कामाख्या स्तुतिः - सप्तमः पटलः

कामरूप कामाख्या में जो देवी का सिद्ध पीठ है वह इसी सृष्टीकर्ती त्रिपुरसुंदरी का है ।

॥ श्रीदेव्युवाच ॥

श्रुतं रहस्यं देवेश ! कामाख्याया महेश्वर !
महा - शत्रु - विनाशाय, साधनं किं वद प्रभो ! ॥१॥

॥ श्रीशिव उवाच ॥

अति - गुह्यतरं देवि ! तब स्नेहाद् वितन्यते ।
महावीरः साधकेन्द्रः, प्रयोगं तु समाचरेत् ॥२॥
पूजयित्वा महादेवी, पञ्चतत्त्वेन साधकः ।
महाऽऽनन्दमयो भूत्वा, साधयेत् साधनं महत् ॥३॥
स्व - मूत्रं तु समादाय, कूर्च - बीजेन शोधयेत् ।
तर्पयेद् भैरवीं घोरां, शत्रु - नाम्ना पिवेत् स्वयम् ॥४॥
दश - दिक्षु महापीठे, प्रक्षिपेदाननेऽपि च ।
नग्नो भूत्वा भ्रमेत् तत्र, शत्रु - नाशो भवेद् ध्रुवम् ॥५॥
शुक्र - शोणित - मूत्रेषु, वीरो यदि घृणी भवेत् ।
भैरवी कुपिता तस्य, सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥६॥
दृष्ट्वा श्रुत्वा महेशानि ! निन्दां करोति यो नरः ।
स महानरकं याति, यावच्चन्द्र - दिवाकरौ ॥७॥

॥ श्रीकामाख्या - तन्त्रे पार्वतीश्वर - सम्वादे सप्तमः पटलः ॥

शत्रुनाशउपाय

श्री देवी बोलीं - हे देवेश, महेश्वर ! कामाख्या के रहस्य को मैंने सुना । हे प्रभो ! बताइए कि महान् शत्रु के विनाश का क्या उपाय ?
श्री शिव ने कहा - हे देवी ! और भी अधिक गुप्त बात तुम्हारे स्नेह से बताता हूँ । महावीर श्रेष्ठ साधक को इस प्रयोग को करना चाहिए । महादेवी का पंचतत्त्वो से पूजन कर अत्यन्त आनन्दमय होकर इस महान् उपाय को करें ।
अपने मूत्र को लेकर कूर्च - बीज ( हूँ ) से शुद्ध करें । घोर - स्वरुपा भैरवीं का तर्पण करें और शत्रु का नाम लेकर उसे स्वयं पी जाएँ । दस दिशाओं में, महापीठ पर और मुख पर उसे छिड़ककर और नग्न होकर वहाँ भ्रमण करें । इस प्रयोग से निश्चय ही शत्रु का नाश हो जाएगा ।
वीर्य, रक्त और मूत्र - इन सबके प्रति यदि वीरसाधक को घृणा हो, तो भैरवी उससे क्रोधित होती है, यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ । हे महेशानि ! देख या सुनकर जो मनुष्य निन्दा करता है, वह चन्द्र और सूर्य जब तक हैं, तब तक हैं, तब तक भयंकर नरक में रहता है ।
हे महेशानि ! ' वीराचार ' की निन्दा मन से भी न करनी चाहिए । हे महादेवी ! जो ' वीर ' है, वह सदा स्वेच्छाचारी होकर भी सदा पवित्र रहता है ।
हे शिवे ! मिट्टी का पात्र लेकर ' साध्य ' का नाम लिखे । वायु - बीज ( यं ) से उसे पुटित कर उस पर अपना मूत्र छिड़कें और माया - बीज ( ह्रीं ) का १०८ बार जप करें । इससे हे महेश्वरी ! शत्रु का उन्माद होता है या वह मर जाता है ।
हे देवी, शंकरी ! बाएँ हाथ से अपने मूत्र को लेकर भैरवी को तर्पण करें, तो मारण और उच्चाटन होते हैं । भैरवी - मन्त्र ( ह्स्रैं ) से शोधित स्वमूत्र को श्रेष्ठ साधक फेंके, तो हे महेश्वर ! शत्रु को उन्माद होता है, या वह मुग्ध अथवा क्षुब्ध या वशीभूत होता है, यह निश्चित है ।
वीर साधक केवल मूत्र - साधन द्वारा इन्द्र के समान शत्रु का नाश कर देता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।
श्री देवी बोलीं - हे प्रभो, महेशान ! वीर्य, रक्त और मूत्र पर संसार में शुद्ध कैसे हैं ? यह बताइए और मेरे सन्देह को नष्ट करें ।
श्री शिव ने कहा - हे देवी ! रहस्य को सुनो । महान् ज्ञान को मैं बताता हूँ । वीर्य मैं हूँ, रक्त तुम हो । इन दोनों ही से सारा विश्व है । समस्त शरीर ही शुद्ध है क्योंकि यह वीर्य और रक्त से उत्पन्न होता है । इस प्रकार के शरीर में जो - जो वस्तु होती हैं, वह हे देवी ! अशुद्ध कैसे हैं ? पापी ही निन्दा करता है, यह निश्चित है । हे देवी ! यह ब्रह्मज्ञान है, जिसे मैंने तुमसे कहा है ।
हे देवी ! इस प्रकार सारा संसार ही शुद्ध है । फिर अपने शरीर में विद्यमान वस्तुओं का क्या कहना । ब्रह्मज्ञान के बिना मोक्ष नहीं होता । हे पार्वती ! ब्रह्मज्ञानी साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही होता है । वही दीक्षाप्राप्त साधक हैं, शुद्ध, वेदज्ञ ब्राह्मण है । उसकी गोद में समस्त तीर्थ निश्चित रुप से निवास करते हैं ।
॥ श्रीकामाख्या - तन्त्रे पार्वतीश्वर - सम्वादे सप्तमः पटलः ॥


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Last Updated : July 06, 2009

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