसुमतीं

प्रभो कष्टं कष्टं किमिदमिति तेनाभिगदितः ।

नदन् क्वासौ क्वासाविति स मुनिना दर्शितपथो

भवन्तं सम्प्रापद्धरणिधरमुद्यन्तमुदकात् ॥२॥

अहो आरण्योऽयं मृग इति हसन्तं बहुतरै -

र्दुरुक्तैर्विध्यन्तं दितिसुतमवज्ञाय भगवन् ।

महीं दृष्ट्वां दंष्ट्राशिरसि चकितां स्वेन महसा

पयोधावाधाय प्रसभमुदयुङ्क्था मृधविधौ ॥३॥

गदापाणौ दैत्ये त्वमपि हि गृहितोन्नतगदो

नियुद्धेन क्रीडन् घटघटरवोद्घुष्टवियता ।

रणालोकौत्सुक्यान्मिलति सुरसङ्घे द्रुतममुं

निरुन्ध्याः सन्ध्यातः प्रथममिति धात्रा जगदिषे ॥४॥

गदोन्मर्दे तस्मिस्तव खलु गदायां दितिभुवो

गदाघातद् भूमौ झटिति पतितायामहह भोः ।

मृदुस्मेरास्यस्त्वं दनुजकुलनिर्मूलनचणं

महाचक्रं स्मृत्वा करभुवि दधानो रुरुचिषे ॥५॥

ततः शूलं कालप्रतिमरुषि दैत्ये विसृजति

त्वयि च्छिन्दत्येतत्करकलितचक्रप्रहरणात् ।

समारुष्टो मुष्ट्या स खलु वितुंदंस्त्वां समतनोद्

गलन्माये मायास्त्वयि किल जगन्मोहनकरीः ॥६॥

भवच्चक्रज्योतिष्कणलवनिपातेन विधुते

ततो मायाचक्रे विततघनरोषान्धमनसम् ।

गरिष्ठाभिर्मुष्टिप्रहृतिभिरभिघ्रन्तमसुरं

स्वपादाङ्गुष्ठेन श्रवणपदमूले निरवधीः ॥७॥

महाकायः सोऽयं तव चरणपातप्रमथितो

गलद्रक्तो वक्त्रादपतदृषिभिः श्लाघितहतिः ।

तदा त्वामुद्दामप्रमदभरविद्योतिहृदया

मुनीन्द्राः सान्द्राभिः स्तुतिभिरनुवन्नध्वरतनुम् ॥८॥

त्वचि च्छन्दो रोमस्वपि कुशगणश्र्चक्षुषि घृतं

चतुर्होतारोऽङ्घ्रौ स्त्रुगपि वदने चोदर इडा ।

ग्रहा जिह्वायां ते परपुरुषं कर्णे च चमसा

विभो सोमो वीर्यं वरद गलदेशेऽप्युपसदः ॥९॥

मुनीन्द्रैरित्यादिस्तवनमुखरैर्मोदितमना

महीयस्या मूर्त्या विमलतरकीर्त्या च विलसन् ।

स्वधिष्णयं सम्प्राप्तः सुखरसविहारी मधुरिपो

निरुन्ध्या रोगं मे सकलमपि वातालयपते ॥१०॥

॥ इति हिरण्याक्षयुद्धवर्णनं त्रयोदशदशकं समाप्तम् ॥

वरद ! भूमिका उद्धार करते समय जब हिरण्याक्ष अपनी जंघाके बराबर जलवाले प्रलय -पयोधिमें आपके अन्वेषणमें तत्पर होकर विचर रहा था , तब कपट करनेमें निपुण बुद्धिवाले आपके भक्त नारदमुनि उसके निकट जाकर आपके भी बलकी निन्दा करके उस दानवकी प्रशंसा करते हुए नम्रतापूर्वक बोले —— ॥१॥

‘ सामर्थ्यशाली दानवराज ! वह मायावी ( वराहरूपधारी ) विष्णु आपकी ( ब्रह्माके पाससे अपहरण करके लायी हुई ) वसुधाको चुराये लिये जा रहा है । कष्ट है ! यह क्या बात है ?’ इस प्रकार नारदद्वारा प्रोत्साहित किये जानेपर उसने सिंहगर्जना करके ‘ वह कहॉं है ? वह कहॉं है ?’ यों पूछा। तब मुनि नारदके जिसे आपका मार्ग बतलाया था वह हिरण्याक्ष धरणीको धारण करके जलसे निकलते हुए आपके पास जा पहुँचा ॥२॥

भगवन् ! आपको देखते ही जब वह ‘अहो ! यह तो एक जंगली सूकर है ’ यों हँसता हुआ बहुत -सी कटूक्तियोंद्वारा आपको कष्ट पहुँचाने लगा तब आपने भी उस दिति -पुत्रकी अवज्ञा करके आने दंष्ट्राग्रभागपर स्थित भूमिका भयचकित देखकर उसे अपनी अप्रमेय महिमासे प्रलयपयोधिके जलपर स्थापित कर दिया और स्वयं बलपूर्वक युद्ध करनेके लिये उद्यत हो गये ॥३॥

उस दैत्यके हाथमें गदा सुशोभित थी , अतः आपने भी अपनी गदा लेकर उसे ऊँचा उठाया और युद्ध -क्रीडा प्रारम्भ हो गयी ! उस समय गदाके घात -प्रतिघातसे उत्पन्न ‘घट -घट ’ शब्दसे आकाश गूँज रहा था । आपकी रण -लीला देखनेंकी उत्सुकतासे सुर -समाज भी वहॉं आ पहुँचा । तब ब्रह्माने ‘संध्या -काल उपस्थित होनेके पूर्व ही इस असुरको शीघ्र काबूमें कर लीजिये । ’ यों आपको सूचित किया ॥४॥

भगवन् ! आश्र्चर्य है ! उस गदायुद्धमें जब दैत्यकी गदाके प्रहारसे आपकी गदा एकाएक पृथ्वीपर गिर पड़ी , तब भी आप खिन्न नहीं हुए बल्कि आपका मुख मृदु मन्द मुसकानसे खिल उठा । तत्पश्र्चात् आपने उस महान् सुदर्शन -चक्रका स्मरण किया जो दनुज -कुलका विनाश करनेमें प्रसिद्ध है । स्मरण करते ही वह उपस्थित हो गया । उसे करतलमें धारण करनेसे आपकी विचित्र शोभा हुई ॥५॥

तब उस दैत्यका कोप कालाग्निके समान भड़क उठा और उसने आपपर त्रिशूलसे प्रहार करना चाहा ; परंतु आपने अपने करकमलमें सुशोभित चक्रके आघातसे उस त्रिशूलको काट दिया । फिर तो वह दैत्य पहलेसे भी अधिक कुपित हो उठा और उसने आपपर मुक्केकी चोट की । तत्पश्र्चात् मायाएँ जिसके निकट पहुँचते ही नष्ट हो जाती हैं ऐसें मायाविरहित आपके उपर वह ऐसी आसुरी मायाओंका प्रयोग करने लगा जो जगत्को मोहमें डालनेवाली थीं ॥६॥

तत्पश्र्चात् जब आपके सुदर्शन -चक्रकी ज्योतिके लेशमात्र प्रसारसे वह आसुर माया -चक्र विनष्ट हो गया , तब जिसका मन बढ़े हुए घनीभूत क्रोधसे अंधा हो रहा था और जो अपने गुरुतर मुष्टिप्रहारोंसे आपपर बारंबार वार कर रहा था , उस असुरके कर्णमूलपर आपने अपने पादाङ्गुष्ठसे चोट पहुँचायी ॥७॥

आपके चरण -प्रहारसे मथित हुआ वह महाकाय दैत्य हिरण्याक्ष मुखसे रक्त वमन करता हुआ भूमिपर गिर पड़ा । उस समय ऋषिगण उसकी मृत्युकी प्रशंसा कर रहे थे । तब जिनका हृदय असीम आनन्दराशिसे उद्भासित हो रहा था ऐसे मुनीश्र्वरगण उत्तम -उत्तम स्तुतियोंद्वारा आप यज्ञमूर्तिकी उच्चस्वरसे स्तुति करने लगे - ॥८॥

‘ परमपुरुष ! आपकी त्वचामें गायत्री आदि छन्दोंकी स्थिति है । आपके रोमकूपमें कुशसमूह तथा नेत्रमें घृतका स्थान है । चारों होता ( अध्वर्यु , ब्रह्मा , होता , उद्गाता ) आपके चरणमें वर्तमान हैं । आपके मुखमें स्रुक् तथा उदरमें इडा ( पुरोडाश आदि रखनेका पात्रविशेष ) बतलाया जाता है । आपकी जिह्णामें ग्रह ( सोमरस रखनेके पात्राविशेष ) हैं और चमस ( भोजन - सामग्री रखनेके पात्र ) आपके कर्णरन्ध्रमें स्थित हैं । विभो ! सोमरस आपका वीर्य है ! वरद उपसदें ( प्रवर्ग्यानन्तर की जानेवाली इष्टियॉं ) आपके कण्ठदेशमें वर्तमान हैं ’ ॥९॥

यों स्तवनपरायण मुनीश्र्वरोंकी स्तुतिसे जिनका मन हर्षविभोर हो रहा था तथा जो महनीया मूर्ति और अत्यन्त निर्मल कीर्तिसे सुशोभित हो रहे थे , वे स्वच्छन्द क्रीडाविहारी विष्णु आप अपने निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये ! वातालयाधीश मधुरिपो ! मेरे भी समस्त रोगोंका विनाश कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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